कोरोना काल में चर्चा में आईं मनरेगा 

  • डॉ. राजेंद्र कुकसाल

आजकल सोशल मीडिया पर मनरेगा चर्चाओं में हैं,  हासिये पर चल रही यह योजना अचानक सुर्खियों में आगयी क्योंकि हुक्मरानों को इस योजना के माध्यम से वेरोजगार प्रवासियों के लिए रोजगार की संभावनाएं दिखाई देने लगी. समय-समय पर मैं मनरेगा योजना से जुड़ा रहा. राज्य में चल रही मनरेगा योजना पर अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रहा हूं.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना,  जिसे भारत सरकार ने सितंबर  2005 को पार्लियामेंट से पास करा कर कानूनी दर्जा दिया गया.

यह योजना दो फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में शुरू की गयी  अगले बर्ष यानी 2007 में इसे और 130 जिलों में विस्तारित किया गया. वर्ष 2008-09 में पहली अप्रैल से यह देश के सभी 593 जिलों में लागू की गयी.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह किसी भी ग्रामीण परिवार के वैसे सदस्यों को एक साल में सौ दिन का रोजगार मुहैया कराये, जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुके हैं और अकुशल मजदूर के रूप में काम करना चाहते हैं.

मनरेगा के तहत ग्रामीण परिवारों के व्यस्क युवाओं को रोज़गार का कानूनी अधिकार प्रदान किया गया है. प्रावधान के मुताबिक, मनरेगा लाभार्थियों में एक-तिहाई महिलाओं का होना अनिवार्य है. साथ ही विकलांग एवं अकेली महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने का प्रावधान किया गया है.

इस अधिनियम को ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले लोगों के लिए अर्ध-कौशलपूर्ण या बिना कौशलपूर्ण कार्य, चाहे वे गरीबी रेखा से नीचे हों या ना हों. शुरू में इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) कहा जाता था, लेकिन 2 अक्टूबर 2009 को इसका पुनः नामकरण कर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना किया गया.

सूखाग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में तथा कुछ राज्यों ने अपनी हिस्सेदारी से मनरेगा के तहत 150 दिनों के रोज़गार का प्रावधान रखा है. मनरेगा के तहत ग्रामीण परिवारों के व्यस्क युवाओं को रोज़गार का कानूनी अधिकार प्रदान किया गया है. प्रावधान के मुताबिक, मनरेगा लाभार्थियों में एक-तिहाई महिलाओं का होना अनिवार्य है. साथ ही विकलांग एवं अकेली महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने का प्रावधान किया गया है. प्रावधान के अनुसार, आवेदन जमा करने के 15 दिनों के भीतर या जिस दिन से काम की मांग की जाती है, आवेदक को रोज़गार प्रदान किया जाएगा.

मनरेगा में मांग करने पर समय पर कार्य न उपलब्ध करा पाने की स्थति में श्रमिकों को राज्य सरकारों को बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान है  जिससे  राज्य सरकारें श्रमिकों को समय पर रोजगार प्रदान करने के लिए बाध्य हो सकें.

पंचायती राज संस्थानों को मनरेगा के तहत किये जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है. मनरेगा के तहत आर्थिक बोझ केंद्र और राज्य सरकार द्वारा साझा किया गया है. इस कार्यक्रम के तहत कुल तीन क्षेत्रों पर धन व्यय किया जाता है-

  1. अकुशल, अर्द्ध-कुशल और कुशल श्रमिकों की मज़दूरी
  2. आवश्यक सामग्री
  3. प्रशासनिक लागत

केंद्र सरकार अकुशल श्रम की लागत का 100 प्रतिशत, अर्द्ध-कुशल और कुशल श्रम की लागत का 75 प्रतिशत, सामग्री की लागत का 75 प्रतिशत तथा प्रशासनिक लागत का 6 प्रतिशत वहन करती है, वहीं शेष लागत का वहन राज्य सरकार द्वारा किया जाता है. मनरेगा में मांग करने पर समय पर कार्य न उपलब्ध करा पाने की स्थति में श्रमिकों को राज्य सरकारों को बेरोजगारी भत्ता देने का प्रावधान है  जिससे  राज्य सरकारें श्रमिकों को समय पर रोजगार प्रदान करने के लिए बाध्य हो सकें.

