लोक पर्व-त्योहार

पामिण और सिलक्यारा टनल, यह महज एक संयोग नहीं?

पामिण और सिलक्यारा टनल, यह महज एक संयोग नहीं?

धर्मस्थल, लोक पर्व-त्योहार
शशि मोहन रवांल्टा आज बाबा बौखनाग देवता की पामिण है और आज ही सिलक्यारा टनल का उद्घाटन भी हो रहा है। इसे महज एक संयोग कहा जाए या फिर बाबा बौखनाग का चमत्कार! जो दोनों एक साथ हो रहे हैं। जहां एक ओर बौखटिब्बा नामक शिखर पर बाबा बौखनाग के पुजारी बाबा की पूजा-अर्चना कर रहे होंगे वहीं दूसरी ओर ठीक उसी बौखटिब्बा, राड़ी डांडे के नीचे सुरंग में राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, केंद्रीय सड़क एवं परिवहन राज्य मंत्री अजय टम्टा टनल का उद्धाटन करके गाड़ियों के काफिलों को हरी झंडी दिखा रहे होंगे। इसे महज एक संयोग ही कहा जाए या फिर बाबा का ही कोई चमत्कार माना जाए, जो दोनों एक दिन हो रहे हैं। क्या है पामिण बाबा बौखनाग की पामिण प्रत्येक वर्ष संक्रांति (चैत्र मास समाप्ति और बैशाख मास का प्रारंभ) के पहले रविवार अथवा बुधवार को उत्तरकाशी जिले के भाटिया गांव की प्रत्येक बिरादरी से एक व्यक्ति इस पूजा के...
उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं का वाहक है चूड़ा

उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं का वाहक है चूड़ा

लोक पर्व-त्योहार
जे. पी. मैठाणी/अनीता मैठाणी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की कटाई मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा जल्दी शुरू हो जाती है. पर्वतीय क्षेत्रों में प्रमुखतः किंणस्यालू, सुखनन्दी, डिमर्या, बर्मा, लाल साटी सहित कुछ अन्य प्रजातियों को चूड़ा बनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है. अगर किसी भी घर-परिवार में चूड़ा कूटे जा रहे हैं या बनाए जा रहे हैं तो आप समझ लीजिए या तो ये बार-त्यौहार का अवसर होगा और या तो कोई न कोई खुशखबरी होगी. वैसे तो वर्ष में एक बार जैसे दीपावली के आसपास अमीर-गरीब सभी के घरों में धान के चूड़े बनाये जाते हैं. क्योंकि दीपावली के समय ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की लवाई-मंडाई के बाद साटी/धान के बुखणे और चूड़ा बनाया जाता है. नये धान से बनाए गये चूड़े को सबसे पहले भूमि के देवता भूम्याल, स्थानीय ईष्ट देव के साथ-साथ घर की चारों दिशाओं में थोड़ा-थोड़ा छिटक कर अर्पित किया जाता है. ...
उत्तराखंड हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रतीक  है: छोटी दीवाली और इगास

उत्तराखंड हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रतीक है: छोटी दीवाली और इगास

लोक पर्व-त्योहार
जे पी मैठाणी  ऐ- ध्यान धोरया - यी राखुडी- कांणसी बग्वाल मतलब छ्वोटी दीवाली का दिन ख्वोली कणी ग्वोरू का पुछडा पर बाँधण च ( हे ध्यान रखना सब लोग - ये जो तुम्हारे हाथों पर राखियाँ बांधी जा रही है , ये छोटी दिवाली के दिन काटकर गाय के पूछ पर बाँध देनी हैं.  - ध्यान रखना- ये कोई और नहीं मेरी माँ ( श्रीमती विशेश्वरी देवी )  रक्षाबंधन के दिन हमको - बार बार बोल देती थी , और आज भी मैंने अपनी मां को फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन अभी रात बेहद हो गयी तो बात नहीं हो पायी ! उस दौर में समस्या यह थी की उस जमाने में स्पंज से बनी राखियाँ जल्दी ही पानी सोखकर टूट जाती थी,  और सिर्फ सामान्य धागे वाली राखी पसनद नहीं आती थी ! आस पास के गांवों से जो पंडित जी भी आते थे उनकी हल्दी  और लाल पिठाईं में रंगी गयी राखियों से सारी हथेलियाँ रंग जाती थी और स्कूल में लिखते वक्त नोट बुक पर राखियों का वो कच्चा रंग लग जाता था ! घर...
हरिबोधनी एकादशी यानी ‘बुढ़ दिवाई’ अथवा ‘इगास’

हरिबोधनी एकादशी यानी ‘बुढ़ दिवाई’ अथवा ‘इगास’

