हुकम दास के हुक्म पर अंग्रेज घाम में खड़ा रहा

गंधर्व गाथा -1

  • पुष्कर सिंह रावत

उत्तरकाशी में भागीरथी तट पर एक आश्रम है शंकर मठ. ये छोटा सा आश्रम हमारे जेपी दा (जयप्रकाश राणा) का रियाज करने का ठिकाना हुआ करता था. बता दूं कि जेपी दा खुद भी तबले में प्रभाकर हैं और लोक कलाकारों की पहचान करने में उन्हें महारथ है. करीब दस साल पहले की बात है, उस दिन जेपी दा एक युवक को गाने का रियाज करवा रहे थे. इसी बीच मैं और रवीश काला भी वहां पहुंचे. गाते हुए युवा गलती करता तो जेपी दा आंखें तरेर देते, उसका सुर गड़बड़ा जाता. तभी उनकी नजर आश्रम के नीचे से गुजर रहे एक उम्रदराज लेकिन शारीरिक रूप से सुडौल शख्स पर पड़ी. उन्होंने उसे बुलाया और पास बिठा लिया. बड़े वीनीत भाव से उसने जेपी दा की बात सुनी और जीतू बगड्वाल का पंवाड़ा गाना शुरू कर दिया. हमारे रोंगटे खड़े हो गए. नए दौर का युवा गायक अवाक था. जिस गायन में उसे मशक्क त करनी पड़ रही है, उसे वो बूढ़ा बड़े सहज ढंग से निभा रहा था. फिर उसने एक चैती गीत गाया- बास म्योलाड़ी बास म्यरा मैता की दिसा..इसने तो हमें निढाल ही कर दिया. अब जेपी दा बोले- ये हैं हुकमदास जी, लोकविधाओं के जानकार और फनकार. हुकमदास जी से इस तरह का परिचय शानदार था.

धौंतरी इलाके में प्रसिद्ध हलवा देवता का पश्वा भी हुकमदास जी ही हैं. जहां देवांश आने पर देवता परात भर हलवा खा जाता है. पैंसठ की उम्र में भी स्वस्थ हुकमदास को उत्तरकाशी में कई मौकों पर ढोल बजाते हुए देखा जा सकता है. मुस्कुराते हुए उनके चेहरे और माथे पर असंख्य लकीरें उभरती हैं, जैसे उनके गूढ़ ज्ञान की परतें दिख रही हों.

इसके बाद मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा. उत्तरकाशी के तिलोथ में चौरंगीखाल वाली सड़क किनारे हुकमदास का घर है. जिसे पत्नी झाबा देवी संभालती हैं. इसके अलावा चैती और पांडव लीला गायन में पत्नी भी हुकमदास को पूरी संगत देती हैं. जब दोनों साथ में गाते हैं तो अलौकिक अनूभूति होती है. लगता है हिमालयी गंधर्वों के दुर्लभ जोड़े को देख रहे हों. अनपढ़ होने के बावजूद दोनों को सैकड़ों पंवाड़े, जागर और लोकोक्तियां कंठस्थ हैं. उनसे पारंपरिक सदेई गीत सुनना अलग अनुभव है. हमारे थिएटर ग्रुप संवेदना समूह के लिए कई गाथाओं और लोकविधाओं को जानने और समझने का स्रोत हुकमदास ही हैं. गायन के साथ उन्होंने ढोल, मशकबीन, पिपरी, रणसिंगा और रामसुर का मानो पानी बना दिया है. धौंतरी इलाके में प्रसिद्ध हलवा देवता का पश्वा भी हुकमदास जी ही हैं. जहां देवांश आने पर देवता परात भर हलवा खा जाता है. पैंसठ की उम्र में भी स्वस्थ हुकमदास को उत्तरकाशी में कई मौकों पर ढोल बजाते हुए देखा जा सकता है. मुस्कुराते हुए उनके चेहरे और माथे पर असंख्य लकीरें उभरती हैं, जैसे उनके गूढ़ ज्ञान की परतें दिख रही हों.

एक बार रंगकर्मी मित्र डॉ. अजीत पंवार के संपर्क से अमेरिकी संगीतकार जैसन उत्तरकाशी पहुंचा. उसको मसकबीन सीखना था. जिसके लिए हुकमदास जी को ही चुना गया. दिलचस्प है कि मशकबीन विदेश से गढ़वाल में आई, और अब विदेशी ही इसे सीखने यहां आ रहे हैं. खैर, हुकुमदास की शागिर्दी में जैसन की ट्रेनिंग शुरू हुई. कई बार हुकुमदास छाया में कुर्सी डाल बैठे रहते और, जैसन को धूप में खड़ा कर रियाज करवाते. ये देख उनकी पत्नी नाराज होकर उलाहना देती कि मेहमान के साथ भला इस तरह पेश आते हैं, हुकमदास हंसकर कहते, अरे गोरों ने हम पर सौ साल राज करा, हम इन्हें हम घाम में खड़ा भी नहीं रख सकते. इस बात को वो आज भी पूरी हनक के साथ बताते हैं. करीब एक महीने लगातार अभ्यास के बाद जैसन ने मसकबीन को साध लिया. इस दौरान हुकमदास ने भी कुछ विदेशी धुनें उससे सीख ली. जैसन की विदाई से पहले दिन दोनों बाजार में एक दूसरे के कंधे पर हाथ डाले झूम रहे थे. जैसन की जेब से रॉयल स्टैग का हाफ भी झांक रहा था.

उत्तराखंड की संस्कृति के असल संवाहक हैं ढोली, बादी बदीन, हुड़किया. इनकी वाणी में इतिहास भूगोल के साथ ही परालौकिक ज्ञान भी छिपा हुआ है. उनके आह्वान पर लोकदेवता किलकारियां मारते हुए अवतरित होते हैं. शोधकर्ताओं ने इन्हें हिमालयी गंधर्व कहा है, जो सदियों से इस भूभाग को अपने स्‍वरों से सजाए हुए हैं. ये गंधर्व हमारे समाज का एक अहम हिस्सा हैं, बस हम अपनी रौ में रहकर इन्हें पहचान नहीं पाते.

दरअसल, उत्तराखंड की संस्कृति के असल संवाहक हैं ढोली, बादी बदीन, हुड़किया. इनकी वाणी में इतिहास भूगोल के साथ ही परालौकिक ज्ञान भी छिपा हुआ है. उनके आह्वान पर लोकदेवता किलकारियां मारते हुए अवतरित होते हैं. शोधकर्ताओं ने इन्हें हिमालयी गंधर्व कहा है, जो सदियों से इस भूभाग को अपने स्‍वरों से सजाए हुए हैं. ये गंधर्व हमारे समाज का एक अहम हिस्सा हैं, बस हम अपनी रौ में रहकर इन्हें पहचान नहीं पाते.

(लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं)

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