बेरोजगारी भत्ते की राशि को निश्चित करना राज्य सरकार पर निर्भर है, जो इस शर्त के अधीन है कि यह पहले 30 दिनों के लिए न्यूनतम मजदूरी के 1/4 भाग से कम ना हो और उसके बाद न्यूनतम मजदूरी का 1/2 से कम ना हो. प्रति परिवार 100 दिनों का रोजगार (या बेरोजगारी भत्ता) सक्षम और इच्छुक श्रमिकों को हर वित्तीय वर्ष में प्रदान किया जाना चाहिए.

मनरेगा के अंतर्गत किये जाने वाले कार्य –

  • मनरेगा के कार्य ग्रामीण विकास और रोजगार के दोहरे लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से निर्धारित किए जाते हैं.
  •  जैसे -जल संरक्षण और संचयन, वनीकरण.
  • ग्रामीण संपर्क-तंत्र.
  • बाढ़ नियंत्रण और सुरक्षा, तटबंधों का निर्माण और मरम्मत.
  • नए टैंक/तालाबों की खुदाई, रिसाव टैंक और छोटे बांधों के निर्माण को भी महत्व दिया जाता है.
  • *कोई भी ऐसा कार्य जिसे केन्द्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लेकर अधिसूचित करें*.

अपने लोकपाल मनरेगा जनपद पौड़ी के कार्यकाल में मैंने अनुभव किया कि लोगों का विशेष रूप से ग्राम प्रधानों का इस योजना के प्रति लगाव कम होने से इच्छुक ग्रामीणों को इस योजना के अंतर्गत रोजगार नहीं मिल पा रहा है.

समय समय पर राज्यों की मांग व आवश्यकता नुसार इसमें भारत सरकार द्वारा सुधार किया जाता रहा है.

कोरोना काल में बड़ी संख्या में प्रवासियों के अपने राज्य व गांव लौटने के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है इस स्थति में मनरेगा के बार्षिक बजट को लगभग 60000 करोड़ रुपए से लगभग एक लाख करोड़ रुपए करके  *भारत सरकार ने एक सराहनीय कदम उठाया है.

उत्तराखंड में मनरेगा योजना की स्थिति

  • दो फरवरी 2006 को राज्य के दो जनपदों टिहरी एवं अल्मोड़ा में मनरेगा शुरू की गई.
  • टिहरी जनपद में विकास खण्ड फगोट के आगराखाल में श्रीमती वीभा पुरीदास तत्कालीन प्रमुख सचिव व श्री वीरेन्द्र सिंह कंडारी जी, तत्कालीन क्षेत्र पंचायत प्रमुख  फगोट के दिशा निर्देशन इस योजना का शुभारम्भ  हुआ.
  • टिहरी जनपद में जिला उद्यान अधिकारी होने के कारण मुझे भी इस कार्यक्रम में शामिल  होने का शुअवसर मिला.
  • जिला अधिकारी टिहरी द्वारा मुझे मनरेगा का मास्टर ट्रेनर नामित किया गया.
  • मनरेगा का मास्टर ट्रेनर होने के कारण मुझे पूरे टेहरी जनपद में मनरेगा के प्रशिक्षण हेतु जान होता था इस प्रकार मनरेगा के कार्यों को समझने व नजदीकी से देखने का अवसर मिला.
  • शुरू के वर्षों में मनरेगा योजना के प्रति ग्रामीणों का उत्साह देखते को मिलता था विशेष रूप से महिलाओं में.
  • इस योजना की यह भी विशेषता है कि इसमें रोजगार पाने में पुरुष व महिला में कोई भेद नहीं होता.
  • क्योंकि महिलाएं अन्य जगहों जैसे सड़क निर्माण आदि श्रमिक कार्यों हेतु वाहर नहीं निकल पाती थी घर पर ही इस योजना में रोजगार मिलने से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार भी आया.
  • संयोगवश वर्ष 2015-16 में मेरी नियुक्ति लोकपाल मनरेगा के पद पर पौड़ी जनपद के लिए हुई.
  • मुझे इस योजना से फिर से जुड़ने का अवसर मिला. अपने लोकपाल मनरेगा जनपद पौड़ी के कार्यकाल में मैंने अनुभव किया कि लोगों का विशेष रूप से ग्राम प्रधानों का इस योजना के प्रति लगाव कम होने से इच्छुक ग्रामीणों को इस योजना के अंतर्गत रोजगार नहीं मिल पा रहा है.

