संस्मरण

संस्मरण : रानीखेत…. अभी तक आठ इंच से एक फिट तक बर्फ गिर चुकी है!

संस्मरण : रानीखेत…. अभी तक आठ इंच से एक फिट तक बर्फ गिर चुकी है!

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नीलम नवीन 'नील'  “जीवन में होश संभालने के बाद के 40 वर्षों को अगर बांटा जाए, तो देखती हूं कि पूरे जीवन के दो दो दशक, दो शहरों में गुजरे हैं. एक भागता, दौड़ता, बदलता, चीखता-चिल्लाता, रंगीन मिजाज, समुद्र के उठान-उफान जैसा बड़ा छोटा मिश्रित शहर. जहां एक हफ्ते बाद बाजार जाओ तो कुछ न कुछ बदल रहा होता है, लोग, मौसम, हवा ...सब बदल रहे हैं, ये एक ऐसा शहर है, जो कई बार पहाड़ी कस्बे सा दिखता है तो कभी मेट्रो सिटी जैसा होने का आभास देता है. जहां एक टोली निरपट्ट पहाड़ियों की है, तो दूसरी बिल्कुल अलग है, यह बेहद मिश्रित शहर है. दूसरा छोटा शहर बिल्कुल खामोश है, कोई हलचल नहीं, कोई जल्दी नहीं, एकदम शांत, गहरी धीमी नदी सा बहता हुआ, जैसे सदियों से ध्यानस्थ हो, जैसे अपने पूर्वजों को याद करते हुए, उन्हें अनुसरण करता हुआ चल रहा हो. वहां के लोग पहचाने जाते हैं, या एक दूसरे को  उनके हाव भाव, बातचीत के अंदाज ...
पीपलकोटी गाँव की चंदुली पुफु और दीवाली के अमरूद

पीपलकोटी गाँव की चंदुली पुफु और दीवाली के अमरूद

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जे पी मैठाणी पीपलकोटी उत्तराखंड के चमोली जिले का सिर्फ कोई गाँव या कस्बा नहीं है. उत्तराखण्ड में ऐसे बहुत कम कस्बे या गाँव हैं जहां पर उत्तराखण्ड की दो प्रमुख विरासतें जो गढ़वाली और कुमांऊनी परंपराओं को संजोए रखती है. यहां पीपल के पेड़ भावनाओं के केन्द्र हैं. इस कसबे में भाषा , जाति और धरम को आप सार्वजनिक स्थान पर न तो देख सकते हैं और ना ही मह्सूस कर सकते हैं . पुराने बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर बसा और वर्तमान में श्री बद्रीनाथ यात्रा मार्ग का प्रमुख पडाव पीपलकोटी एक ऐतिहासिक क़स्बा है. पुरातन समय में जब सड़क मार्ग नहीं था तब पैदल यात्रा मार्ग  जो चमोली. मठ, छिनका, बांवला, सियासैण,  हाट से अलकनन्दा को पार कर मंगरी गाड़ के बाद मुल्ला बाजार/शिवालय दुर्गा मंदिर से पीपलकोटी बस स्टेशन पर पहुंचता है, यही शिवालय से वर्तमान के प्रमुख बस अड्डे के बीच बसा ये ही पुराना पीपलकोटी क़स्बा है इसके बीच से ही पुरा...
अब कहां कौन किसी को पहचानता है!

अब कहां कौन किसी को पहचानता है!

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अनीता मैठाणी कुछ दिनों से बाहर एक्टिवा से आते-जाते हुए चीनी मिट्टी के चाय के कप के गुच्छों से लदी साइकिल दिख जाया कर रही थी। आज एटीएम के बाहर वैसी ही एक साइकिल खड़ी दिखी और उसके ठीक बगल में साइकिल वाला मुंह लटकाये बैठे दिख गया तो मैंने ब्रेक लगाकर एक्टिवा सड़क के दूसरी ओर रोक दी और उसके पास जाकर पूछा क्या हुआ तबियत तो ठीक है आपकी? वह एक फ़ीकी मुस्कान मुस्कुरा दिया बोला थोड़ा थक गया था और तबियत भी ठीक नहीं रहती इसलिए रूक-रूक कर चलता हूं। उम्र रही होगी यही कुछ 60-62। मैंने कहा- चाय-वाय पी लीजिए कुछ आराम मिलेगा। तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता से कहा नहीं-नहीं उसकी जरूरत नहीं है। वो पिछले साल स्टेंट (हृदय की शिराओं में पड़ने वाला स्टंट) पड़ा था तब से थोड़ा थक जाता हूँ साइकिल चलाते हुए बस्स। अब मैंने पूछा आपका नाम क्या हुआ, वो बोले युनूस। मैंने कहा मैं आपको थोड़ा मदद करूं तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे। वो बो...
चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जब नाटक में देवता के रूप में अवतरित हुए

चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जब नाटक में देवता के रूप में अवतरित हुए

