अपराधी तो मारा गया… बस सवाल बाकी रह गए

  • ललित फुलारा

एनकाउंटर में आरोपित अपराधी, तो मारा गया पर अपराधी का पोषण करने वाले, सालों से उसे शरण देने वाले, उन रसूखदार कथित अपराधियों का क्या, जो हर बार पर्दे के पीछे ही रह जाते हैं. पर्दे के पीछे वाला यह खेल कभी सामने नहीं आ पाता. यह भी सच है कि अगर गिरफ्तार/सरेंडर किया हुआ अपराधी बच जाता, तो उसके सारे आका चौराहे पर आ जाते. राजनीति, नौकरशाही और अपराध के गठजोड़ कि पटकथा घरों से लेकर नुक्कड़ तक बांची जा रही होती. टीवी और अखबार भरे पड़े होते. कई सफेद कुर्तों पर कालीख पुत जाती. पर दुर्भाग्य है कि अपराध के पोषण वाली बेल बच गई, पत्ता तोड़ दिया गया.

बिना सत्ता, शक्ति व धन के कोई गुंडा नहीं पनप सकता. जो लोग अपराधी के एनकाउंटर से खुश हैं, उनके लिए कानून नहीं भावनाएं सर्वोपरी है. ये ही भावनाएं अपराधी को भी बनाती है और नेता को भी! मैं इस त्वरित न्याय का पक्षधर नहीं हूं और न ही हर बार पुलिस की कहानी पर भरोसा कर लेने वाला.

दरअसल, चाहे गांव हो, देहात हो या फिर शहर एवं देश बिना सत्ता/शक्ति के कोई भी अपराधी नहीं पनप सकता. जिसने गली-मोहल्लों के दादाओं को देखा हो, वह इस बात को समझ सकता है कि राजनीति एवं पुलिस की सह क्या होती है? बिना सत्ता, शक्ति व धन के कोई गुंडा नहीं पनप सकता. जो लोग अपराधी के एनकाउंटर से खुश हैं, उनके लिए कानून नहीं भावनाएं सर्वोपरी है. ये ही भावनाएं अपराधी को भी बनाती है और नेता को भी! मैं इस त्वरित न्याय का पक्षधर नहीं हूं और न ही हर बार पुलिस की कहानी पर भरोसा कर लेने वाला.

पटकथा पत्रकार व कहानीकार ही नहीं लिखता, बल्कि पुलिस, शासन एवं प्रशासन भी पटकथा लिखती है. एक अपराधी जिसकी गिरफ्तारी व सरेंडर में ही सस्पेंस हो उसके एनकाउंटर पर सस्पेंस, शक व संदेह क्यों न हो? मृत्यु से बड़ा इस दुनिया में कोई भय नहीं है. चाहे अपराधी हो या आम नागरिक मृत्यु के भय से कोई पार नहीं पा सकता. जो अपराधी मारे जाने के भय से महाकाल के दरबार में पहुंच जाता है, वो अपराधी इतना नादान व नासमझ नहीं हो सकता कि हथियार छीन ले और कहे- लो जी पटकथा खत्म कर दो!! कहानी का दी एंड कर दो! वैसे बहुत से लोगों को अपराधी के पकड़े जाने के बाद से भी इस बात का संदेह हो रहा था कि सुबह उसके मारे जाने की घटना सामने आ सकती है. गुंडा मारा गया!! पर गुंडई बच गई.

गुंडई से गुंडा बनता है और गुंडा के खत्म होने पर भी गुंडई बची रहती है!

पुलिस की गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त होकर पलट गई. अपराधी और पुलिसकर्मी घायल हो गए. अपराधी ने घायल पुलिसकर्मी की पिस्टल छीन ली और भागने की कोशिश की. पुलिस ने पीछा किया. घेरा. आत्मसमर्पण के लिए कहा. उसने पुलिस पर गोली चला दी. आत्मरक्षा में पुलिस ने भी गोली मारी और अपराधी मर गया!! जबकि लोग सवाल उठा रहे हैं कि अपराधी के दोनों पैरों में रोड डली हुई थी फिर कैसे भाग गया? क्या पुलिस अपराधी को बिना हाथ बांधे ला रही थी जबकि पता है कि वह खूंखार अपराध को अंजाम देने वाला शख्स है …फिर भी!!

अगर…

अपराधी बच जाता तो!

क्या वाकई में अपराधी सपा से जुड़ा हुआ था, जैसा कि उसकी मां ने दावा किया है. अखिलेश यादव सिर्फ पांच साल की कॉल डिटेल की ही क्यों बात कर रहे हैं. अपराधी के अपराध की दुनिया में कदम रखने से लेकर वर्तमान तक की सीडीआर क्यों नहीं निकलनी चाहिए.

क्या पता अपराधी बनाने वाली एक प्रवृत्ति/एक जाल जनता के सामने खुल जाता. लेकिन अगर ऐसा होता तो सबके चेहरे बेनकाब हो जाते.

….. इसलिए अपराधी मारा गया. अपराध जीवित रहा. खैर, कई अनसुलझे सवाल हैं जिनको जनता जानना चाहती हैं और लोग पूछ रहे हैं. आखिर, अपराधी को किस राजनीति पार्टी से शरण मिली हुई थी?  क्या वाकई में अपराधी सपा से जुड़ा हुआ था, जैसा कि उसकी मां ने दावा किया है. अखिलेश यादव सिर्फ पांच साल की कॉल डिटेल की ही क्यों बात कर रहे हैं. अपराधी के अपराध की दुनिया में कदम रखने से लेकर वर्तमान तक की सीडीआर क्यों नहीं निकलनी चाहिए.

खैर, न्यायालय इंतजार करते रहा…अगर अपराधी वहां पहुंचता तो कई सच सामने आता जो दब गया.

(पत्रकारिता में स्नातकोत्तर ललित फुलारा अमर उजालामें चीफ सब एडिटर हैं. दैनिक भास्कर, ज़ी न्यूज, राजस्थान पत्रिका और न्यूज़ 18 समेत कई संस्थानों में काम कर चुके हैं. व्यंग्य के जरिए अपनी बात कहने में माहिर हैं.)

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