योजना के शुरू के वर्षों में अधिकतर ग्राम प्रधानों ने अपने परिवार के सभी सदस्यों व नजदीकियों (जो गांवों में नहीं रहते थे) के जॉब कार्ड अधिक संख्या में बनवाये. योजना का पूरा संचालन क्योंकि ग्राम प्रधान के ही हाथ में होता था उसे धन का दुरुपयोग करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी.

इसके कई कारण मेरे संज्ञान में आये-

योजना के शुरू के वर्षों में अधिकतर ग्राम प्रधानों ने अपने परिवार के सभी सदस्यों व नजदीकियों (जो गांवों में नहीं रहते थे) के जॉब कार्ड अधिक संख्या में बनवाये. योजना का पूरा संचालन क्योंकि ग्राम प्रधान के ही हाथ में होता था उसे धन का दुरुपयोग करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी.

आर. टी. आइ. के माध्यम से ग्रामीणों ने ग्राम प्रधानों से जॉब कार्ड धारकों के नाम व पते पूछने शुरू कर दिये इस प्रकार ग्राम प्रधानों के रिस्तेदारों के फर्जी जॉब कार्ड कम होते गए.

योजना में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से जैसे जैसे कर्मचारियों की बढ़ोतरी होती गयी हिस्सेदारी उतनी बढ़ती गई.

रोजगार न मिलने की दशा में आवेदक को वेरोजगारी भत्ता देने का प्राविधान है जिसका भुगतान राज्य सरकार को करना होता है. आवेदक से कार्यक्रम अधिकारी का कार्यालय बिना तिथि डाले आवेदन लेता है.

जिससे निर्धारित तिथि के बाद आवेदक को बेरोजगारी भत्ता न देना पड़े. जबकि यह आवेदक का कानूनी हक है कि उसे रोजगार हेतु आवेदन के पन्द्रह दिनों के अन्दर रोजगार देना है, किन्तु आवेदक को यह कह कर बहका दिया जाता है कि ऊपर से योजना स्वीकृत होने पर रोजगार दे दिया जायेगा जैसे आवेदनकर्ता पर अहसान कर रहे हों.

आश्चर्यजनक रूप से जब से मनरेगा योजना चली आंकड़ों के अनुसार राज्य में किसी को भी बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया यानी अभिलेखों में प्रत्येक आवेदक को समय पर योजना में रोजगार उपलब्ध कराया गया.

मेरे द्वारा अपने लोकपाल के कार्यकाल में पौड़ी जनपद के कोट विकास खण्ड के एक अम्बेडकर गांव में ग्रामीणों से योजना के बारे में वार्तालाप करने का अवसर मिला.

मैंने फिर पूछा कि आप लोगों ने रोजगार के लिए आवेदन किया? सभी ने हां भरी. बाद में काफी पूछताछ के बाद पता चला कि रोजगार के लिए आवेदन तो लिए गए किन्तु उन पर आवेदन की दिनांक अंकित नहीं करवाई गई थी.

