अल्फ़ाज़ बहुत वीरान है, रात है, ढल जाएगी, आफ़त है, क़यामत because है, टल जाएगी. खौफ़ का दरिया because उबाल
Read Moreसपना भट्ट कविता कई मायनों में जीवन राग भी है. व्यक्ति के जीवन का व्यक्त- अव्यक्त, दुःख-सुख, प्रेम- वियोग, संघर्ष-
Read Moreविश्व स्तनपान सप्ताह (1 अगस्त से 7 अगस्त) इस बार की थीम ‘स्तनपान की रक्षा करें- एक साझा जिम्मेदारी’ है।
Read Moreयामिनी नयन गुप्ता इतिहास के पन्नों में जाकर कालातीत होने को अभिशप्त हो गई परीपाटी चिट्ठियों की वह सुनहरा दौर,
Read Moreनिमिषा सिंघल अपेक्षाएं पांव फैलाती हैं… जमाती हैं अधिकार, दुखों की जननी का हैं एक अनोखा…. संसार। जब नहीं प्राप्त
Read Moreहोली पर की कल्याण सिंह चौहान दो कविताएं 1. होली के रंग रंग ले रंग ले, तन रंग ले, तन
Read Moreडॉ. दीपशिखा वो भी उड़ना चाहती है. बचपन से ही चिड़िया, तितली और परिंदे उसे आकर्षित करते. वो बना माँ की ओढ़नी को पंख, मारा करती कूद ऊँचाई से. उसे पता था वो ऐसे उड़ नहीं पायेगी फिर भी रोज़ करती रही प्रयास. एक ही खेल बार-बार. उसने उम्मीद ना छोड़ी, एक पल नहीं, कभी नहीं. उम्मीद उसे आज भी है, बहुत है मगर अब वो ऐसे असफल प्रयास नहीं करती. लगाती है दिमाग़ कि सफल हो जाए अबकी बार और फिर हर बार. फिर भी आज भी वो उड़ नहीं पाती, बोझ बहुत है उस पर जिसे हल्का नहीं कर पाती. समाज, परिवार, रिश्ते, नाते, रीति-रिवाजों और मर्यादाओं का भारी बोझ. तोड़ देता है उसके कंधे. और सबसे बड़ा बोझ उसके लड़की, औरत और माँ होने का. किसी पेपर वेट की तरह उसके मन को हवा में हिलोरें मारने ना देता. कभी-कभी भावनाओं की बारिश में भीग भी जाते हैं उसके पंख. उसके नए-नए उगे पंख. जो उसने कई सालों की मेहनत के बाद उगाए, एक झटके में सिमट जाते हैं किसी तूफ़ान में. तो क्या वो बिना उड़े ही आसमान देख रह जाती है!
Read Moreउमेद सिंह बजेठा गणतंत्र दिवस हमारा पर्व है, सभी धर्मों संप्रदायों का गर्व है. हमने ही जय जवान तथा, जय
Read Moreभुवन चन्द्र पन्त छीन लिया है अमन चैन सब, जब से तुमने पांव पसारे। हर घर में मेहमान बने हो,
Read Moreसुधा भारद्वाज “निराकृति” अबोध भूली बाल स्वभाव वह… बहती थी सरिता सम वह… क्या सोच उसे समाज की… कुछ अजब
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