हरेला : पहाड़ की लोक संस्कृति और हरित क्रांति का पर्व

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

इस बार हरेला संक्रांति का पर्व उत्तराखंड में 16 जुलाई को मनाया जाएगा.अपनी अपनी रीति के अनुसार नौ या दस दिन पहले बोया हुआ हरेला इस श्रावण मास की संक्रान्ति को काटा जाता है.सबसे पहले हरेला घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में चढ़ाया जाता है और फिर  माताएं, दादियां और बड़ी बजुर्ग महिलाएं हरेले की पीली पत्तियों को बच्चों,युवाओं, पुत्र, पुत्रियों के शरीर पर स्पर्श कराते हुए आशीर्वाद देती हैं-

“जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये.
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये.
अगासाक चार उकाव,
धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो,
स्यू जस पराण हो.”

परम्परा के अनुसार हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ,मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं,और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है. धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं.

इन दुदबोलि की पंक्तियों का भाव यह है- “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले. जब तक कि हिमालय में बर्फ है,गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें. आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”

परम्परा के अनुसार हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ,मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं,और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है. धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं.

उत्तराखंड प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया था और इसी कृषि वैज्ञानिक पर्व की बदौलत सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को जाता है.

उत्तराखंड प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया था और इसी कृषि वैज्ञानिक पर्व की बदौलत सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को जाता है. हरेला उत्तराखंड राज्य की हरियाली, खुशहाली, परंपरागत कृषि और मौसम के पूर्वानुमान से जुड़ा कृषि वैज्ञानिक पर्व भी है. उत्तम खेती ,हरियाली, धनधान्य, सुख-संपन्नता आदि से इस त्यौहार का घनिष्ठ सम्बंध रहा है. माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है. इस दृष्टि से भी हरेला उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ी और पथरीली धरती में हरित क्रान्ति लाने का परम्परागत कृषिवैज्ञानिक लोकपर्व है.किसी जमाने में ऋतुओं का स्वागत हरेले के पर्व के द्वारा किए जाने की परम्परा रही थी. हरेले का पर्व नई ऋतु के शुरु होने की सूचना का पर्व भी है.

पहाड़ों में मुख्यतः तीन ऋतुएं होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा. यहां मौसम का मिजाज प्रायः बदलता रहता है. कुमाऊं अंचल में इसी मौसम के शुभाशुभ की संभावनाओं के पू्र्वानुमान को जानने समझने के लिए हरेला वर्ष में तीन बार बोया और काटा जाता है. ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो पहली बार चैत्र माह के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है. वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये दूसरी बार श्रावण माह लगने से नौ या दस दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और श्रावण माह की एक गते को हरेला काटा जाता है. शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो तीसरी बार आश्विन नवरात्र के पहले दिन हरेला बोया जाता है,और दशहरे के दिन काटा जाता है. किन्तु वर्षाऋतु के श्रावण मास की संक्रांति को बोये जाने वाले हरेले का विशेष महत्त्व है. क्योंकि इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं.

पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिए वह इसी दिन अनाज के हरेले पौधों की आकृति को धारण करके गौरा रूप में अवतरित हुई थीं. इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है. इस लिए हरेले के दिन शिव पार्वती की सपरिवार पूजा की जाती है और उन्हें हरेला चढ़ाया जाता है.

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रावण का महीना शिव की पूजा अर्चना का भी पवित्र महीना है. हरेला, हरियाली अथवा हरकाली आदि ऐसे शब्द हैं जो बताते हैं कि हरेला का सम्बंध खेतीबाड़ी से जुड़ी हरियाली से है जिसे शिव पार्वती की अनुकंपा से ही प्राप्त किया जा सकता है. पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिए वह इसी दिन अनाज के हरेले पौधों की आकृति को धारण करके गौरा रूप में अवतरित हुई थीं. इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है. इस लिए हरेले के दिन शिव पार्वती की सपरिवार पूजा की जाती है और उन्हें हरेला चढ़ाया जाता है.