इस अवसर पर विकास खण्ड के कर्मचारी ग्राम प्रधान व ग्रामीण जिनमें अधिकतर महिलाएं थी बड़ी संख्या में उपस्थित थे.

मैंने ग्रामीणों से योजना के बारे में जानकारी चाही और पूछा कि इस योजना में सबको समय पर रोजगार मिल रहा है? सभी ने एक स्वर में कहा कि हमें विगत छह माह से रोजगार नहीं मिला कुछ गरीब महिलाओं ने तो अपनी व्यथा रोते हुए बताई.

मैंने फिर पूछा कि आप लोगों ने रोजगार के लिए आवेदन किया? सभी ने हां भरी. बाद में काफी पूछताछ के बाद पता चला कि रोजगार के लिए आवेदन तो लिए गए किन्तु उन पर आवेदन की दिनांक अंकित नहीं करवाई गई थी.

मैंने विकास खण्ड के कर्मचारियों से पूछा, उन्होंने भी इधर-उधर के बहाने बनाए.

मैंने ग्राम प्रधान से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है, उनका जवाब था कि मैं विकास खण्ड के चक्कर काटते-काटते थक गया में पैसा कहां से दूं इसलिए गांव की योजना की स्वीकृति ही नहीं मिलती.

कार्यालय पहुंचे पर मैंने कार्यक्रम अधिकारी का स्पष्टीकरण कर एक सप्ताह में कार्य प्रारंभ कराने के निर्देश दिए तब जा के इस गांव में कार्य प्रारंभ हुआ.

कहने का अभिप्राय यह है कि जब कानूनी हक प्राप्त योजना से गरीब ग्रामीणों को समय पर योजना का लाभ नहीं मिल पाता तो सामान्य योजनाओं का राज्य में क्या हाल होता होगा?

मरोड़ा पावो विकास खण्ड, पौड़ी में आयोजित एक कृषि गोष्ठी में सम्मिलित हुआ, गोष्टी में क्षेत्र के कई ग्राम प्रधानों से मनरेगा पर विचार विमर्श का अवसर मिला कई ग्राम प्रधान ऐसे मिले जिनमें कुछ अच्छा करने की सोच थी.

मरोड़ा के ग्राम प्रधान ने क्षेत्र में चल रही ग्राम्या योजना के तहत मनरेगा को जोड़ कर ग्रामीणों के सहयोग से अनार व अखरोट की उन्नत किस्मों के दो दो हेक्टेयर के  बाग ग्रामीणों की बंजर पड़ी जमीन पर विकसित करवाये जो कि एक सराहनीय पहल है जिनको मैंने स्वयमं जाकर देखा.

मैंने उनसे भुगतान में हो रही कठनाइयों को लिख कर देने को कहा कोई लिख कर देने को तैयार नहीं हुआ कहने लगे हमें अन्य योजनाओं जैसे राज्य वित्त, विधायक निधि, सांसद निधि आदि से उसी कार्यायल के माध्यम से ठेके लेने हैं.

मनरेगा योजना में कई जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी ग्राम सभाओं में अच्छे कार्य भी कराये गये हैं जिनकी समय-समय पर समाज में भी चर्चा होती रहती हैं.

वार्ता में मरोड़ा क्षेत्र के ग्राम प्रधानों का कहना था कि मनरेगा में मस्टररोल निर्गत करने से लेकर लाभार्थियों के भुगतान तक बड़ी सम्स्याऐं आती है कार्यक्रम अधिकारी के कार्यालय के कई चक्कर काटते पड़ते हैं तब जाकर भुगतान प्राप्त होता है. मैंने उनसे भुगतान में हो रही कठनाइयों को लिख कर देने को कहा कोई लिख कर देने को तैयार नहीं हुआ कहने लगे हमें अन्य योजनाओं जैसे राज्य वित्त, विधायक निधि, सांसद निधि आदि से उसी कार्यायल के माध्यम से ठेके लेने हैं.

