Month: July 2020

हरेला : पहाड़ की लोक संस्कृति और हरित क्रांति का पर्व

हरेला : पहाड़ की लोक संस्कृति और हरित क्रांति का पर्व

साहित्‍य-संस्कृति
डॉ. मोहन चंद तिवारी इस बार हरेला संक्रांति का पर्व उत्तराखंड में 16 जुलाई को मनाया जाएगा.अपनी अपनी रीति के अनुसार नौ या दस दिन पहले बोया हुआ हरेला इस श्रावण मास की संक्रान्ति को काटा जाता है.सबसे पहले हरेला घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में चढ़ाया जाता है और फिर  माताएं, दादियां और बड़ी बजुर्ग महिलाएं हरेले की पीली पत्तियों को बच्चों,युवाओं, पुत्र, पुत्रियों के शरीर पर स्पर्श कराते हुए आशीर्वाद देती हैं- “जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये, दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये. हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, यो दिन और यो मास भेटनैं रये. अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो.” परम्परा के अनुसार हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ,मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के ...
पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू

पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू

संस्मरण
आशिता डोभाल बात सदियों पुरानी हो या वर्तमान की हो पहाड़ों में जब भी बिजली जाती है तब हमारे पास एक ही साधन होता है लम्पू जो कई सालों से हमारे घर के अंधकार को दूर करने में हमारा उजाले का साथी होता था भले ही वर्तमान में पहाड़ों में कई गांव सुविधाओं से सुसज्जित हो गए है पर कई गांव आज भी सुविधाओं से वंचित है जहां आज भी रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू ही है. साठ-सत्तर के दशक में समूचे पहाड़ में बिजली से तो क्या ही जगमगाई होगी पर लोगों ने अपने लिए जीवन जीने के संसाधनों को जुटाने के भरकस प्रयास किए होंगे. जीवन के अंधकार और शिक्षा के अंधकार को मिटाने के लिए पहाड़ में लोगों की अपनी अलग तरकीब रही है, पुराने समय में लोग रात के अंधेरे को दूर करने के लिए चीड़ के पेड़ के छिलके (पेड़ की जड़ की तरफ का भाग) का उपयोग करते थे. लोगों की रोजमर्रा की जीवन शैली में लकड़ी निकलना एक विशेष काम होता था. मिट्टी ...
अम्मा का वो रेडियो

अम्मा का वो रेडियो

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—31 प्रकाश उप्रेती आज बात- “आम्क- रेडू” (दादी का रेडियो) की. तब शहरों से गाँव की तरफ रेडियो कदम रख ही रहा था. अभी कुछ गाँव और घरों तक पहुँचा ही था. परन्तु इसकी गूँज और गुण पहाड़ की फ़िज़ाओं में फैल चुके थे. इसकी रुमानियत ‘रूडी महिनेक पौन जसि’ (गर्मी के दिनों की ठंडी हवा) थी. क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सब इसकी गिरफ्त में थे. ‘अम्मा’ (दादी) के लिए यह एक नई चीज थी जिसके बारे में पहले उन्होंने सिर्फ सुन भर रखा था. प्रत्यक्ष दर्शन का यह पहला अवसर था. अम्मा का ज्यादा समय घर पर ही बीतता था. ईजा घर के बाहर का काम देखती थीं तो अम्मा घर पर हमारी रखवाली करती थीं. एक बार बौज्यू (पिता जी) दिल्ली से आए तो बोलता हुआ यन्त्र ले आए. घर में सबको बताया-"इहें रेडू कनि"(इसे रेडियो कहते हैं). उस रेडू को जानने और समझने की जितनी ललक हम में थी उससे कहीं कम अम्मा में भ...
अपराधी तो मारा गया… बस सवाल बाकी रह गए