किसी जमाने में हरेले की हरियाली को देखकर ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का शुभारम्भ इसी उत्तराखंड की देवधरा पर हुआ करता था.

दरअसल, सावन-भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सके,उसे शाक-सब्जी उगा कर हरा भरा रखा जा सके और धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया सके. समस्त उत्तराखंड आज जलसंकट व पलायन की विभीषिका को झेल रहा है उसका कारण यह है कि परंपरागत खाल, तालाब आदि जल-भंडारण के स्रोत सूख गए हैं उन्हें भी इन्हीं बरसात के मौसम में पुनर्जीवित किया जा सकता है और हरेला उस पुनीत कार्य का भी अनुकूल अवसर है.

उत्तराखंड के लोगों के लिए ‘हरेला’ का पर्व मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाली हरित क्रान्ति का वार्षिक अभियान भी है, जिस पर हमारी जीवन चर्या और आर्थिक प्रगति भी टिकी हुई है.इसलिए हरित क्रान्ति के इस वार्षिक अभियान पर कभी विराम नहीं लगना चाहिए. हरेले का मातृ-प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के दिन मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली तो पूरे साल भर चाहिए, जिससे कि उत्तराखंड शस्य श्यामला देवभूमि उपजाऊ बन सके.

लोक संस्कृति हमारे हृदय में कस्तूरी की तरह बसती है वह हमारी सांसों और संस्कारों में भी रची बसी है.इसलिए हम जहां भी रहें यह हरेले की संक्रांत हमें हर साल हरेला लगाने वाली अपनी ईजा की याद तो दिलाती ही है जो इस दिन ‘जी रये जागि रये’ के उद्बोधन से हमें ‘यशस्वी भव!’ का आशीर्वाद देती है…

दरअसल, हरेले का त्योहार मनाने में हमको आनंद की अपार अनुभूति इसलिए भी होती है क्योंकि हम अपनी लोक संस्कृति की पहचान से जुड़ते हैं, हम  सांस्कृतिक पर्व हरेला की गागर से अपनी लोक संस्कृति की जड़ों को पानी देते हुए अपने सूखे रूखे मन में हरियाली का भाव ला रहे होते हैं और इससे हम स्वयं को तरो-ताजा भी अनुभव कर रहे होते हैं. वरना तो उपभोक्तावाद के बाजार की किसी भीड़ में हम एक दिन गुमनाम बनकर कहीं खो जाएंगे. इसलिए हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें या अपार धनसम्पत्ति के मालिक बन जाएं, हमें अपनी क्षेत्रीय लोक संस्कृति के मूल्यों से नहीं कटना चाहिए. हम लोक संस्कृति के मूल अपने त्योहारों को मनाते रहेंगे, तो उसी में अपार सुख है,जीवन का मधुमय रस है. मातृभूमि की गोद में बैठ कर वात्सल्य भाव पाने की एक चिर प्रतीक्षित अभिलाषा और महत्त्वाकांक्षा भी इससे तृप्त होती है. मातृत्वभाव से जुड़े इस लोक संस्कृति के चिंतन से अनुप्राणित होने की वजह से ही हम आज ‘वन्दे मातरम्’ की राष्ट्रवादी भावना से जुड़े हुए हैं.

लोक संस्कृति हमारे हृदय में कस्तूरी की तरह बसती है वह हमारी सांसों और संस्कारों में भी रची बसी है.इसलिए हम जहां भी रहें यह हरेले की संक्रांत हमें हर साल हरेला लगाने वाली अपनी ईजा की याद तो दिलाती ही है जो इस दिन ‘जी रये जागि रये’ के उद्बोधन से हमें ‘यशस्वी भव!’ का आशीर्वाद देती है,पर इस हरेले के साथ अपनी मातृभूमि से जुड़ा सबसे बड़ा सन्देश यह है कि पहाड़ों को हरा भरा रखने और इसकी माटी को उपजाऊ बनाए रखने का शुभ संकल्प भी इस त्योहार से जुड़ा है. हरेले के इस पावन पर्व पर पहाड़ के सभी लोगों  को हार्दिक शुभकामनाएं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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