सरकारी रिकॉर्ड में तो मनरेगा कार्य उत्तसाहवर्धक लगते हैं पर गांव में पूछने पर पता चलता है कि जरूरतमंदों को रोजगार बहुत कम मिलता है.

सौ दिनों के सापेक्ष मात्र औसतन पैंतालीस दिनों का ही लाभार्थियों को रोज़गार मिल पाता है.

योजना में सोशल आडिट का प्राविधान है राज्य में सोसल आडिट थर्डपार्टी (ठेके) से कराया जाती है जिसकी नियुक्ति जिले के मुख्य विकास अधिकारी कार्यालय द्वारा होती है. एक दिन गांव में आकर यह औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है कभी कभी तो मुख्यालय में ही सोसल आडिट हो जाता है जिस कार्य का सोसल आडिट करने वाली संस्था से अच्छा खासा भुगतान किया जाता है.

मनरेगा में प्रस्तावित कार्ययोजना ग्रामीणों द्वारा आयोजित खुली बैठक में विचार विमर्श के बाद गांव की आवश्यकता के अनुसार बनाने का प्राविधान है. किन्तु होता इसके विपरीत है अधिकतर ग्राम सभाओं में विकास खण्ड से आये कर्मचारी व गांव के कुछ   सम्मानित ग्रामीण (ग्राम प्रधान की नज़र में) एक रात प्रधान की मेहमान नवाजी में आपस में बैठते हैं और हो गयी गांव की विकास योजना तैयार.

योजना में सोशल आडिट का प्राविधान है राज्य में सोसल आडिट थर्डपार्टी (ठेके) से कराया जाती है जिसकी नियुक्ति जिले के मुख्य विकास अधिकारी कार्यालय द्वारा होती है. एक दिन गांव में आकर यह औपचारिकता पूर्ण कर ली जाती है कभी कभी तो मुख्यालय में ही सोसल आडिट हो जाता है जिस कार्य का सोसल आडिट करने वाली संस्था से अच्छा खासा भुगतान किया जाता है.

कुछ राज्यों में मनरेगा के अंतर्गत अच्छे कार्य हुए हैं. राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, मेघालय, सिक्किम, आदि कई राज्य है जिन्होंने इस योजना के प्रारम्भ में ही   2008 में अपने राज्यों के ग्रामीण कृषि विकास को देखते हुए समान कार्य  के विभागों के कार्य मनरेगा योजना में जोड़ते हुए अपने राज्य से योजना पास करा कर  भारत सरकार से अनुमोदन उपरांत अपने राज्य के हित में मनरेगा एक्ट में शामिल  करा दिया तथा सभी कार्य सोसल आडिट के अंतर्गत लाये गये जिससे यैजनाऔ के क्रियान्वयन  में पारदर्शिता लाईं जा सके.

उत्तराखंड में ऐसा करने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया. यहां तो, ( उदाहरण के लिए) एक ही ग्राम सभा में वर्मी कम्पोस्ट पिट का निर्माण- मनरेगा, कृषि विभाग, उद्यान विभाग, जलागम, वन विभाग, ग्राम्या, आजीविका, विभिन्न स्वयंम सेवी संस्थाएं बनाने का दावा करते हैं कितने वर्मी कम्पोस्ट पिट गांवों में बने हुए दिखाई देते हैं स्थिति सबके सामने है 

उत्तराखंड में ऐसा करने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया. यहां तो, ( उदाहरण के लिए) एक ही ग्राम सभा में वर्मी कम्पोस्ट पिट का निर्माण- मनरेगा, कृषि विभाग, उद्यान विभाग, जलागम, वन विभाग, ग्राम्या, आजीविका, विभिन्न स्वयंम सेवी संस्थाएं बनाने का दावा करते हैं कितने वर्मी कम्पोस्ट पिट गांवों में बने हुए दिखाई देते हैं स्थिति सबके सामने है  *हां लक्ष्य सभी विभागों के प्रत्येक वित्तीय बर्ष के पूरे हुए होंगे लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो गरीब ग्रामीणों के*.

