पहाड़ों में अंधकार को उजाले से रोशन करने वाला एकमात्र साधन-लम्पू

  • आशिता डोभाल

बात सदियों पुरानी हो या वर्तमान की हो पहाड़ों में जब भी बिजली जाती है तब हमारे पास एक ही साधन होता है लम्पू जो कई सालों से हमारे घर के अंधकार को दूर करने में हमारा उजाले का साथी होता था भले ही वर्तमान में पहाड़ों में कई गांव सुविधाओं से सुसज्जित हो गए है पर कई गांव आज भी सुविधाओं से वंचित है जहां आज भी रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू ही है.

लम्पू. सभी फोटो: आशिता डोभाल

साठ-सत्तर के दशक में समूचे पहाड़ में बिजली से तो क्या ही जगमगाई होगी पर लोगों ने अपने लिए जीवन जीने के संसाधनों को जुटाने के भरकस प्रयास किए होंगे. जीवन के अंधकार और शिक्षा के अंधकार को मिटाने के लिए पहाड़ में लोगों की अपनी अलग तरकीब रही है, पुराने समय में लोग रात के अंधेरे को दूर करने के लिए चीड़ के पेड़ के छिलके (पेड़ की जड़ की तरफ का भाग) का उपयोग करते थे. लोगों की रोजमर्रा की जीवन शैली में लकड़ी निकलना एक विशेष काम होता था. मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाना सबसे शुद्ध और स्वादिष्ट होता है और आग जलाने के लिए इन्हीं छिलकों को ही उपयोग में लाया जाता था.  लोग एक दिन में इतनी लकड़ियां और छिलके एकत्रित कर लेते थे जिससे महीने भर उनका गुजारा हो सके और इन्हीं छिलकों के सहारे सारी समाजिक गतिविधियां भी सम्पन्न होती थी.  कोई भी कार्य हो, वो चाहे शादी-ब्याह का हो या कोई देव कार्य, इन्हीं छिलकों के सहारे सारे काम अच्छी तरह से निपटाए जाते थे, जिस घर का जो आयोजन होता पूरे गांव के लोग उस परिवार का सहयोग करते और सारे काम आपसी मेलजोल से किए जाते. लकड़ी निकालने में छिलकों का अपना एक विशेष महत्व होता था, क्योंकि पुराने समय में यातायात के साधनों का न होना भी एक बहुत बड़ी चुनौती थी, जब कभी किसी का रिश्ता दूर दराज इलाके में होता था जहां बारात ले जाने लाने में 5-6 दिन लग जाते थे तो लोग बीच में पड़ने वाले पड़ावों की सारी सुविधाओं को जुटाकर रखते थे, छिलके से बनने वाली मशाल बनाकर रात का सफर तय करते थे. इस मशाल से सिर्फ बारातें ही नही लोग पढ़ाई-लिखाई के लिए भी इसी छिलके का उपयोग करते थे. खासकर दीपावली के त्यौहार में आजतक इन छिलकों का विशेष महत्व (भैलु बनाने में) होता है.

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और जरूरत आविष्कार की जननी. धीरे-धीरे जब करोसिन पहाड़ पहुंचा तो अपने साथ लम्पू भी पहाड़ के अंधकार को दूर करने पहाड़ पहुंच गया. तब लम्‍पू गिने चुने घरों में देखने को मिलता था, क्योंकि लम्पू जलाने के लिए कैरोसिन/मिट्टी के तेल की आवश्यकता भी होती है और मिट्टी का तेल हर घर में होना असम्भव था. गांव के धनवान लोगों के घरों में ही लम्पू जलते हुए देखा जा सकता था. गरीब परिवारों का जीवन छिलके की रोशनी में आबाद था और बिजली होना तो वो सपने में भी नहीं सोच सकते थे.  धीरे-धीरे, जैसे-जैसे जिस परिवार की आर्थिकी सही होती गई वैसे-वैसे लम्पू ने हर घर में अपनी एक विशिष्ट जगह बना ली.

आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं, पर हमारे पहाड़ों में कई ऐसे गांव है जहां बिजली आजतक नहीं पहुंची है और अगर कहीं दूर दराज के गांव में पहुंची भी है तो कभी-कभी ही बिजली रहती है क्योंकि प्राकृतिक आपदाएं आंधी, तूफान, तेज बारिश से ज्यादातर समय बिजली गुल ही रहती है, जबकि उत्तराखंड देश में बिजली उत्पादन में हमेशा अग्रणी रहा है और हम आज भी इसी लम्पू के सहारे जीवन जीने को विवश है. 

जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम लम्पू कहते हैं यानी कि जिसे हम लैंप कहते है वह आज के जैसा लैंप बिल्कुल भी नहीं था, उसकी रोशनी की अलग ही चमक और अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर घर के हर छोटे बड़े काम में इसकी एक अलग ही जगह थी घर की रोशनी को चमकाने वाला ये लम्पू अपना एक विशेष स्थान बनाए हुए था.  दिन ढलते ही उसमे मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती को ऊपर करना जैसे रोज का काम होता  था और तो और बाजार से खरीदे लम्पू की नकल करने की कोशिश में घर में कांच की बोतल का भी लम्पू बना रहता था. हर घर में लम्पू रखने की एक नियत जगह होती थी वो चाहे पढ़ाई का कमरा हो, रसोई घर हो या फिर गाय भैंस बांधने की जगह, सब जगह रोशनी का एकमात्र साधन लम्पू होता था. इसी लम्पू की रोशनी में पढ़ने वाले पहाड़ों से कई ऐसी प्रतिभाएं रही है जो देश विदेश के कई विशिष्ट, उच्च प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान रहे हैं.

लालटेन

आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं, पर हमारे पहाड़ों में कई ऐसे गांव है जहां बिजली आजतक नहीं पहुंची है और अगर कहीं दूर दराज के गांव में पहुंची भी है तो कभी-कभी ही बिजली रहती है क्योंकि प्राकृतिक आपदाएं आंधी, तूफान, तेज बारिश से ज्यादातर समय बिजली गुल ही रहती है, जबकि उत्तराखंड देश में बिजली उत्पादन में हमेशा अग्रणी रहा है और हम आज भी इसी लम्पू के सहारे जीवन जीने को विवश है. ये लम्पू पहले भी हमें रोशनी से जगमगाता था और अब भी जगमगा रहा है.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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5 Comments

  • अरूणा सेमवाल

    बहुत सुंदर लेख!!! अशिता
    हम सभी भाई बहनों ने भी अपने बाल्यकाल में इसी लम्पू के सहारे पठन-पाठन का कार्य किया है !
    जब पढ़ाई करते हुए निद्रा देवी आती थी तो
    कभी-कभार तो इसकी लौ से सिर के बाल भी जल जाते थे 😯😯😯

    • Ashi

      सही कहा जब बाल झुलस जाते थे और जलने की बदबू आती थी तब जाकर नींद टूटती थी। हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद🙏

    • Rajendra prasad

      कैन पूछि कि तुम्हारू नौनियाळ कैं क्लास मा छ?
      क्लास कु त पता नी पर साल भर मा पंद्रह बोतळ
      मट्टी कु तेल फूकि देन्दु।
      आपका आलेख निसंदेह बीते समय की यादों में ले गया। मेरे गाँव में एक परिवार ऐसा भी था जिसके बच्चे लम्पू में पढ़ने के लिए मेरे घर में आते थे।

  • गणेश सकलानी

    बहुत बढ़िया लेख और दिल को छू देने वाली यादें

  • Rinky Rawat

    Di article ka ye topic hai bhut khas hai pahado me hi nhi es lamp ko sehro me b ujala krte dekha h.. us waqt inverter nhi tha.. light ka intzaar rehta tha lamp se hi saare kaam hote the hum b chote hua krte the…
    Lamp se gaalo me jalne se chaley padna baalo ki jalane ki mehak se pta chlna ki baal lamp se jal gye hai..pure ghr ke andkaar ko sirf ek laltain roshan krta tha…apne Pauri me esko chimni ,laltain ve anye naamo se aaj b jana jata hai..

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