दीमक, मिट्टी और म्यर पहाड़

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—30

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात- ‘धुड़कोटि माटेक’. मतलब दीमक के द्वारा तैयार मिट्टी की. पहाड़ में बहुत सी जगहों पर दीमक मिट्टी का ढेर लगा देते हैं. एक तरह से वह दीमक का घर होता है लेकिन दीमक उसे बनाने के बाद बहुत समय तक उसमें नहीं रहते हैं. बनाने के बाद फिर नया घर बनाने चल देते हैं. वह मिट्टी बहुत ही ठोस और मुलायम होती थी.

कुछ ही ऐसी जगहें होती थीं जहां दीमक मिट्टी का ढेर लगाते थे. अमूमन वो जगहें वहाँ होती थीं, जहाँ धूप कम पड़ती हो, सीलन हो या कटे हुए पेड़ की जड़ों के आस-पास. हमारे गाँव में आसानी से ‘धुड़कोटि माट’ नहीं मिलता था. ईजा बहुत दूर ‘भ्योव’ (जंगल) के पास एक ‘तप्पड’ (थोड़ा समतल बंजर खेत) से ‘धुड़कोटि माट’ लाती थीं.

घर ‘लीपने’ (पोतना) के लिए मिट्टी चाहिए होती थी. ईजा महीने दो महीने में एक बार गोठ, भतेर लीपती थीं. ‘देहे’ (देहरी) चूल्हा,  और ‘उखोअ’ (ओखली) तो रोज़ ‘लीपे’ जाते थे. ईजा सुबह -सुबह थोड़ा गोबर और लाल मिट्टी मिलाकर दोनों को ‘लीप’ देती थीं. ‘देहे’ पर एक फूल भी रख देती थीं.

घर ‘लीपने’ (पोतना) के लिए मिट्टी चाहिए होती थी. ईजा महीने दो महीने में एक बार गोठ, भतेर लीपती थीं. ‘देहे’ (देहरी) चूल्हा,  और ‘उखोअ’ (ओखली) तो रोज़ ‘लीपे’ जाते थे. ईजा सुबह -सुबह थोड़ा गोबर और लाल मिट्टी मिलाकर दोनों को ‘लीप’ देती थीं. ‘देहे’ पर एक फूल भी रख देती थीं. अगर कभी लीपने में देर हो जाती थी तो कहती थीं- “मैस क्ये किल इतन जुक तक त्यूमर देहे -दुहार नि लिपि रहेय”( लोग क्या कहेंगे इतने समय तक देहरी ही नहीं पोती गई है). अक्सर तो लोग ‘सज्ञान’ (त्योहार) के दिन ही देहे’ लीपते थे लेकिन ईजा रोज़ ही लीपती थीं.

घर लीपने के लिए ईजा लाल मिट्टी लाती थीं. हमारे यहाँ ‘कनाण’ एक जगह है, वहीं लाल मिट्टी मिलती थी. हमारा एक खेत भी वहाँ था जिसमें ‘मास’ (उडद) बोते थे. लाल मिट्टी में ‘मास’ अच्छे होते हैं लेकिन उसमें हल चलाना बड़ा मुश्किल होता था. ईजा दिन तय करके लाल मिट्टी लेने जाती थीं . हमसे कहती थीं- “च्यला हिट ढैय् कनाण बे माट ली हुंल” (बेटा चल कनाण से मिट्टी ले आएँगे). एक -एक बोरी लेकर हम ईजा के पीछे-पीछे कनाण पहुँच जाते थे.

वहाँ पहुंचकर हम तो ‘हिसाउ'(फल) और ‘करूँझ’ (फल) खाने लग जाते थे लेकिन ईजा कुदाल से लाल मिट्टी खोदती रहती थीं. उसके पत्थर अलग कर अपने और हमारे बोरे में मिट्टी भरती थीं. बीच-बीच में हमारा बोरा उठाकर देखती थीं कि कहीं भारी तो नहीं हो गया. कभी आवाज लगाकर कहतीं- “च्यला उठे बे देख ढैय्, तिकें भारी तो नि होल” ( बेटा उठाकर देख तो, तुम्हारे लिए भारी तो नहीं होगा). हम उठाकर देखते, जांचते और उस हिसाब से कम-ज्यादा कर लेते थे. अगर भारी लगता तो कहते थे-“य कतुक भारी होगो ईजा, मोणी टूट जालि हमरी” (ये कितना भारी हो गया है माँ, गर्दन टूट जाएगी हमारी). ईजा तुरंत उसमें से मिट्टी निकालकर अपने बोरे में रख लेती थीं. फिर कहती थीं- “देख है गोछे हलुक” (देख हो गया हल्का). हम फिर उठाकर देखते थे और कहते थे- “ईजा अब हलुके है गो”( माँ अब हल्का हो गया है) और फिर मिट्टी लेकर धीरे-धीरे घर आ जाते थे.

