कविताएं

रात है, ढल जाएगी

रात है, ढल जाएगी

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अल्फ़ाज़ बहुत वीरान है, रात है, ढल जाएगी, आफ़त है, क़यामत because है, टल जाएगी. खौफ़ का दरिया because उबाल मार रहा है, किनारा कोई न because नजर आ रहा है. है विश्वास भरा because हौसलों के सागर में, तूफान में किश्ती because मेरी संभल जाएगी. बहुत वीरान है, because रात है, ढल जाएगी, आफ़त है, क़यामत है, because टल जाएगी. ज्योतिष माना कि because दुबक रहा है, सिसक रहा है, वक्त बुरा है मुश्किलों because से गुजर रहा है, सफर में हूं मगरbecause राह से अनजान हूं, मंजिल है, सब्र because करो मिल जाएगी. बहुत वीरान है, रात है, because ढल जाएगी, आफ़त है, क़यामत है, because टल जाएगी. ज्योतिष इंसान भी because तो हूं, बेबस हो जाता हूं, कभी अपनी परछाइ से because डर जाता हूं कभी बुराई से भिड़-लड़ because जाता हूं, ईमान में रहो, जिन्दगी because संभल जाएगी बहुत वीरान है, रात है, because ढल जाएगी, ...
प्रेम मात्र पा लेना तो नहीं…

प्रेम मात्र पा लेना तो नहीं…

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सपना भट्ट कविता कई मायनों में जीवन राग भी है. व्यक्ति के जीवन का व्यक्त- अव्यक्त, दुःख-सुख, प्रेम- वियोग, संघर्ष- सफलता की ध्वनि काव्य में सुनाई देती है. भले ही ‘लेखक की मृत्यु’ की घोषणा हुए पाँच दशक गुजर गए हों लेकिन रचना को आज भी लेखक के संघर्ष और जीवन-अनुभवों से काट कर नहीं देखा जा सकता है. कविता में तो जीवनानुभव और सघन रूप में मौजूद रहते हैं. जीवन की इन्हीं सघन अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली कवियत्री हैं- सपना भट्ट. यहाँ सपना भट्ट की पाँच कविताएँ दी जा रही हैं. इन कविताओं में प्रेम की सघन अनुभूति भी है और निश्छल मन की बैचेनी भी है- (1) सहानुभूति के लेप से आत्मा के अदृश्य घाव नहीं भरते कोरे दिलासों से मन की चिर अतृप्त तृष्णाएं तृप्ति नहीं पाती। किसी स्वप्न में किये आलिंगन की स्मृति की सुवास से देह नहीं महकती। पीठ पर हाथ भर फेर देने से रीढ़ की टीस नहीं जाती हाथ की रेखाएं बदल...
मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी…

मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी…

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विश्‍व स्‍तनपान सप्‍ताह (1 अगस्त से 7 अगस्त) इस बार की थीम 'स्‍तनपान की रक्षा करें- एक साझा जिम्‍मेदारी' है। इस थीम का उद्देश्‍य लोगों को स्‍तनपान के लाभ बताना और उसके प्रति लोगों को जागरूक करना है। इसी उपलक्ष्य नीलम पांडेय 'नील' की कविता मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी..... मां, तेरे दूध की पहली धार को, सिर्फ दूध नहीं कहूंगी। प्रेम की बयार कहूंगी, मेरे चेहरे पर होने वाली स्नेह बारिश की, पहली सी फुहार कहूंगी। मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी। सुरक्षा का टीका कहूंगी, आजीवन तेरे स्नेह का मेरे लिए उपहार कहूंगी, तेरे ममत्व को बेमिसाल कहूंगी। मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी। रक्षा का चक्र कहूंगी, जीवन को वरदान कहूंगी, तेरे दूध की हर बूंद को दृढ़ विश्वास कहूंगी। मां, तेरे दूध को सिर्फ दूध नहीं कहूंगी। स्तन चूसन की पीड़ा को ढक, मन्द मन्द मुस्कान त...
पाती प्रेम की

