खेती-बाड़ी

डाबर की मदद से पीपलकोटी में पहली बार गुलबनफ्शा की नर्सरी का प्रयोग सफल

डाबर की मदद से पीपलकोटी में पहली बार गुलबनफ्शा की नर्सरी का प्रयोग सफल

खेती-बाड़ी, चमोली
जे. पी. मैठाणी जनपद चमोली के पीपलकोटी स्थित- बायोटूरिज्म पार्क की नर्सरी में गुलबनफ्शा की पौध पहली बार पाली हाउस के भीतर ट्रे में जीएमओ फ्री बीजों से की गयी. आगाज संस्था के कार्यक्रम संयोजक- जयदीप किशोर ने बताया कि उनकी संस्था द्वारा जनपद चमोली में जड़ी बूटी की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए डाबर इंडिया के जीवन्ति वेलफेयर एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के सहयोग से चलाई जा रही योजना के अंतर्गत एक प्रजाति गुलबनफ्शा भी है. वो आगे बताते हैं कि इस वर्ष संस्था का लक्ष्य 5000 पौध विकसित करने का है लेकिन इसके बीज सम्पूर्ण उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, हिमाचल और सिक्किम में भी नहीं मिले तब संस्था के अध्यक्ष जेपी मैठाणी इसके बीज पोलैंड से लेकर आये है इन बीजो को संस्था के नर्सरी विशेषज्ञ भूपेंद्र कुमार और श्रीमती रेवती देवी ने रेत, मिटटी, कोको पीट, वर्मिकुलाइट और गाय के सड़े गोबर के मिक्सचर को ट्रे में भरकर उसमे बीजो...
अनेक रोगों की रामबाण औषधि है लोध

अनेक रोगों की रामबाण औषधि है लोध

खेती-बाड़ी
उत्तराखंड में स्वरोजगार का हो सकता है बेहतर संसाधन जे. पी. मैठाणी, देहरादून लोध - लोध्र - लोधरा हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में उगने वाली बहुवर्षीय, बहुउपयोगी और बहुमूल्य आयुर्वेदिक जड़ी बूटी के महत्व की वृक्ष प्रजाति है. लोध की छाल से 50 से अधिक प्रकार के आसव  अर्क, चूरन, क्रीम आदि बनाई जाती हैं. मनुष्य के अलावा पशुओं के कई रोगों को ठीक करने के लिए लोध को रामबाण औषधी के रूप में जाना जाता है. लोध की खेती और संरक्षण न होने और अधिक मांग की वजह से इस प्रजाति पर संकट भी है.  लोध का आयुर्वेदिक महत्व- लोध की छाल से बहुत प्रकार के रोगों - जैसे स्त्री रोग, उदर और आँतों के रोग, शुगर, अपच आदि की दवा - डाबर और अन्य आयुर्वेदिक फ़ार्मेसी कई वर्षों से बनाती आ रही है. लोधरासव, लोधुगा पाउडर, लोध सीरप - आदि दवा लोध से ही बनती है, देश में कई स्थानों पर इसको - पठानी लोध के रूप में भी जाना जाता है. महि...
पॉलीहाउस में निमेटोडस (सूत्र कृमि)- कैसे करें रोकथाम

पॉलीहाउस में निमेटोडस (सूत्र कृमि)- कैसे करें रोकथाम

खेती-बाड़ी
डॉ. राजेंद्र कुकसाल कीट व रोगों की तुलना में आमतौर पर कृषकों का सूत्रकृमि निमेटोड पर कम ध्यान जाता है जबकि निमेटोड खुद तो फसलों को नुक्सान पहुंचाते ही हैं साथ ही निमेटोड से संक्रमित फसलों में कई तरह की फफूद व वैक्टीरिया संक्रमण की सम्भावनाये बढ़ जाती है. निमेटोड की पहचान न होने के कारण कई बार किसान निमेटोड संक्रमण को कीट, रोग (फफूंद, बैक्टीरिया एवं बीषाणु) व पोषक तत्वों की कमी समझ कर  कई प्रकार की रसायनिक दवाओं का छिडकाव कर रोकथाम करने का प्रयास करते है, जिससे उनका श्रम, पैसा व समय बर्बाद होता है एवं सफलता भी नही मिलती अतः इन सूत्र कृमि की पहचान व जानकारी रखना जरूरी है.  उत्तराखंड में सरकार द्वारा पौली हाउस योजना को बढ़ावा दिया जा रहा है. पौलीहाउस अथवा ग्रीनहाउस एक ऐसी तकनीक है जिसके माध्यम से वाहरी वातावरण के प्रतिकूल होने पर भी इसके अंदर फसलों / बेमौसमी नर्सरी ,सब्जी एवं फूलों को आसानी...
प्राकृतिक रंग आधारित आजीविका के लिए वरदान है – आसाम नील पौधे की खेती