ईजा को जब गोठ भतेर लीपना होता तो रात से ही मिट्टी भिगो देती थीं. सुबह उसमें गोबर मिलाकर लीपना शुरू कर देती थीं. हमको कहती थीं- “इथां झन अए हां” (इधर मत आना). ऐसा कहते हुए भी ईजा लीपने पर ही लगी रहती थीं. ईजा सारा “गोठ-भतेर” (घर का ऊपर और नीचे का हिस्सा) एकदम समतल लीप देती थीं. उसके सूखने तक हमारा प्रवेश वहाँ निषेध होता था.

बाहर और ‘खो'( आँगन का अलग सा हिस्सा) लीपने के लिए ‘धुड़कोटि माट’ लाते थे. साथ में हम भी मिट्टी लेने जाते थे. ईजा रास्ते में बताते जाती थीं कि-“पैली इनुपन ले धुड़कोटि माट मिल जैछि” (पहले इधर भी दीमक की बनाई मिट्टी मिल जाती थी). फिर एक लंबी सांस लेती और बात को पूरा करतीं- “अब देख ढैय् च्यला कतु दूर जाण पड़ो म” (अब देख बेटा कितनी दूर जाना पड़ रहा है). हम कई प्रश्न करते रहते . ईजा कुछ के जवाब देती और कुछ टाल जाती थीं. तब तक हम वहाँ पहुंच जाते जहाँ से मिट्टी लानी होती थी. ईजा कुदाल से मिट्टी खोदती और हम ‘धुड़कोटि माट’ लेकर घर को आ जाते थे.

घर में मिट्टी रखने की जगह बनी होती थी. लाल मिट्टी को गोठ में एक निश्चित जगह पर रखा जाता था. ‘धुड़कोटि माट’ को बाहर ही तयशुदा जगह पर रखते थे. ‘धुड़कोटि माट’ में गोबर मिलाकर ईजा ‘खो’ और ‘छन’ (गाय-भैंस का घर) के बाहर की ‘खोई’ (दीवार) लीपती थीं . हम भी कभी-कभी उसमें सहयोग करते थे. ज्यादातर तो ईजा खुद ही लीपती थीं.

ईजा आज भी देहे रोज लीपती हैं. फूल मिल गया तो ठीक नहीं तो कोई हरा पत्ता देहे में रख देती हैं. ईजा का मानना है, इससे घर भी अच्छा लगता है और बरकत भी होती है. घर को लीपना और मिट्टी लाना आज भी बदस्तूर जारी है. ईजा अब रात में ज्यादा लीपती हैं. कहती हैं- “दिनम कोई न कोई आने रहनि और रिचड़ लगे दीनि” (दिन में कोई न कोई आता रहता है और उसको खराब कर देता है).

ईजा कई बार कहती हैं “अगर यूँ द्युड़ नि हन तो हम माट कथां बे ल्यान”. एक पल लगता है ईजा ठीक ही कह रहीं हैं लेकिन दूसरे पल ही सोचने लगता हूँ कि ईजा कहीं सीमेंट व विकास विरोधी तो नहीं …!

दुनिया जब अम्बुजा सीमेंट की बात कर रही है तो ईजा के घर को दीमक सँवार रहे हैं. ईजा को मजबूत घर नहीं बल्कि घरों में रहने के लिए लोग चाहिए. मजबूत घरों के ढ़हने का भी इतिहास है. परन्तु पहाड़ के इतिहास में दीमकों का भी एक पन्ना होगा क्योंकि पहाड़ों को सँवारने में उनका भी योगदान है. उन्होंने घरों को चाटा या ढहा नहीं बल्कि खूबसूरत बनाया है.

ईजा कई बार कहती हैं “अगर यूँ द्युड़ नि हन तो हम माट कथां बे ल्यान”(अगर ये दीमक नहीं होते तो हम मिट्टी कहाँ से लाते). एक पल लगता है ईजा ठीक ही कह रहीं हैं लेकिन दूसरे पल ही सोचने लगता हूँ कि ईजा कहीं सीमेंट व विकास विरोधी तो नहीं …!

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