Month: July 2020

अन्वेषक अमर सिंह रावत के अमर उद्यमीय प्रयास

अन्वेषक अमर सिंह रावत के अमर उद्यमीय प्रयास

इतिहास
डॉ. अरुण कुकसालसीरौं गांव (पौड़ी गढ़वाल) के महान अन्वेषक और उद्यमी अमर सिंह रावत सन् 1927 से 1942 तक कंडाली, पिरूल और रामबांस के कच्चेमाल से व्यावसायिक स्तर पर सूती और ऊनी कपड़ा बनाया करते थे. उन्होने सन् 1940 में मुम्बई (तब का बम्बई) में प्राकृतिक रेशों से कपड़ा बनाने के कारोबार में काम करने का 1 लाख रुपये का ऑफर ठुकरा कर अपने गढ़वाल में ही स्वःरोजगार की अलख जगाना बेहतर समझा. परन्तु हमारे गढ़वाली समाज ने उनकी कदर न जानी. आखिर में उनके सपने और आविष्कार उनके साथ ही विदा हो गये.बात अतीत की करें तो उत्तराखंड में सामाजिक चेतना की अलख़ जगाने वालों में 3 अग्रणी व्यक्तित्व इसी गांव से ताल्लुक रखते थे. अन्वेषक एवं उद्यमी अमर सिंह रावत, आर्य समाज आंदोलन के प्रचारक जोध सिंह रावत और शिक्षाविद् डॉ. सौभागयवती. यह भी महत्वपूर्ण है कि गढ़वाल राइफल के संस्थापक लाट सुबेदार बलभद्र सिंह नेगी के पूर्वज...
बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारीउत्तराखंड इन दिनों पिछले सालों की तरह लगातार बादल फटने और भारी बारिश की वजह से मुसीबत के दौर से गुजर रहा है.हाल ही में 20 जुलाई को पिथौरागढ़ जिले के बंगापानी सब डिवीजन में बादल फटने से 5 लोगों की मौत हो गई, कई घर जमींदोज हो गए और मलबे की चपेट में आने की वजह से 11 लोगों के बह जाने की खबर है.नदियां उफान पर हैं.इससे पहले 18 जुलाई को भी पिथौरागढ़ जिले में बादल फटने की दर्दनाक घटना हुई है.पहाड़ से अचानक आए जल सैलाब से कई घर दब गए,पांच घर बह गए और तीस घर खतरे की स्थिति में हैं.गोरी नदी में जलस्तर बढ़ने से सबसे ज्यादा नुकसान मुनस्यारी में हुआ.वहां एक पुल पानी में समा गया. आखिर ये बादल कैसे फटते हैं? ये उत्तराखंड के इलाकों में ही क्यों फटते हैं? बादल फटने का मौसम वैज्ञानिक मतलब क्या है? इन तमाम सवालों पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करुंगा. लेकिन पहले यह बताना चाहुंगा कि उ...
काणी मैं (मामी) उर्फ हल्या बौ (भाभी)

काणी मैं (मामी) उर्फ हल्या बौ (भाभी)

संस्मरण
डॉ. अमिता प्रकाशपहाड़ हम पहाड़वासियों की रग-रग में इसी तरह बसा है जैसे शरीर में प्राण. प्राण के बिना जैसे शरीर निर्जीव है, कुछ वैसे ही हम भी प्राणहीन हो जाते हैं, पहाड़ के बिना. पहाड़ में हमारी जड़ें हैं जिनसे आज भी हम पोषण प्राप्त कर रहे हैं और जीवन के संघर्ष में हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए खड़े हैं. पहाड़ की सी कठोरता हमारे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है, और इसी कठोरता के बलबूते जहाँ-तहाँ हम खड़े दिख जाते हैं ‘कुटजों’ की तरह. भले ही रूखे-सूखे और कंटीले लगे हम दुनियाँ वालों को लेकिन पहाड़ों की सी तरलता भी भरपूर होती है हम पहाड़ियों में. जैसे पहाड़ पालता है अपनी कोख में असंख्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को, और फूट पड़ता है ‘धारे-नौले, सोतों के रूप में, बिखर जाता है नदीधारा को रास्ता देने, वैसे ही अपने अस्तित्व का कण-कण समर्पित करते आए हैं हम पहाड़ी. भले ही न सराहा हो किसी ने हमारे समर्पण को कभी, पहाड़ को ...
आधुनिक ‘बुफे पद्धति’ और ‘कुक-शेफ़ों’ के बीच गायब होते ‘सरोला’