प्राकृतिक रंग आधारित आजीविका के लिए वरदान है – आसाम नील पौधे की खेती

खेती-बाड़ी
अनीता मैठाणी हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक रंग देने वाले कई पेड़ पौधे और झाड़ियाँ हैं. दूसरी तरफ पूरी दुनिया में नेचुरल कलर को लेकर - प्राकृतिक रंगों की बहुत मांग बढ़ गयी है. कुछ वर्षों तक हम उत्तरखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में - सेमल के फूल, सकीना (हिमालयन इंडिगो), रुइन के फल (सिन्दूर)  काफल की छल, किल्मोड की जड़ो, बुरांस के फूलों आदि को प्राकृतिक रंग के लिए उपयोग करते थे. लेकिन 5-6 वर्ष पूर्व - पहाड़ के हश्तशिल्प प्राकृतिक रंगों पर काम कर रही - सामाजिक संस्था अवनी को नार्थ ईस्ट के एक पौधे - आसाम नील के बारे में पता चला. अवनी संस्था की निदेशक श्रीमती रश्मि जी ने बताया कि, आसाम नील पौधे जिसको अंग्रेजी में - Strobilanthes Cusia कहते हैं, आसाम में सिर्फ नील कहते हैं , इस पौधे के प्राकृतिक रंग की पूरी दुनिया में बहुत मांग है, लेकिन ये पौधा अभी उत्तराखंड में सबसे पहले अवनी संस्था ही लाई - अवनी 7-8 स...
कीवी मेन! विक्रम बिष्ट के स्वरोजगार मॉ​डल नें पलायन को दिखाया आईना, पहाड़ में रोजगार सृजन की जगा रहे हैं अलख

कीवी मेन! विक्रम बिष्ट के स्वरोजगार मॉ​डल नें पलायन को दिखाया आईना, पहाड़ में रोजगार सृजन की जगा रहे हैं अलख

खेती-बाड़ी
ग्राउंड जीरो से संजय चौहान कुछ लोगों को पहाड़ आज भी पहाड़ नजर आता है. वहीं दूसरी ओर हमारे बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना किसी शोर शराबे के चुपचाप अपनी मेहनत और हौंसलों से पहाड़ की परिभाषा because ही बदल कर रख दी है. ऐसे लोग आज पलायन की पीडा से कराह रहे पहाड़ के लिए उम्मीद की किरण नजर आ रहे हैं. आज ऐसे ही पहाडी के बारें में आपको रूबरू करवाते हैं जिन्होंने पहाड़ में स्वरोजगार का मॉ​डल तैयार करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. लोग उन्हें कीवी मेन के नाम से भी जानते हैं. ज्योतिष सीमांत जनपद चमोली के कर्णप्रयाग ब्लाक की सिदोली पट्टी में गौचर से 20 किमी की दूरी पर स्थित मुल्या गांव (ग्वाड) निवासी 48 वर्षीय विक्रम सिंह बिष्ट आज लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनें हुये हैं. उनका स्वरोजगार मॉ​डल लोगों को बेहद पसंद आ रहा है, जिस कारण लोग स्वरोजगार के लिए अपने गांव वापस लौट रहें हैं. बहुमुखी प्रत...
हिसालू की जात बड़ी रिसालू

हिसालू की जात बड़ी रिसालू

खेती-बाड़ी
उत्तराखंड के अमृतफल हिसालू का वनौषधि के रूप में परिचय  डॉ. मोहन चंद तिवारी जिस भी उत्तराखंडी भाई का बचपन पहाड़ों में बीता है तो उसने हिसालू का खट्टा-मीठा स्वाद जरूर चखा होगा और इस फल को तोड़ते समय इसकी टहनियों में लगे टेढ़े और नुकीले काटों की खरोंच भी जरूर खाई होगी. वे दिन अब भी याद हैं गर्मियों में स्कूल की दो महीनों की छुट्टियों में जब भी गांव जाना होता था तो उसका एक because अनोखा परम सुख हिसालू टीपने का भी था. गर्मियों के महीने में सुबह सुबह और फिर दोपहर के बाद गांव के बच्चे हिसालू के फल तोड़ने जंगलों की तरफ निकल पड़ते और घर के सब लोग ताजे ताजे फलों का स्वाद लेते. हरताली हिसालू का दाना कई छोटे-छोटे नारंगी रंग के कणों का समूह जैसा होता है, जिसे कुमाऊंनी भाषा में 'हिसाउ गुन' कहते हैं. नारंगी रंग के हिसालू के अलावा लाल हिसालू की भी एक because प्रजाति पाई जाती है. दूनागिरि क्षेत्र मे...
भारत में पहली बार ‘मॉन्क फल’ की खेती

