दो देशों की साझा प्रतिनिधि थीं कबूतरी देवी

पुण्यतिथि पर (7 जुलाई) विशेष

  • हेम पन्त

नेपाल-भारत की सीमा के पास लगभग 1945 में पैदा हुई कबूतरी दी को संगीत की शिक्षा पुश्तैनी रूप में हस्तांतरित हुई. परम्परागत लोकसंगीत को उनके पुरखे अगली पीढ़ियों को सौंपते हुए आगे बढ़ाते गए. शादी के बाद कबूतरी देवी अपने ससुराल पिथौरागढ़ जिले के दूरस्थ गांव क्वीतड़ (ब्लॉक मूनाकोट) आईं. उनके पति दीवानी राम सामाजिक रूप से सक्रिय थे और अपने इलाके में ‘नेताजी’ के नाम से जाने जाते थे. नेताजी ने अपनी निरक्षर पत्नी की प्रतिभा को निखारने और उन्हें मंच पर ले जाने का अनूठा काम किया. आज भी चूल्हे-चौके और खेती-बाड़ी के काम में उलझकर पहाड़ की न जाने कितनी महिलाओं की प्रतिभाएं दम तोड़ रही होंगी. लेकिन दीवानी राम जी निश्चय ही प्रगतिशील विचारधारा के मनुष्य रहे होंगे, जिन्होंने अपनी 70 के दशक में अपनी पत्नी में संगीत की रुचि को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि उनको खुद लेकर आकाशवाणी नजीबाबाद और आकाशवाणी रामपुर पहुंचाया. क्वीतड़ से कई घण्टे पैदल चलकर बस पकड़ने के बाद नजीबाबाद पहुंचने के सफर की चुनौतियों का आज हम लोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं. उस समय के प्रसिद्ध संगीतज्ञ और गीतकार भानुराम सुकौटी ने कबूतरी दी की प्रतिभा को निखारने का बेहतरीन काम किया.

कबूतरी देवी की आवाज में मौलिकता और भारत-नेपाल की मिलीजुली खनक तो थी ही, उनके गीतों में मधुरता के साथ साथ दिल को छू लेने वाली ‘नराई’ भी थी. जल्दी ही उनके गीत महिलाओं-पुरुषों और बच्चों के दिलों में बस गए.

कबूतरी दी ने शिखर पर पहुंचने का सफर शुरू कर दिया था. लगभग हर शाम रेडियो पर उनके गीतों को सुनने का जबरदस्त ‘क्रेज’ था. “पहाड़को ठंडो पानि”, “आज पानि झाऊ झाऊ” जैसे कुछ गानों ने कबूतरी दी को उत्तराखंड के हर घर में पहुंचा दिया था. रेडियो स्टेशन में गानों पर मिलने वाली राशि बहुत कम होती थी, इसलिए घर चलाने के लिए खेती-मजदूरी के बीच ही उत्तराखंड की ये पहली लोकगायिका अभावों में रहते हुए अपने 3 बच्चों को भी पालती रही. उनकी आवाज में मौलिकता और भारत-नेपाल की मिलीजुली खनक तो थी ही, उनके गीतों में मधुरता के साथ साथ दिल को छू लेने वाली ‘नराई’ भी थी. जल्दी ही उनके गीत महिलाओं-पुरुषों और बच्चों के दिलों में बस गए.