आधुनिक ‘बुफे पद्धति’ और ‘कुक-शेफ़ों’ के बीच गायब होते ‘सरोला’

साहित्‍य-संस्कृति
घरवात् (सहभोज)विजय कुमार डोभालआज की युवा पीढ़ी होटल, पार्टी या पिकनिक पर जा कर सहभोज का आनन्द ले रही है क्योंकि यह पीढ़ी शहर में ही जन्मी, पली-बढ़ी, शिक्षित-दीक्षित हुई तथा शहरीकरण में ही रच-बस गई है. यह पीढ़ी अपने पहाड़ी जनमानस के सामाजिक कार्यों, उत्सवों और विवाहादि अवसरों पर दी जाने वाली दावतों (घरवात्) के विषय में अनभिज्ञ है. इस पीढ़ी के युवाओं को घरवात् की जानकारी दिए जाने का प्रयास किया गया है. पहाड़ी समाज के जटिल जाति-भेद, ऊंच-नीच के कारण वर्ण-व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाता था. कच्ची रसोई (दाल-चावल) पकाने और परोसने के लिए कुछ उच्च कुलीन ब्राह्मणों को नियत किया गया जिन्हें “सरोला” कहा जाता है.घरवातों (सहभोज) के पकाने, परोसने और खाने के कठोर नियम होते हैं. “रुसड़ा” (पाकशाला जो प्रायः अस्थाई छप्पर होता है) में सरोलाओं के अतिरिक्त कोई अन्य प्रवेश नहीं कर सकता है. इस समय (...
सिन्धु सभ्यता के ‘धौलवीरा’ और ‘लोथल’ का जल प्रबंधन

सिन्धु सभ्यता के ‘धौलवीरा’ और ‘लोथल’ का जल प्रबंधन

जल-विज्ञान
भारत की जल संस्कृति-10डॉ. मोहन चन्द तिवारीधौलवीरा का जल प्रबन्धन सन् 1960 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने सिन्धु सभ्यता से सम्बद्ध एक प्राचीन आवासीय बस्ती धौलवीरा का उत्खनन किया तो पता चला कि यह सभ्यता 3000 ई.पू. की एक उन्नत नगर सभ्यता थी. खदिर द्वीप के उत्तर-पश्चिम की ओर वर्तमान गुजरात में स्थित इस प्राचीन नगर का मास्टर प्लान अत्यन्त सुनियोजित था. वैदिक कालीन जलविज्ञान की मान्यताओं के अनुरूप इस नगर में जलप्रबन्धन और जलसंचयन प्रणालियों की व्यवस्था की गई थी. धौलवीरा नगर मनहर और मनसर नामक दो नदियों के मध्य में बसा है. वहां के नागरिकों ने बरसात के मौसम में बढ़े हुए जल का सदुपयोग करने के उद्देश्य से इन बरसाती नदियों के मध्य में एक बड़े बांध का निर्माण किया तथा उस बांध में संचयित जल को ईंटों से बनाई हुई नालियों द्वारा जलाशयों और कुओं तक पहुंचाने की व्यवस्था की.पुरातत्त...
बाबिल की घास सिर्फ घास नहीं है

बाबिल की घास सिर्फ घास नहीं है

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना महामारी के कारण because हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ क...
यादों में एक शहर

यादों में एक शहर

संस्मरण
डॉ विजया सती दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज से हाल में ही सेवानिवृत्त हुई हैं. इससे पहले आप विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हिन्दी–ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में तथा प्रोफ़ेसर हिन्दी – हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया में कार्यरत रहीं. साथ ही महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, आलेख निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं. विजया सती जी अब ‘हिमांतर’ के लिए ‘देश-परदेश’ नाम से कॉलम लिखने जा रही हैं. इस कॉलम के जरिए आप घर बैठे परदेश की यात्रा का अनुभव करेंगे.बुदापैश्त डायरी-7डॉ. विजया सतीआज उस शहर की बात जहां रहकर हम हिन्दी पढ़ा रहे थे .... विश्व की सबसे हरी-भरी राजधानियों में एक नाम बुदापैश्त भी है. दुना नदी का बहाव इसे विशेष आकर्षण प्रदान करता है. छोटी-छोटी पहाड़ियों के उतार-चढ़ाव पर बने लाल छत वाले मकान इसकी खूबसूरती को बढ़ाते हैं...
हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

