अम्मा का वो रेडियो

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—31

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात- “आम्क- रेडू” (दादी का रेडियो) की. तब शहरों से गाँव की तरफ रेडियो कदम रख ही रहा था. अभी कुछ गाँव और घरों तक पहुँचा ही था. परन्तु इसकी गूँज और गुण पहाड़ की फ़िज़ाओं में फैल चुके थे. इसकी रुमानियत ‘रूडी महिनेक पौन जसि’ (गर्मी के दिनों की ठंडी हवा) थी. क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सब इसकी गिरफ्त में थे. ‘अम्मा’ (दादी) के लिए यह एक नई चीज थी जिसके बारे में पहले उन्होंने सिर्फ सुन भर रखा था. प्रत्यक्ष दर्शन का यह पहला अवसर था.

अम्मा का ज्यादा समय घर पर ही बीतता था. ईजा घर के बाहर का काम देखती थीं तो अम्मा घर पर हमारी रखवाली करती थीं. एक बार बौज्यू (पिता जी) दिल्ली से आए तो बोलता हुआ यन्त्र ले आए. घर में सबको बताया-“इहें रेडू कनि”(इसे रेडियो कहते हैं). उस रेडू को जानने और समझने की जितनी ललक हम में थी उससे कहीं कम अम्मा में भी नहीं थी. ईजा को काम से ही प्यार था. उनको रेडियो को लेकर तब कोई उत्सुकता नहीं थी. बाद के दिनों में ईजा भी शाम के समय रेडियो लगा दिया करती थीं.

अम्मा और हम- “कसि बुलाह्न हल यो” , “ये भतेर मेस कसि जन्हल”, को ह्नल यूँ बुलणी” (ये कैसे बोलते होंगे, इसके अंदर लोग कैसे जाते होंगे, ये बोलने वाले कौन होंगे). यह सब सोचते-सोचते हमने रेडू को चारों तरफ से घूर लिया था. सब जगह से बंद था फिर भी अंदर से आवाज आ रही थी. महा आश्चर्य की बात थी…

बौज्यू ने रेडू चलाकर दिखाया तो उसके अंदर से झीं..झीं की आवाज आई. अम्मा और हम ‘उकड़ू’ बैठकर उस आवाज को आश्चर्य वाले भाव से सुन रहे थे. बौज्यू उसके गोल-गोल बटन को घूमा रहे थे, अचानक एक जगह पर आवाज आने लगी. दो लोग बातचीत कर रहे थे. बस फिर क्या था हमारा आश्चर्य तो 100 गुना बढ़ गया था. अम्मा और हम- “कसि बुलाह्न हल यो” , “ये भतेर मेस कसि जन्हल”, को ह्नल यूँ बुलणी” (ये कैसे बोलते होंगे, इसके अंदर लोग कैसे जाते होंगे, ये बोलने वाले कौन होंगे). यह सब सोचते-सोचते हमने रेडू को चारों तरफ से घूर लिया था. सब जगह से बंद था फिर भी अंदर से आवाज आ रही थी. महा आश्चर्य की बात थी…

बौज्यू अम्मा को बता रहे थे कि काले गोल बटन को इधर को घुमाने से खुलेगा फिर पीछे को घुमा देने से बंद हो जाएगा. दूसरे काले गोल बटन को आगे को घुमाने से आवाज आएगी. इसमें कई जगह पर आवाज आती है तो धीरे-धीरे घुमाते रहना. इसके पीछे टॉर्च वाले सेल लगे होते हैं. अम्मा दत्तचित्त होकर सुन रही थीं. उनके चेहरे के भाव पल-पल बदल रहे थे लेकिन विस्मय का भाव स्थायी बना हुआ था.

अब वह ‘आम्क रेडू’ हो गया था. अम्मा जब घर पर कोई नहीं होता तो रेडू लगा देती थीं. उसमें क्या आ रहा है उससे ज्यादा उनको उस आवाज से लगाव था. जब कभी वो झीं…झीं की आवाज करता था तो अम्मा कहती थीं- “येक गिचक जाव नि काटि रहो”( इसके मुँह का जाल नहीं कटा है). हम उस आवाज को भी मस्ती से सुनते थे. हमारे लिए आवाज ही रेडियो था.