लोक पर्व-त्योहार
चन्द्रशेखर तिवारी दीपावली पर्व के बाद जो एकादशी आती है वह  सामान्यतः हरिबोधनी एकादशी  के नाम से जानी जाती है. इस एकादशी को उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल में 'इगास' और कुमाऊं में 'बुढ़ दिवाई' (बूढ़ी दिवाली) कहा जाता  है. धार्मिक मान्यतानुसार  इस दिन चार माह के चार्तुमास में क्षीरसागर में योगनिद्रा में सोने के पश्चात भगवान श्रीबिष्णु जाग्रत अवस्था में आ जाते हैं. परम्परागत रूप से कुमाऊं अंचल में दीपावली का पर्व तीन स्तर पर मनाया जाता है.  सबसे पहले कोजागरी यानी शरद पूर्णिमा की छोटी दिवाली के रूप में बाल  लक्ष्मी की पूजा होती है, फिर मुख्य अमावस के दिन की दिवाली को युवा लक्ष्मी का पूजन होता है. चूंकि की इस अवधि में भगवान विष्णु निद्रा में रहते हैं सो अकेले  ही माता लक्ष्मी के पदचिन्ह  'पौ' की छाप  ऐपणों के साथ  दी जाती है. जबकि अंतिम तीसरी चरण की दिवाली बुढ़ दिवाई  (बूढ़ी दिवाली) के रुप में मनाई जाती...
दीपावली विशेष : शुभ हो लाभ!

दीपावली विशेष : शुभ हो लाभ!

लोक पर्व-त्योहार
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति इस क्षण भंगुर संसार में उन्नति और अभिवृद्धि सभी को प्रिय है. साथ ही यह बात भी बहुत हद तक सही है कि इसका सीधा रिश्ता वित्तीय अवस्था से होता है. पर्याप्त आर्थिक संसाधन के बिना किसी को इच्छित सिद्धि नहीं मिल सकती. लोक की रीति को ध्यान में रखते कभी भर्तृहरि ने अपने नीति शतक में कहा था कि सभी गुण कंचन अर्थात् धन में ही समाए हुए हैं. धनी व्यक्ति की ही पूछ होती है, वही कुलीन और सुंदर कहा जाता है, वही वक्ता और गुणवान होता है, उसी की विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है. इसलिए जीवन में सभी इसी का उद्यम करते रहते हैं कि आर्थिक समृद्धि निरंतर बढ़ती रहे. लक्ष्मी-गणेश की शुभ मुहूर्त में पूजा और घर में दीप जलाने के आयोजन के साथ कई अर्थहीन मिथक भी जुड़ गए हैं. उदाहरण के लिए इस दिन जुआ खेलना बहुतों का एक अनिवार्य अभ्यास हो चुका है. आज का मनुष्य अधिक...
लोक परंपरा का उत्सव : घी संक्रान्ति यानी ओलगिया त्यार  

लोक परंपरा का उत्सव : घी संक्रान्ति यानी ओलगिया त्यार  

लोक पर्व-त्योहार
चन्द्रशेखर तिवारी उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है. यहां के लोक जीवन के कई रंग और कई उत्सव हैं. ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है घी संक्रांति. उत्तराखण्ड में घी संक्रान्ति पर्व को घ्यू संग्यान, घिया संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ में यह मान्यता व्याप्त है कि पुराने राजाओं के समय शिल्पी लोग अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुओं को राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत  किया करते थे. इन शिल्पियों को तब राजा-महराजों  से इस दिन पुरस्कार मिलता था.कुमाऊं में चन्द शासकों के काल में भी यहां के किसानों व पशुपालकों द्वारा शासनाधिकारियों को विशेष भेंट ‘ओलग’ दी जाती थी. गाँव के काश्तकार  लोग भी अपने खेतों में उगे फल, शाक-सब्जी, दूध-दही तथा अन्य खाद्य-पदार्थ आदि राज-दरबार में भेंट करते थे. यह ओलग की प्रथा कहलाती थी. अब भी यह त्यौहार कमोबेश इसी तरह मनाया जाता है. इसी कारणवश इस ...
संयोग नहीं है स्वाधीनता, उसे सुयोग बनाएं!

संयोग नहीं है स्वाधीनता, उसे सुयोग बनाएं!