पाती प्रेम की

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यामिनी नयन गुप्ता इतिहास के पन्नों में जाकर कालातीत होने को अभिशप्त हो गई परीपाटी चिट्ठियों की वह सुनहरा दौर, डाकिए का इंतजार साइकिल की घंटी डाक लाया का शोर, अब नजर नहीं आतीं लाल रंग की पत्र पेटियां प्रियतम की पाती का दौर; बूढ़ी आंखों की प्रतीक्षा कुशलक्षेम का समाचार, गौने की राह तकती नवयुवती का इंतजार आपसी संवाद का जरिया, संदेशे प्रेम के खलिहानों का दौर; सुदूर कंक्रीट के शहरों में जा बसे बेटे का खत… फक्त कागज का पुर्जा ना था, पुरानी चिट्ठियों को उलट-पलटकर बार-बार पढ़ने का सुख, रोजी-रोटी की टोह में सब हो गई बातें बीते समय की धैर्य मानो गया है चुक; अब नहीं भाता किसी को इंतजार प्रतीक्षा प्रत्युत्तर की, कभी समय मिले तो लगाओ हिसाब तकनीक ने कितना लिया और क्या दिया, चिट्ठियों के जरिए बांटा गया अपनापन रिश्तो को सहेजने-सवांरने का ढंग अब कभी लौटकर नहीं...
अपेक्षा/उपेक्षा

अपेक्षा/उपेक्षा

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निमिषा सिंघल अपेक्षाएं पांव फैलाती हैं... जमाती हैं अधिकार, दुखों की जननी का हैं एक अनोखा.... संसार। जब नहीं प्राप्त कर पाती सम्मान, बढ़ जाता है क्रोध... आरम्पार, दुख कहकर नहीं आता.. बस आ जाता है पांव पसार। उलझी हुई रस्सी सी अपेक्षाएं खुद में उलझ.. सिरा गुमा देती हैं। भरी नहीं इच्छाओं की गगरी.... तो मुंह को आने लगता है दम। भरने लगी  गगरी... उपेक्षाओं के पत्थरों से, जल्दी ही भर  भी गईं.. पर रिक्तता बाकी रही...। मन का भी हाल  कुछ ऐसा ही है स्नेह की नम मिट्टी..  पूर्णता बनाए रखती हैं, उपेक्षाएं रिक्त स्थान छोड़ जाती हैं। (लेखिका मूलत: आगरा उत्तर प्रदेश से हैं तथा कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित एवं ‘सर्वश्रेष्ठ सदस्य एवं सर्वश्रेष्ठ कवि सम्मान’ सावन.इन (अक्टूबर-2019, जनवरी-2020) जैसे कई सम्‍मानों से सम्‍मानित हैं)...
होली के रंग…

होली के रंग…

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होली पर की कल्याण सिंह चौहान दो कविताएं  1. होली के रंग रंग ले रंग ले, तन रंग ले, तन रंग ले, तु मन रंग ले, होली के रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले.... रंग ले रंग ले, दुनिया के रंग ले रंग ले, रंग ले रंग ले, दुनिया अपने रंग रंग ले, रंग ले रंग ले, तु प्यार के रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले.... रंग ले रंग ले, मैं मैं ना रहे, रंग ले रंग ले,  तू तू ना रहे, सच्चा रंग रंग ले, तू पक्का रंग रंग ले।। रंग ले रंग ले..... रंग ले रंग ले, तू कान्हा के रंग रंग ले, रंग ले रंग ले, तू श्यामा के रंग रंग ले, ऐसा रंग ले, कि रंग छूटे ना, होली के रंग रंग ले, रंग ले रंग ले.....।। ********************************** 2. होली है   ऐगी होली फागै की, भाईचारा प्यार की। छोली जाली मठ्ठा बल, छोली जाली मठ्ठा। पंचैती चौक, होली खेलणू, सरू गौं कठ्ठा। ऐगी होली फागै की, भाईचारा प्यार की।। होली है स रा रा रंग उडणू, ...
उड़ान

उड़ान

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डॉ. दीपशिखा वो भी उड़ना चाहती है. बचपन से ही चिड़िया, तितली और परिंदे उसे आकर्षित करते. वो बना माँ की ओढ़नी को पंख, मारा करती कूद ऊँचाई से. उसे पता था वो ऐसे उड़ नहीं पायेगी फिर भी रोज़ करती रही प्रयास. एक ही खेल बार-बार. उसने उम्मीद ना छोड़ी, एक पल नहीं, कभी नहीं. उम्मीद उसे आज भी है, बहुत है मगर अब वो ऐसे असफल प्रयास नहीं करती. लगाती है दिमाग़ कि सफल हो जाए अबकी बार और फिर हर बार. फिर भी आज भी वो उड़ नहीं पाती, बोझ बहुत है उस पर जिसे हल्का नहीं कर पाती. समाज, परिवार, रिश्ते, नाते, रीति-रिवाजों और मर्यादाओं का भारी बोझ. तोड़ देता है उसके कंधे. और सबसे बड़ा बोझ उसके लड़की, औरत और माँ होने का. किसी पेपर वेट की तरह उसके मन को हवा में हिलोरें मारने ना देता. कभी-कभी भावनाओं की बारिश में भीग भी जाते हैं उसके पंख. उसके नए-नए उगे पंख. जो उसने कई सालों की मेहनत के बाद...
आंदोलन के नाम पर अराजकता