अम्मा हमें रेडू पर हाथ नहीं लगाने देती थीं. कहती थीं- “बिगाड़ ड्यला तुम” (खराब कर दोगे तुम). हम बस उसे देखते थे लेकिन हाथ नहीं लगाते थे. अम्मा रेडू को ‘भकार'(लकड़ी का अनाज रखने वाला) में छुपा रखती थीं. उनको डर बुबू और हम लोगों से ही था. ईजा कम ही रेडू सुनती थीं. उन्हें बाहर के कामों से फुर्सत नहीं मिलती थी. हमको कहती थीं- “रेडू जे सुणु कि भ्यारक काम कऊँ” (रेडियो सुनू की बाहर का काम करूँ). यह कहते हुए ईजा फिर काम पर लग जाती थीं.

बुबू (दादा) जब घर पर होते थे तो रेडू बंद ही रहता था. उनको रेडू बिल्कुल पसंद नहीं था. बुबू जब घर पर नहीं होते, तब ही अम्मा रेडू चलाती थीं. एक बार अम्मा खाना बनाते हुए रेडू सुन रही थीं. अचानक से बुबू कहीं से आए और उन्होंने देख लिया. अम्मा की नज़र जैसे ही बुबू पर पड़ी तो वो तुरंत रेडू बंद करने दौड़ीं. इतने में बुबू ने देख लिया था. बुबू ने देखा कि रेडू पर चमड़े का कवर चढ़ा हुआ है और अम्मा ने बंद करने के लिए उसे हाथ लगाया था. बस फिर क्या था, बुबू भागे ‘गोठ’ (घर का नीचे वाला हिस्सा) की ओर – “भातेक तोली और दावेक कढ़े च्वां मुड़ पटोम खेति दी” (रसोई से चावल और दाल की कढ़ाई पकड़कर नीचे खेत में फेंक दी). उसके बाद गुस्से में ‘भतेर’ (घर का ऊपर वाला हिस्सा) आए और रेडू को भी पटक दिया. पटकते ही रेडू की कहानी खत्म हो गई थी.

अम्मा और हम एकदम सन्न थे. किसी की आवाज नहीं निकल रही थी . कुछ देर में अम्मा नीचे खेत में गई सारे बर्तन उठाकर लाई. हम गोठ के एक कोने में दुबक कर बैठे गए थे. ईजा तब गाय, बैल और भैंस को पानी पिलाने ‘गध्यर’ (जहाँ पानी होता था) गई हुई थीं. ईजा के आते ही हमने सारा दृश्य उनके सामने रख दिया. ईजा चुप-चाप अम्मा के साथ काम पर लग गईं. इस घटना के बाद बुबू ने कई महीनों तक अम्मा के हाथ का खाना ही नहीं खाया. ईजा ही बुबू के लिए खाना बनाती थीं. उनके सिद्धांत अटल थे. स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी.

अब न अम्मा रहीं और न गाँव में रेडियो. अम्मा की आवाज और रेडियो की विस्मयकारी धुन दोनों कहीं खो सी गई हैं. ईजा आज भी कभी -कभी रेडियो और अम्मा का ज़िक्र करती हैं. घर में जब टीवी लगा तो ईजा को फिर अम्मा और रेडियो याद आ गया.

रेडू की रौनक कुछ महीनों में ही चली गई. ईजा कभी-कभी जब अम्मा सामने न हो तो हमसे हँसी में कहती थीं- “परी, कि रेडू सुण छै” (प्रकाश, रेडियो सुनोगे). फिर हम सब मिलकर हँसते थे. तब तक गाँव में रेडियो से बड़ी चीज टेपरिकॉर्डर आ चुका था. उसमें मन पसंद के कैसेट्स लग रहे थे. उसकी आवाज दूर से ही सुनाई दे जाती थी. अब हम दूर से उसकी आवाज सुनते थे. उसी में आनंद लेते थे.

अब न अम्मा रहीं और न गाँव में रेडियो. अम्मा की आवाज और रेडियो की विस्मयकारी धुन दोनों कहीं खो सी गई हैं. ईजा आज भी कभी -कभी रेडियो और अम्मा का ज़िक्र करती हैं. घर में जब टीवी लगा तो ईजा को फिर अम्मा और रेडियो याद आ गया.

हम जहाँ सबकुछ भूल रहे हैं वहीं ईजा बिसरे को बराबर याद रखती हैं. काश ! हम भी वो सब याद रख पाते जिसे हम बहुत दूर ईजा के हिस्से छोड़ आए हैं…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

 

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1 Comment

  • Bina

    सच में बहुत रोचक और दिल को बहलाता है अपने बचपन के दिन याद आ गए , कितना अच्छा लगता था, सब कैसे रिश्ते की डोर में बंधे हुए थे और कितना कुछ सीखने को मिलता था और कितनी सुरक्षा और सुकून था घर में, और खुशियों का खजाना था

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