1984-85 में कबूतरी देवी उत्तराखंड लोकसंगीत के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बन चुकी थी, लेकिन परिवार का भरण-पोषण आर्थिक परेशानियों से गुजरते हुए बड़ी ही मुश्किल से हो पा रहा था. इसी बीच कबूतरी देवी जी के पति दीवानी राम जी का देहांत हो गया. छोटे बच्चों के बीच कबूतरी दी अकेली रह गईं. दीवानी राम जी के बिना कबूतरी दी असहाय थीं और तीनों बच्चे अभी बहुत छोटे थे. कबूतरी दी इन पारिवारिक उलझनों में फंसकर रह गई और कुछ समय के लिए गुमनाम जैसी हो गई. कबूतरी दी की मधुर आवाज और उनके गीत लोगों के दिमाग में थे लेकिन कबूतरी दी की सुध लेने वाला कोई नहीं था. मजबूरी में कबूतरी दी ने बच्चों को पालने की खातिर एक बार फिर से खेती-मजदूरी करना शुरू कर दिया. वरिष्ठ पत्रकार बद्रीदत्त कसनियाल बताते हैं कि कई सालों के बाद पिथौरागढ़ शहर के कुछ जागरूक नागरिक, संस्कृतिकर्मी और पत्रकार क्वीतड़ जाकर उनसे मिले तो कबूतरी दी किसी के खेत में मजदूरी करती हुई बहुत ग़ुरबत में दिन काट रही थीं. कुछ संस्थाओं के प्रयास से कबूतरी दी को मंच पर आने का मौका मिला और कबूतरी दी फिर से अपने प्रशंसकों के बीच छा गईं. सरकार को भी कुछ होश आया और उन्हें सम्मानित किया गया. देशभर से कबूतरी देवी को सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया जाता था. उनकी छोटी बेटी हेमा देवी ने परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए कबूतरी दी का पूरा साथ दिया. कई मौकों पर जागरूक लोगों के संयुक्त प्रयासों से बीमारी की स्थिति में कबूतरी दी को इलाज के लिए AIIMS तक ले जाया गया. वहां से स्वस्थ होकर लौटने के बाद कबूतरी दी अपनी दो बेटियों के साथ कभी पिथौरागढ़, कभी खटीमा रहने लगीं और जब भी अवसर मिला उन्होंने नई पीढ़ी के कलाकारों तक अपनी विरासत को पहुंचाने की भरसक कोशिश भी की. अधिक उम्र और पुरानी बीमारी के कारण वो अक्सर बीमार रहने लगीं. परिवार की आर्थिक स्थिति कभी सुधर नहीं पाई. कई बार उन्हें मिलने वाली सरकारी पेंशन का महीनों तक इंतजार करना पड़ता था. इन आर्थिक-शारीरिक विषमताओं के बीच रहते हुए कबूतरी दी का सम्मान हर उत्तराखंडवासी के दिल में बना रहा.

उत्तराखंड राज्य, जिसकी स्थापना ही विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के नाम पर हुई थी, कबूतरी देवी जी उस पहचान का बहुत बड़ी प्रतीक थी. सौरयाली (भारत) और डोटी (नेपाल) के एक बड़े इलाके की समृद्ध सांस्कृतिक पहचान को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय पहचान दी और बहुत से लोककलाकारों को आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी.

उत्तराखंड राज्य, जिसकी स्थापना ही विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के नाम पर हुई थी, कबूतरी देवी जी उस पहचान का बहुत बड़ी प्रतीक थी. सौरयाली (भारत) और डोटी (नेपाल) के एक बड़े इलाके की समृद्ध सांस्कृतिक पहचान को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय पहचान दी और बहुत से लोककलाकारों को आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी. अपने समाज और प्रशंसकों से कबूतरी दी को बहुत स्नेह और सम्मान मिला. उनके जीवन से उनके चाहने वालों को ये सीख भी मिली कि मनुष्य अपनी प्रतिभा और लगन के बल पर जिंदगी के उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए भी अमर हो सकता है.

कबूतरी दी के गीत की कुछ पंक्तियां बार बार याद आ रही हैं.

इस्टेसन सम्म पुजै दे मैं लई, पछिन बिराना ह्वै जौंला

(मुझे स्टेशन तक पहुंचा दो, फिर हम अजनबी हो जाएंगे)

संघर्षमय यात्रा के बाद आखिर 7 जुलाई 2018 को कबूतरी दी का स्टेशन आ ही गया, लेकिन उनके गीत हमेशा हमारे साथ बने रहेंगे.

(लेखक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इंजीनियर एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था “क्रिएटिव उत्तराखंड” के संस्थापक सदस्य हैं. उत्तराखंड के पारंपरिक बालगीतों का संग्रह “घुघूति बासुति” Ebook के रूप में दो अंकों में प्रकाशित)

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