साहित्‍य-संस्कृति
गंधर्व गाथा -1पुष्कर सिंह रावतउत्तरकाशी में भागीरथी तट पर एक आश्रम है शंकर मठ. ये छोटा सा आश्रम हमारे जेपी दा (जयप्रकाश राणा) का रियाज करने का ठिकाना हुआ करता था. बता दूं कि जेपी दा खुद भी तबले में प्रभाकर हैं और लोक कलाकारों की पहचान करने में उन्हें महारथ है. करीब दस साल पहले की बात है, उस दिन जेपी दा एक युवक को गाने का रियाज करवा रहे थे. इसी बीच मैं और रवीश काला भी वहां पहुंचे. गाते हुए युवा गलती करता तो जेपी दा आंखें तरेर देते, उसका सुर गड़बड़ा जाता. तभी उनकी नजर आश्रम के नीचे से गुजर रहे एक उम्रदराज लेकिन शारीरिक रूप से सुडौल शख्स पर पड़ी. उन्होंने उसे बुलाया और पास बिठा लिया. बड़े वीनीत भाव से उसने जेपी दा की बात सुनी और जीतू बगड्वाल का पंवाड़ा गाना शुरू कर दिया. हमारे रोंगटे खड़े हो गए. नए दौर का युवा गायक अवाक था. जिस गायन में उसे मशक्क त करनी पड़ रही है, उसे वो बूढ़ा बड़े...
ग्रेटा थनबर्ग: पर्यारण के लिए चिंतित एक आवाज

ग्रेटा थनबर्ग: पर्यारण के लिए चिंतित एक आवाज

पर्यावरण
कमलेश चंद्र जोशी“My name is Greta Thunberg. I am sixteen years old. I come from Sweden and speak on behalf of future generations. I know many of you don’t want to listen to us. You say we are just children. But we are only repeating the message of the united climate science.” सोलह साल की ग्रेटा थनबर्ग लंदन की संसद में इस संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करती है. उसकी किताब “No one is too small to make a difference” अलग-अलग मंचों से दिये गए उसके भाषणों का संग्रह है जो उसकी पर्यावरण को लेकर बुलंद की गई आवाज को दर्शाती है. स्कूली हड़ताल से शुरूआत करती हुई ग्रेटा स्वीडन की संसद के सामने हड़ताल के बाद दुनिया की नजर में आती है और उन तमाम बच्चों के लिए प्रेरणा बन जाती है जो अपने भविष्य और पर्यावरण को बचाने के लिए दुनिया भर की सरकारों से सवाल पूछने लगते हैं.हमारा घर यानी की पृथ्वी ...
भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है युवा पीढ़ी

भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है युवा पीढ़ी

साहित्‍य-संस्कृति
आशिता डोभालपहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज अपने आप में सम्पन्न, अनूठी और अद्भुत है. यह अपने में कई चीजों का समाए हुए है, पहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज हमेशा एक कौतूहल और शोध का विषय रहा है. हमारी संस्कृति पर कुछेक शोध जरूर हुए हैं लेकिन वह ना के बराबर. हमारी प्राचीन संस्कृति पर अभी भी गहन अध्ययन, चिंतन और शोध की जरूरत है. क्योंकि आज हम जिस समाज और भाग दौड़ की दुनिया में एक दिखावे की सी जिंदगी जी रहे हैं, उसमे हमारी आने वाली पीढ़ी पहाड़ों की कई ऐसी चीजों से अनभिज्ञ रहने वाली है. इसका कारण कोई और नहीं हम ही हैं. क्योंकि आज हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं. आज मैं बात कर रही हूं एक ऐसे बर्तन की, जो हमारे रीति—रिवाज और संस्कृति का कभी अभिन्न अंग हुआ करता था. मैं जिस बर्तन की बात कर रही हूं उसका नाम भड्डू है. भड्डू को बनाने में बहुत चिंतन—मनन करना पड़ा होगा. ऐसी धातुओं का मि...