भारत में पहली बार ‘मॉन्क फल’ की खेती

खेती-बाड़ी, हिमाचल-प्रदेश
सीएसआईआर-आईएचबीटी, पालमपुर द्वारा की पहल जे.पी. मैठाणी/हिमाचल ब्यूरो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) (World Health Organization (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में 422 मिलियन लोग मधुमेह से पीड़ित हैं. अतिरिक्त गन्ना शर्करा के सेवन से इंसुलिन प्रतिरोध, टाइप 2 मधुमेह, यकृत की समस्याएं, चयापचय सिंड्रोम, हृदय रोग आदि जैसी अनेक जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. इस संबंध में, कम कैलोरी मान के कई सिंथेटिक because मिठास वाले पदार्थ हाल ही में फार्मास्युटिकल और खाद्य उद्योगों ने बाज़ार में उतारे हैं. हालांकि, आम तौर पर उनके संभावित स्वास्थ्य संबंधी कारणों के चलते उनकी व्यापक स्वीकार्यता को सीमित करती है. इसलिए, दुनिया भर के वैज्ञानिक सुरक्षित और गैर-पोषक प्राकृतिक मिठास के विकास पर लगातार काम कर रहे हैं. ज्योतिष यह पौधा लगभग 16-20 डिग्री सेल्सियस के वार्षिक औसत तापमान और आर्द्र प...
उत्तराखंड में स्‍वरोजगार का जरिया बन सकती है कैमोमाइल की खेती

उत्तराखंड में स्‍वरोजगार का जरिया बन सकती है कैमोमाइल की खेती

खेती-बाड़ी, ट्रैवलॉग
मंजू दिल से… भाग-17 मंजू काला जहाँ... कैमोमाइल का फूल सुंदरता, सादगी because और शांति का प्रतीक माना जाता है, वहीं निकोटिन रहित होने के कारण  यह औषधीय गुणों से भरपूर होता है. पेट के रोगों के लिए यह रामबाण औषधि है, वहीं त्वचा रोगों में भी कैमोमाइल काफी लाभकारी है. यह जलन, अनिद्रा, घबराहट और चिड़चिड़ापन में... भी लाभकारी है. कोलकाता उत्तराखंड के... परिपेक्ष में इस जादू के फूल की...बात करें... तो भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के गांवों से हो रहे पलायन ने खेती... और… किसानी को गहरे तक प्रभावित किया है. because अविभाजित उत्तर प्रदेश में यहां आठ लाख हेक्टेयर में खेती होती थी, जबकि 2.66 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर थी. राज्य गठन के बाद अब खेती का रकबा घटकर सात लाख हेक्टेयर पर आ गया है, जबकि बंजर भूमि का क्षेत्रफल बढ़कर 3.66 लाख हेक्टेयर हो गया है. सगंध खेती की मुहिम अब राज्य के 109 एरोम...
पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है मंडुआ

पहाड़ की कृषि आर्थिकी को संवार सकता है मंडुआ

खेती-बाड़ी
चन्द्रशेखर तिवारी उत्तराखण्ड में पृथक राज्य की मांग के लिए जब व्यापक जन-आंदोलन चल रहा था तब उस समय यह नारा सर्वाधिक चर्चित रहा था - ’मंडुआ बाड़ी खायंगे उत्तराखण्ड राज्य बनायेंगे'. because स्थानीय लोगों के अथक संघर्ष व शहादत से अलग पर्वतीय राज्य तो हासिल हुआ परन्तु विडम्बना यह रही कि राज्य बनने के बाद यहां के गांवों में न तो पहले की तरह मंडुआ-बाड़ी खाने वाले युवाओं की तादात बची रही और नहीं मंडुआ की बालियों से लहलहाते सीढ़ीदार खेतों के आम दृश्य. ज्योतिष राज्य बन जाने के बाद खेती-बाड़ी और पशुपालन से जुड़े ग्रामीण युवाओं के रोजगार की तलाश में मैदानी इलाकों के शहरों व महानगरों की ओर रुख करने से यहां मडुआ जैसी कई because परम्परागत फसलें हाशिये की ओर चली गयीं. मंडुआ की घटती खेती को कृषि विभाग के आंकडे़ भी तस्दीक करते हैं. उत्तराखण्ड में वर्ष 2004-2005 के दौरान 131003 हेक्टेयर में मडुआ की खेती ह...
उत्तराखंड में जैविक खेती को 6100 क्लस्टर बनाये जाएंगे!

उत्तराखंड में जैविक खेती को 6100 क्लस्टर बनाये जाएंगे!

खेती-बाड़ी
डॉ. राजेंद्र कुकसाल मुख्यमंत्री की कृषकों के हित में सराहनीय एवं स्वागत योग्य पहल, राज्य में गतिमान 3900 जैविक कलस्टरों की हकीकत उत्तराखंड कृषि प्रदान राज्य है जहां पर अधिकांश लोगों की आजीविका कृषि पर ही निर्भर है. राज्य का अधिकांश भाग पर्वतीय है जहां पर 65 प्रतिशत वन आच्छ्यादित हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में बर्षाbecause आधारित कृषि होती है साथ ही इस क्षेत्र में रसायनिक खाद का उपयोग बहुत कम यानी 5 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर ही होता है. पहाड़ी क्षेत्रों में जैविक खेती की संभावनाओं को देखते हुए 2003 में शासन द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में शत् प्रतिशत एवं मैदानी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत स्वैच्छा से  जैविक खेती करने का निर्णय लिया गया. नेता जी चर्ष 2003 में कृषि विभाग एवं उत्तरांचल because जैविक उत्पादन परिषद द्वारा गहन विचार विमर्श के बाद जैविक कृषि मार्ग निर्देशिका (रोड़ मैप) प्रकाशित ...