अपराधी तो मारा गया… बस सवाल बाकी रह गए

समसामयिक
ललित फुलारा एनकाउंटर में आरोपित अपराधी, तो मारा गया पर अपराधी का पोषण करने वाले, सालों से उसे शरण देने वाले, उन रसूखदार कथित अपराधियों का क्या, जो हर बार पर्दे के पीछे ही रह जाते हैं. पर्दे के पीछे वाला यह खेल कभी सामने नहीं आ पाता. यह भी सच है कि अगर गिरफ्तार/सरेंडर किया हुआ अपराधी बच जाता, तो उसके सारे आका चौराहे पर आ जाते. राजनीति, नौकरशाही और अपराध के गठजोड़ कि पटकथा घरों से लेकर नुक्कड़ तक बांची जा रही होती. टीवी और अखबार भरे पड़े होते. कई सफेद कुर्तों पर कालीख पुत जाती. पर दुर्भाग्य है कि अपराध के पोषण वाली बेल बच गई, पत्ता तोड़ दिया गया. बिना सत्ता, शक्ति व धन के कोई गुंडा नहीं पनप सकता. जो लोग अपराधी के एनकाउंटर से खुश हैं, उनके लिए कानून नहीं भावनाएं सर्वोपरी है. ये ही भावनाएं अपराधी को भी बनाती है और नेता को भी! मैं इस त्वरित न्याय का पक्षधर नहीं हूं और न ही हर बार पुलिस ...
किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है कुटकी

किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है कुटकी

खेती-बाड़ी
बेहद कड़वी, लेकिन जीवनरक्षक है कुटकी जे. पी. मैठाणी मध्य हिमालय क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान के हिमालयी क्षेत्रों में बुग्यालों में जमीन पर रेंगने वाली गाढ़े हरे रंग की वनस्पति है कुटकी. उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र जो अधिकतर 2000 मीटर यानी 6600 फीट से ऊपर अवस्थित हैं उन बुग्यालों में कुटकी पायी जाती हैं. इसका वैज्ञानिक नाम पिक्रोराइज़ा कुरूआ है. यह वनस्पति गुच्छे में उगती है और इसकी जड़ें काली भुरभुरी उपजाऊ भूमि में दूब घास की जड़ों की तरह फैलती है. पौधे की ऊँचाई 8 से 10 इंच तक ही होती है. पत्तियां किनारों पर कटी हुई और फूल सफेद-हल्के बैंगनी गुच्छे में लगते हैं. बीज बेहद बारीक होते हैं. इसलिए बीजों का संग्रहण काफी कठिन होता है. बीज बनने पर स्वतः झड़ जाते हैं और उनसे बसंत ऋतु के साथ-साथ नई पौध तैयार हो जाती है. कुटकी को एक बार रोपित कर देने के बाद उसी पौध से कई...
तर्पण

तर्पण

किस्से-कहानियां
कहानी एम. जोशी हिमानी तप्त कुण्ड के गर्म जल में स्नान करके मोहन की सारी थकान चली गयी थी और वह अब अपने को काफी स्वस्थ महसूस करने लगा था. तप्त कुण्ड के नीचे अलकनन्दा अत्यंत शांत एवं मंथर गति से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी. पहाड़ों में बहने वाली नदियां वैसे तो किसी अल्हण किशोरी सी चहकती, फुदकती, बलखाती अपनी मंजिल की तरफ दौड़ लगाती हैं परन्तु बद्रीनाथ धाम में बहने वाली अलकनन्दा का यह रूप मनुष्य को अपने प्राणवान होने का अहसास कराना चाहती थी शायद. अलकनन्दा को मालूम था उसके शोर-शराबे तथा उच्छृंखलता से भगवान नारायण की तपस्या में खलल पड़ सकता है. बद्रीनाथ में आकर मनुष्य भले ही अपना संयम भूल जाये परन्तु अलकनन्दा अनादिकाल से अपनी मर्यादा तथा संयम को नहीं भूली थी. जोशीमठ से बद्रीनाथ की 40 किलोमीटर की यात्रा ने मोहन को बीमार कर दिया था. वह सोचता है उसे रात्रि विश्राम जोशीमठ में करना चाहि...
पहाड़ की माटी की सुगंध से उपजा कलाकार : वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’   

पहाड़ की माटी की सुगंध से उपजा कलाकार : वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’   

स्मृति-शेष
पुण्यतिथि (8 जुलाई) पर विशेष डॉ. मोहन चन्द तिवारी आज उत्तराखंड की लोक संस्कृति के पुरोधा वंशीधर पाठक जिज्ञासु जी की पुण्यतिथि है. जिज्ञासु जी ने कुमाऊं और गढ़वाल के लोक गायकों, लोक कवियों और साहित्यकारों को आकाशवाणी के मंच से जोड़ कर उन्हें प्रोत्साहित करने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया और आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले अपने लोकप्रिय कार्यक्रम 'उत्तरायण' के माध्यम से देशभर में पहाड़ की संस्कृति का लंबे समय तक प्रचार-प्रसार किया,उसके लिए उन्हें उत्तराखंड के लोग सदा याद रखेंगे. जिज्ञासु जी को प्रारम्भ से ही कविताएं और कहानियां लिखने का बहुत शौक था. इसलिए इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी. वर्ष 1962 में उनके मित्र जयदेव शर्मा ‘कमल’ ने उन्हें आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में आवेदन करने को कहा. उस समय 1962 में चीनी हमले के बाद भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश के सीमां...
कोरोना काल में चर्चा में आईं मनरेगा 