लोक पर्व-त्योहार
स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2024) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  यह संयोग मात्र नहीं है कि भारत में लोकतंत्र न केवल सुरक्षित है बल्कि प्रगति पथ पर अग्रसर हो रहा है. यह तथ्य आज की तारीख में विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि पड़ोसी देश एक-एक कर लोकतंत्र से विमुख हो रहे हैं. वहाँ अराजकता के चलते घोर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल व्याप रहा है. अफ़ग़ानिस्तान, म्यांमार, मालदीव और पाकिस्तान आदि में लोकतंत्र मुल्तबी है. कई आकलनों में श्रीलंका और बांग्लादेश को भारत की तुलना में कभी अच्छा घोषित किया गया था पर अब वहाँ के हालात नाज़ुक हो रहे हैं. बांग्ला देश की ताज़ा घटनाएँ बता रही हैं वहाँ किस तरह चुनी हुई सरकार और प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया गया. इन सभी देशों में लोकतंत्र को बड़ा आघात लग रहा है और जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है. आज अंतरराष्ट्रीय परिवेश में हर तरफ़ उथल-पुथल मची है. समुद्र पार इं...
प्रभु अवतरेहु हरनि महि भारा

प्रभु अवतरेहु हरनि महि भारा

लोक पर्व-त्योहार
राम नवमी पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  हर संस्कृति अपनी जीवन-यात्रा के पाथेय के रूप में कोई न कोई छवि आधार रूप में गढ़ती है। यह छवि एक ऐसा चेतन आईना बन जाती है जिससे आदमी अपने को पहचानता है और उसी से उसे जो होना चाहता है या हो सकता है उसकी आहट भी मिलती है। इस अर्थ में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों ही इस अकेली छवि में संपुंजित हो कर आकार पाते हैं। ऐसे ही एक अप्रतिम चरितनायक के रूप में श्रीराम युगों-युगों से भारतीय जनों के मन मस्तिष्क में बैठे हुए हैं। भारतीय मन पर उनका गहरा रंग कुछ ऐसा चढ़ा है कि और सारे रंग फीके पड़ गए। भारतीय चित्त के नवनीत सदृश श्रीराम हज़ारों वर्षों से भारत और  भारतीयता के पर्याय बन चुके हैं। इसका ताज़ा उदाहरण अयोध्या है। यहाँ पर प्रभु के विग्रह को ले कर जन-जन में जो अभूतपूर्व उत्साह उमड़ रहा है वह निश्चय ही उनके प्रति लोक - प्रीति का अद्भुत प्रमाण है। वे ऐसे शिखर ...
चाहे बल्द  बैचे जो, स्याल्दे जरूर जांण छू!

चाहे बल्द  बैचे जो, स्याल्दे जरूर जांण छू!

लोक पर्व-त्योहार
चारु तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार  मनेरगा में काम चलि रौ, डबलों रनमन, मदना करूं दिल्ली नौकरी, खात में डबल छन। आज जब मैं अपने अग्रज, साहित्यकार, रंगकर्मी और लोक के चितेरे उदय किरौला जी से बात कर रहा था तो उन्होंने मुझे द्वाराहाट में इस बार लगे झोड़े के बारे में बताया। आज द्वाराहाट में स्याल्दे का मेला लगेगा। स्याल्दे मेले के बारे में द्वर्यावों (द्वाराहाट वाले) मे एक मुहावरा प्रचलित है ‘बल्द बिचै जाओ लेकिन स्याल्दे जरूर जांण छू। इस बार भी स्याल्दे मेले न जा पाने की कसक तो है, लेकिन किरौला जी के सुनाये झोड़े ने द्वाराहाट की स्मृतियों को हमेशा की तरह ताजा कर दिया। उन सामूहिक स्वरों को भी जो हमारी चेतना आ आधार रहे हैं। इन स्वरों में युगो-युगों से संचित चेतना है। यही वजह है कि यहां लगने वाले झोड़ों ने आज भी उन सामूहिक अभिव्यक्तियों को नहीं छोड़ा है जो आज किसी न किसी तरह खामोश किये जा रहे हैं। सरकारों ...
मन के दीप करें जग जगमग

मन के दीप करें जग जगमग

लोक पर्व-त्योहार
दीपावली पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  अंधकार बड़ा डरावना होता है। जब वह गहराता है तो राह नहीं सूझती, आदमी यदि थोड़ा भी असावधान रहे तो उसे ठोकर लग सकती है और आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध भी हो सकता है। इतिहास गवाह है कि अंधकार के साथ  मनुष्य का संघर्ष लगातार चलता  चला आ रहा है। उसकी अदम्य जिजीविषा के आगे अंधकार को अंतत: हारना ही पड़ता है। वस्तुत: सभ्यता और संस्कृति के विकास की गाथा अंधकार के विरूद्ध संघर्ष का ही इतिहास है। मनुष्य जब एक सचेत तथा विवेक़शील प्राणी के रूप में जागता है तो अंधकार की चुनौती स्वीकार करने पर पीछे नहीं हटता। उसके प्रहार से अंधकार नष्ट हो जाता है। संस्कृति के स्तर पर अंधकार से लड़ने और उसके प्रतिकार की शक्ति को जुटाते हुए मनुष्य स्वयं को ही दीप बनाता है। उसका रूपांतरण होता है। आत्म-शक्ति का यह दीप उन सभी अवरोधों को दूर भगाता है जो व्यक्ति और उसके समुदाय को उसके लक्...