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पेशावर विद्रोह दिवस पर यात्रा-संस्मरण डॉ. अरुण कुकसाल ...कैन्यूर बैंड से 20 किमी. चलकर हम पीठसैण पहुंचे हैं. पीठसैण (समुद्रतल से 2250 मीटर ऊंचाई) एक ऊंची धार पर एकदम पसरा है, ग्वाले की तरह. जैसे कोई ग्वाला ऊंचे टीले पर अधलेटा आराम फरमाते हुए नीचे घाटी में चरते अपने जानवरों पर भी नजर रख रहा हो. ‘पहाड़ी भाषा में ‘सैण’ का मतलब ‘मैदान’ होता है और ‘सैण’ में 'ई' की मात्रा लगा दो तो पहाड़ी में ‘सैणी’ ‘महिला’ को कहते हैं’. अब तक बिल्कुल चुप रहने वाले अजय ने अपनी चुप्पी इस ज्ञानी बात को कहकर तोड़ी है. सपकपाया अजय अपनी सफाई में कहता है कि 'पीठसैण नाम पर उसे यह याद आया'. अजय की इस बात पर केवल मुस्कराया ही जा सकता है. पीठसैण की वर्तमान पहचान उत्तराखण्ड के जननायक स्वर्गीय वीर चंन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जी से है. (ज्ञातव्य है कि चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’, सेना में 2/18 रायल गढ़वाल में हवलदार थे और 23 अप्रैल, 1930...
डॉ. अशोक कुमार गुसाईं : सीमांत में भी सराही गई जिनकी सक्रियता और संजीदगी

डॉ. अशोक कुमार गुसाईं : सीमांत में भी सराही गई जिनकी सक्रियता और संजीदगी

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दिनेश रावत डॉ. अशोक कुमार गुसाईं जी! शिक्षा विभाग के एक ऐसे अधिकारी रहे जिनकी प्रशासनिक एवं अकादमिक समझ जितनी गहरी है, भाव-स्वभाव, कार्य व व्यवहार उतना ही सहज-सरल. कार्य एवं दायित्वों के प्रति सजग-समर्पित तथा शिक्षक अभिभावक व जन सामान्य के लिए सदैव सुलभ. ना समय की पाबंदी, ना पद का कोई मद. आप ना केवल स्वयं बेहतर करने के लिए पर्यत्नशील रहते थे बल्कि शिक्षकों को भी निरंतर प्रेरित—प्रोत्साहित करते रहते थे. आपकी पारखी नज़रें बहुत आसानी से काम करने और ना करने वालों को पहचान लेती थीं. फिर चाहे वह अतिदुर्गम में हों या अतिसुगम में. काम न करने वालों के खिलाफ आवश्यक कार्यवाही तथा काम करने वालों को यथोचित मान-सम्मान-स​हयोग प्रदान करना आपकी विशिष्टता रही है. काम करने वाले शिक्षक-शिक्षिकाएं आपकी जुबां पर होते थे और अवसर मिलने पर उनके प्रयासों की प्रशंसा भी करते थे. आपके इन सद्प्रयासों से न केवल सबंधिं...
टिहरी का आदि विद्रोही (स्पार्टाकस) की याद

टिहरी का आदि विद्रोही (स्पार्टाकस) की याद

संस्मरण
अरुण कुकसाल बात 1973 की है. पिताजी का काशीपुर से टिहरी ट्रांसफर हुआ. मैंने 10वीं में प्रताप इण्टर कालेज, टिहरी में एडमीशन ले लिया था. पुराना बस अड्डा से बाजार की ओर ढलान से जाते हुए पुल के पार चकाचक सफेद मकान और उसके ऊपर लगे लाल झण्डे पर निगाह अक्सर रुक जाती थी. कालेज जाते हुए एक दिन जिज्ञासावश साथ चल रहे दोस्त अतर सिंह पुण्डीर से पूछा ‘ये घर किसका है' तो उसने सनसनी भरी जानकारी दी. टुकड़े-टुकड़े में कई दिनों तक मित्रों से मिलने वाली सूचना के मुताबिक ‘वो मकान वकील विद्यासागर नौटियाल का है. वे पक्के कम्यूनिस्ट हैं. रूस एवं चीन सहित कई अन्य कम्यूनिस्ट देशों में उनका आना-जाना लगा रहता है. लेखक भी हैं और अच्छी कहानियां लिखते हैं. एक दोस्त ने राज की बात बड़े धीरे से मित्रमण्डली को बताई कि वे जासूस भी हैं. ‘बस फिर क्या था. उन पर अधिक से अधिक जानकारी जुटाना हमारे, प्रमुख कार्यो में शामिल हो गया...
एक झोला हाथ में, चार चेले साथ में