इसी प्रकार अन्य कार्यो की स्थति है.  यही नहीं एक ही योजना एक ही विभाग की जिला योजना में भी है, राज्य सैक्टर, विश्व वैक, वाह्य सहायतित व भारत सरकार की योजनाओं में भी होती है.

कोरोना काल में जब लाखों की संख्या में प्रवासी अपना स्वयंम का रोजगार छोड़ कर अन्य राज्यों से अपने राज्य उत्तराखंड में आयें हो निश्चित रूप से उन्हें अपने व अपने परिजनों की आजीविका हेतु रोजगार चाहिए.

महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ही एक मात्र योजना दिखाई देती है जिसमें आवश्यक्तानुसार सुधार कर लोगों को ग्रामीण रोजगार से जोड़ा जा सकता है.

किन कारणों से मनरेगा जैसी अच्छी योजना के बहुत अनुकूल परिणाम राज्य को नहीं मिल पा रहे हैं.

मुझे सबसे बड़ा कारण राज्य सरकार द्वारा चाहे वो किसी भी पार्टी की सरकार रही हो योजना का सामाजिक आडिट का प्रभावी ढंग से लागू न करना व समय पर विभिन्न विभागों की कृषि संबंधी समान यौजनाऔं को मनरेगा में समाहित कर एक्ट के दायरे में नहीं लाना है .

सोशल आडिट राज्य में कैसे होता होगा आप इसी पता चला सकते हैं कि राज्य में किसी भी आवेदक को वेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया जबकि सोसल आडिट में यह भी देखने का प्राविधान है कि कितनों को बेरोजगारी भत्ता दिया गया ‌. किसी  भी सामाजिक आडिट में यह उजागर नहीं हुआ कि आवेदकों से रोजगार हेतु आवेदन बिना तिथि डाले लिए जाते हैं.

सामाजिक अंकेक्षण (आडिट)-

  1. भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम ऐसा प्रथम राष्ट्रीय कानून है, जिसमें  सामाजिक अंकेक्षण की प्रक्रिया को विधिवत् स्वीकार किया गया है.
  2. सामाजिक अंकेक्षण की शुरुआत स्वैच्छिक संस्था “मज़दूर किसान शक्ति संगठन” द्वारा की गयी, जिसमें सरकारी कार्यों एवं व्यय हेतु राजस्थान के रायपुर (पाली) में जन सुनवाई हुई. इसके पश्चात् “हमारा पैसा, हमारा हिसाब” नामक आंदोलन से इस अवधारणा को दुरुस्त किया गया.

सामाजिक अंकेक्षण से लाभ –

  1. सामाजिक आडिट सामाजिक कल्याण के लिये उठाए गए कदमों के उद्देश्यों और वास्तविकता के बीच अंतर को पाटने का काम करता है.
  2. सामाजिक अंकेक्षण सरकारी धन के उपयोग का गुणवत्तापरक एवं परिमाणात्मक परीक्षण करता है तथा पारदर्शिता बहाल करता है.
  3. यह विकास कार्यों में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करता है तथा इस प्रकार लोकतंत्र एवं स्थानीय स्व-शासन की अवधारणा को मज़बूती प्रदान करता है.
  4. यह जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करता है तथा सरकारी योजनाओं एवं कल्याण कार्यों की सूचना प्रदान करता है.
  5. यह सरकार तथा नौकरशाही को जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाता है तथा भ्रष्टाचार को कम करने में सहायता करता है.
  6. यह हाशिये पर स्थित समुदायों तक सरकारी लाभों को पहुँचाने में तथा उनकी शिकायतों के निपटान के लिये एक उपकरण के रूप में कार्य करता है.

सामाजिक अंकेक्षण योजनाओं की निगरानी एवं जनता की आवश्यकताओं के अनुसार उनमें संशोधन करने में सक्षम करता है.