कोरोना काल में चर्चा में आईं मनरेगा 

समसामयिक
डॉ. राजेंद्र कुकसाल आजकल सोशल मीडिया पर मनरेगा चर्चाओं में हैं,  हासिये पर चल रही यह योजना अचानक सुर्खियों में आगयी क्योंकि हुक्मरानों को इस योजना के माध्यम से वेरोजगार प्रवासियों के लिए रोजगार की संभावनाएं दिखाई देने लगी. समय-समय पर मैं मनरेगा योजना से जुड़ा रहा. राज्य में चल रही मनरेगा योजना पर अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रहा हूं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना,  जिसे भारत सरकार ने सितंबर  2005 को पार्लियामेंट से पास करा कर कानूनी दर्जा दिया गया. यह योजना दो फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में शुरू की गयी  अगले बर्ष यानी 2007 में इसे और 130 जिलों में विस्तारित किया गया. वर्ष 2008-09 में पहली अप्रैल से यह देश के सभी 593 जिलों में लागू की गयी. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि ...
दीमक, मिट्टी और म्यर पहाड़

दीमक, मिट्टी और म्यर पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—30 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'धुड़कोटि माटेक'. मतलब दीमक के द्वारा तैयार मिट्टी की. पहाड़ में बहुत सी जगहों पर दीमक मिट्टी का ढेर लगा देते हैं. एक तरह से वह दीमक का घर होता है लेकिन दीमक उसे बनाने के बाद बहुत समय तक उसमें नहीं रहते हैं. बनाने के बाद फिर नया घर बनाने चल देते हैं. वह मिट्टी बहुत ही ठोस और मुलायम होती थी. कुछ ही ऐसी जगहें होती थीं जहां दीमक मिट्टी का ढेर लगाते थे. अमूमन वो जगहें वहाँ होती थीं, जहाँ धूप कम पड़ती हो, सीलन हो या कटे हुए पेड़ की जड़ों के आस-पास. हमारे गाँव में आसानी से 'धुड़कोटि माट' नहीं मिलता था. ईजा बहुत दूर 'भ्योव' (जंगल) के पास एक 'तप्पड' (थोड़ा समतल बंजर खेत) से 'धुड़कोटि माट' लाती थीं. घर 'लीपने' (पोतना) के लिए मिट्टी चाहिए होती थी. ईजा महीने दो महीने में एक बार गोठ, भतेर लीपती थीं. 'देहे' (देहरी) चूल्हा,  और 'उखोअ' (ओ...
दो देशों की साझा प्रतिनिधि थीं कबूतरी देवी

दो देशों की साझा प्रतिनिधि थीं कबूतरी देवी

संस्मरण
पुण्यतिथि पर (7 जुलाई) विशेष हेम पन्त नेपाल-भारत की सीमा के पास लगभग 1945 में पैदा हुई कबूतरी दी को संगीत की शिक्षा पुश्तैनी रूप में हस्तांतरित हुई. परम्परागत लोकसंगीत को उनके पुरखे अगली पीढ़ियों को सौंपते हुए आगे बढ़ाते गए. शादी के बाद कबूतरी देवी अपने ससुराल पिथौरागढ़ जिले के दूरस्थ गांव क्वीतड़ (ब्लॉक मूनाकोट) आईं. उनके पति दीवानी राम सामाजिक रूप से सक्रिय थे और अपने इलाके में 'नेताजी' के नाम से जाने जाते थे. नेताजी ने अपनी निरक्षर पत्नी की प्रतिभा को निखारने और उन्हें मंच पर ले जाने का अनूठा काम किया. आज भी चूल्हे-चौके और खेती-बाड़ी के काम में उलझकर पहाड़ की न जाने कितनी महिलाओं की प्रतिभाएं दम तोड़ रही होंगी. लेकिन दीवानी राम जी निश्चय ही प्रगतिशील विचारधारा के मनुष्य रहे होंगे, जिन्होंने अपनी 70 के दशक में अपनी पत्नी में संगीत की रुचि को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि उनको खुद लेकर आकाशवाण...