एक झोला हाथ में, चार चेले साथ में

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प्रकाश उप्रेती  सभागार खचाखच नहीं भरा था. स्टेज पर 4 कुर्सियां और नाम की पट्टी थी. एक आयोजकनुमा जवान अंदर-बाहर और स्टेज के ऊपर नीचे चक्कर काट रहा था. गिनती तो नहीं की लेकिन सभागार में अभी सात-आठ लोग ही थे. उनमें से भी 2 लोग बैठ हुए थे बाकी सभागार की भव्यता और स्टेज की सजावट को हसरत भरी निग़ाहों से निहार रहे थे. तभी 24-25 साल का एक नौजवान गेट को पूरी ताकत से धक्का देते हुए सभागार के भीतर घुसा. उस नौजवान के ललाट पर पसीने की कुछ बूंदे थी, बाल अजय देवगन की भांति माथे से चिपके थे, पीले रंग की कमीज जिसे नाभि तक पहनी हुई पेंट के भीतर अतिरिक्त परिश्रम से खोंचा गया था, पेट तीन चौथाई निकला हुआ, कंधे पर हिमाचल में हुए सेमिनार का झोला, पाँव में चोंच वाले जूते, चेहरे पर अति गंभीरता थी. इस मुद्रा को मैंने ही नहीं बल्कि वहाँ उपस्थित उन 7-8 लोगों ने भी नोटिस किया. भीतर घुसते ही वह दिव्य नौजवान स्टेज की त...
मेरे हिस्से का आपातकाल

मेरे हिस्से का आपातकाल

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चारु तिवारी अंधेरी काली रातें. तारों से भरा आसमान. कड़कड़ाती ठंड़. चांद भी जैसे सुबह होने का इंतजार कर रहा हो. अभी ‘ब्यांण तार’ आने में देर थी. घाटी में बसे इस छोटे से कस्बे के चारों ओर गांव ही गांव. कहीं कोई आहट नहीं. चिड़ियों ने भी अपना ‘घोल’ नहीं छोड़ा है. रात खुलने के अभी कोई संकेत नहीं. दूर शियारों की ‘टुक्याव ’ (बोलने की आवाज) अभी आयी नहीं. बगल के गांव रावलसेरा के मुर्गे तो और देर में बांग देते हैं. बाहर खेतों में दूर तक बिछी ‘तुषार’ (रात को गिरी ओस का सख्त होना) की सफेद चादर. जहां पानी रुका हैं वहां ‘खांकर’ (पानी का जमना) जम गई है. सोचता था पिताजी इतनी जल्दी उठ क्यों जाते हैं? स्कूल जाने का समय भी दस बजे का है. इतनी जल्दी पिताजी जाते कहां हैं? ईजा से एक-दो बार पूछा तो वह भी टाल गई. बहुत बाद में पता चला कि देश में आपातकाल लगा है. सरकारी कर्मचारियों से सख्ती है. नौकरी बचानी है तो इंदिरा ग...
उत्तराखंड: मठ-मंदिरों के प्रति मैं श्रद्धा से नतमस्तक हो गई

उत्तराखंड: मठ-मंदिरों के प्रति मैं श्रद्धा से नतमस्तक हो गई

संस्मरण
जाख देवता (गुप्तकाशी) जाखधार देवशाल सुनीता भट्ट पैन्यूली यात्राओं का एक नैतिक व सकारात्मक कर्म यह भी होना चाहिए कि जहां-जहां हम जाते हैं, रहगुज़र जिस पर भी हमारी दृष्टि पड़ती है उसके बारे में कौतुहल, जिज्ञासा  इतनी विकराल होनी चाहिए कि हम उस वैशिष्ट्य और वैविध्य को दूसरों के संज्ञान में भी ला सकें. यदि हम पौराणिक और धार्मिक स्थलों की यात्रा पर हैं तो यात्रायें निश्चित ही अपनी  परंपराओं और अपने सांस्कृतिक गौरव को बल देने के उद्देश्य से भी प्रेरित होनी चाहिए. अभी हाल ही में गुप्तकाशी जाना हुआ. गुप्तकाशी अपने आप में ही एक पौराणिक और सांस्कृतिक वैभव की नगरी है. केदारघाटी के जाख देवता जिन्हें यहां के स्थानीय निवासी यक्ष के रूप में पूजते हैं,अपने रहस्यमयी और चमत्कारिक अवतरण के लिए देश-विदेश में भी प्रख्यात हैं. कहा जाता है कि जाख देवता अपने पशवा पर अवतरित होकर जलते अंगारों पर नृत्य करता...
हिमालय की एक परंपरा का जाना है पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान

हिमालय की एक परंपरा का जाना है पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान

संस्मरण, स्मृति-शेष
'वृक्ष मानव' विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी की जयंती (2 जून, 1922 ) पर सादर नमन चारु तिवारी प्रकृति को आत्मसात करने वाले वयोवृद्ध पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान हिमालय की एक परंपरा का जाना है. उन्हें कई सदर्भों, कई अर्थों, कई सरोकारों के साथ जानने की जरूरत है. पिछले दिनों जब उनकी मृत्यु हुई तो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के समाचार माध्यमों ने उन्हें प्रमुखता के साथ प्रकाशित-प्रसारित किया. इससे पहले शायद ही उनके बारे में इतनी जानकारी लेने की कोशिश किसी ने की हो. सरकार के नुमांइदे भी अपनी तरह से उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुये. मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया. जैसे भी हो यह एक तरह से ‘वृक्ष मानव’ की एक परंपरा को जानने का उपक्रम है जिसे कई बार, कई कारणों से भुलाया जाता है. 96 वर्ष की उम्र में (18 जनवरी, 2019) उन्होंने अपने गांव सकलाना पट्टी ...