कुछ राज्यों राजस्थान आंध्र प्रदेश, तेलंगाना , सिक्किम, तमिलनाडु, मेघालय आदि में सामाजिक संगठनों द्वारा सरकार पर दबाव बना कर तथा अन्य में नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते सामाजिक सम्प्रेक्षण को प्रभावी बनाया गया.

कहने को उत्तराखंड राज्य में कई सामाजिक संगठन है किन्तु राजस्थान जैसा *हमारा पैसा हमारा हिसाब* जैसा आन्दोलन राज्य में कोई भी संगठन खड़ा नहीं कर पाया किसी भी सामाजिक संगठन ने योजनाओं में चल रहे भ्रष्टाचार पर अपनी आवाज बुलंद नहीं की, लगता है सभी पार्टियों की सरकारों में राज्य के सभी सामाजिक संगठनों की हिस्सेदारी तय है.

सुझाव –

  1. एक सौ दिनों के सापेक्ष एक सौ पचास दिनों का रोजगार दिवस किये जायं.
  2. मनरेगा में मजदूरी कम से कम तीन सौ रुपए की जाय. जैसा कि कई राज्यों ने अपने स्तर से किया है.
  3. हिमाचल प्रदेश की तरह *मुख्यमंत्री एक बीघा जमीन योजना* एक बीघा याने चार नाली जमीन पर व्यक्तिगत/ समूहों हेतु मनरेगा से जोड़ते हुए एक- एक लाख की रोजगार परक योजनाएं बनाई जाय.
  4. सौसियल औडिट में पारदर्शिता लाई जाय. इसके लिए अन्य राज्यों जैसे राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, मेघालय , सिक्किम आदि राज्यों की तरह किसी सामाजिक आडिट हेतु स्वतंत्र इकाई का गठन किया जाय.
  5. ग्रामीण विकास की विभिन्न विभागों की समान योजनाओं को एक कर मनरेगा के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव भारत सरकार के अनुमोदन हेतु भेजा जाय जिससे योजनाएं मनरेगा में सामाहित हो सकें जिससे उनको सामाजिक आडिट के दायरे में लाया जा सकें.
  6. ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य एवं जिला पंचायत के सभी सदस्यों को अपने हित छोड़ कर सेवा भाव से कोरोना काल में वे सहारा लोगों को सहारा याने रोजगार देने के प्रयास करने चाहिए.
  7. क्योंकि ग्राम प्रधान का मनरेगा योजना के संचालन में महत्वपूर्ण योगदान होता है अतः उन्हें सेवा भाव से योजना का संपादन करना चाहिए .
  8. पंचायती राज संस्थानों को मनरेगा के तहत किये जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है. इसलिए जनप्रतिनिधियों का नैतिक दायित्व बनता है कि संकट की इस घड़ी में मनरेगा से जुड़े सभी कर्मचारी अधिकारियों पर निगरानी रखें जिससे पारदर्शिता आ सके.
  9. चूंकि राज्य सरकारें बेरोजगारी भत्ता देती हैं, उन्हें श्रमिकों को रोजगार प्रदान करने के लिए भारी प्रोत्साहन दिया जाता है. आवेदकों से बिना तिथि डाले आवेदन लेने बन्द किए जायं जिससे राज्य सरकार पर योजना में शीघ्र धन आवंटन करने का दबाव बना रहेगा.
  10. लाभार्थियों में जागरूकता, साक्षरता, एकजुटता और प्रतिरोध की क्षमता का अभाव के कारण इस योजना में पारदर्शिता नहीं आ पाई है .

प्रवासियों को ग्रामीणों के साथ मिलकर संगठित होकर मनरेगा योजना के पारदर्शी क्रियान्वयन के लिए   रोजगार हेतु प्रयास करने होंगे.

(लेखक पूर्व लोकपाल मनरेगा, पौड़ी गढ़वाल रहे हैं)

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