आंदोलन के नाम पर अराजकता

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उमेद सिंह बजेठा गणतंत्र दिवस हमारा पर्व है, सभी धर्मों संप्रदायों का गर्व है. हमने ही जय जवान तथा, जय किसान का नारा दिया. फिर क्यों आज किसान ने, जवान पर तलवार से प्रहार किया. लाल किला राष्ट्रीय स्मारक है, राष्ट्र के गौरव का प्रतीक है. इसकी सुरक्षा व सम्मान प्रत्येक, भारतीय का कर्तव्य पुनीत है. आंदोलन की आड़ में तौहीन, यह कतई बर्दाश्त नहीं. तिरंगे के स्थान पर किसी, अन्य को यह मान प्राप्त नहीं न भाषा मर्यादित है,  न आचरण प्रशंसनीय है. शांति व प्रेम से हल खोजो, टकराव की राह निंदनीय है. इतिहास के पन्ने पढ़कर, तुमने कुछ नहीं सीखा है. बलिदान को उनके भुला दिया, देश को जिन्होंने लहू से सींचा है. मत खेलो उन हाथों में, तोड़ना देश जो चाहते हैं. विफल करो षड्यंत्र सभी, ज्वाला नफ़रत जो फैलाते हैं. मिल बैठकर बातें कर लो, क्रोध विनाश का मूल है. वरना कुछ भी हासिल नहीं ह...
क्यों रिश्तों को छीन रहे हो?

क्यों रिश्तों को छीन रहे हो?

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भुवन चन्द्र पन्त छीन लिया है अमन चैन सब, जब से तुमने पांव पसारे। हर घर में मेहमान बने हो, सिरहाने पर सांझ-सकारे।। भुला दिये हैं तुमने अब तो, रिश्तों के संवाद सुरीले। सारे रिश्ते धता बताकर, बन बैठे हो मित्र छबीले।। सब के घर में रहने पर भी, ऐसी खामोशी है छाई। बतियाते हैं सब तुमसे ही, मम्मी-पापा, बहना भाई।। घर के रिश्ते मूक बने हैं, तुमसे रिश्ता जोड़ रहे हैं। खुद-रोते हंसते तेरे संग, हमसे नाता छोड़ रहे हैं।। नन्हें से बच्चे तक को भी, तुमने ऐसे मोह में जकड़ा। रोता बच्चा चुप हो जाये, ज्यों ही उसने तुमको पकड़ा।। गुस्से में मैं बोला इक दिन, क्यों रिश्तों को छीन रहे हो? हमसे इतना प्यार जताने, को तुम क्यों शौकीन रहे हो? चुपके से आकर वो बोला, खता न मेरी खुद को रोको। यकीं नही मेरी बातों पर, मुझको इस पत्थर पर ठोको।। कसम तुम्हारी ऊफ न करूंगा, चाहे कितना भी धोओगे। पर ये...
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ!

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ!

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सुधा भारद्वाज “निराकृति” अबोध भूली बाल स्वभाव वह... बहती थी सरिता सम वह... क्या सोच उसे समाज की... कुछ अजब रूढ़ी रिवाज की... परिणाम छूटी शि क्षा उसकी... नही हुई पूरी कोई आस उसकी... सपने देखे बहुत बड़े-बड़े थे... रिश्ते तब सब आन अड़े थे... छूट गयी सभी सखी सहेली... जीवन बना था एक पहेली... जिस उम्र में सखियाँ करती क्रीड़ा... वह झेल रही थी प्रसव पीड़ा... अबोध अशिक्षित अज्ञानी वह... क्या देगी बालक को शिक्षा... जीवन के हर कठिन मोड़ पर... काम तो आती है शिक्षा... परिस्थितियां विपरित भले हो... कार्य यदि हो सभी समय पर... नही उठाना पड़ता जोख़िम... हाथ बँटाती है शिक्षा... (विकासनगर उत्तराखण्ड)...