- डॉ. अमिता प्रकाश
पहाड़ हम पहाड़वासियों की रग-रग में इसी तरह बसा है जैसे शरीर में प्राण. प्राण के बिना जैसे शरीर निर्जीव है, कुछ वैसे ही हम भी प्राणहीन हो जाते हैं, पहाड़ के बिना. पहाड़ में हमारी जड़ें हैं जिनसे आज भी हम पोषण प्राप्त कर रहे हैं और जीवन के संघर्ष में हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए खड़े हैं. पहाड़ की सी कठोरता हमारे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है, और इसी कठोरता के बलबूते जहाँ-तहाँ हम खड़े दिख जाते हैं ‘कुटजों’ की तरह. भले ही रूखे-सूखे और कंटीले लगे हम दुनियाँ वालों को लेकिन पहाड़ों की सी तरलता भी भरपूर होती है हम पहाड़ियों में. जैसे पहाड़ पालता है अपनी कोख में असंख्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को, और फूट पड़ता है ‘धारे-नौले, सोतों के रूप में, बिखर जाता है नदीधारा को रास्ता देने, वैसे ही अपने अस्तित्व का कण-कण समर्पित करते आए हैं हम पहाड़ी. भले ही न सराहा हो किसी ने हमारे समर्पण को कभी, पहाड़ को रहने लायक बनाने वाले, उसके सीने में प्रेम को अंकुरित करने में प्रकृति का जितना हाथ रहा है उतना ही योगदान दिया है यहाँ के निवासियों ने और उसमें भी यहाँ की जीवट स्त्रियों का. पहाड़ से लोहा लेती पहाड़ को काट-छाँट कर, घिस-घिस कर चिकना बनाती पहाड़ी नदियों सी यहाँ की महिलाएं घुस जाती हैं निर्बाध कहीं उसकी खोह-कन्दराओं में, बना लेती हैं अपना रास्ता. या कभी सर पर घास के कण्डों (डलिया) या लकड़ी के बिठकों (गट्ठर) में बाँध लेती हैं पहाड़ की दुरूहता को. अपने पैरों से रौंद देती है उन्नत पहाड़ की चोटियों को, अपनी दाथी (दराँती) से काट देती हैं पहाड़ की बढ़ती रोमावली को और अपनी कुटली (कुदाल) की चोट से फोड़ देती हैं उसके पथरीले सीने को ताकि बीज आसानी से पनप सके उसकी गदराई देह पर. वस्तुतः पहाड़ को टक्कर देती है पहाड़ की नारी ही.
मेरी नानी दो ही घरों में जाने पर मुझे टोकती थी एक काणी मैं के यहाँ और दूसरे तल्ले ख्वाल (निचले मोहल्ले) के बसंत लाल, मामाजी के वहाँ. बाकी सारे गाँव में मैं भटकने के लिए दिन-रात रहने-खाने के लिए आजाद थी. इन दो परिवारों के अतिरिक्त दो और परिवार थे जिनके यहाँ जाने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती थी एक था पुरुषोत्तम मामा का और दूसरा नक्वा मामी के यहाँ, क्योंकि इन दो परिवारों से हमारे परिवार का अबोला था (बातचीत बंद थी).
ऐसी ही पहाड़ी नारी का स्मरण हो आया मुझे विगत दिनों पढ़े एक आलेख से जहां लेखक ने पहाड़ों पर स्त्री द्वारा हल ना चलाने की प्रथा और उसको सायास तोड़ने के लिए उस कन्या को बधाई संप्रेषित की थी. निश्चित रूप से रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ा होने वाला हर व्यक्ति बधाई का पात्र है. यह अलग बात है कि हर पात्र को एक जैसा यश या अपयश नहीं मिलता है, किसी एक को जिस कार्य हेतु समाज सराहता है, सर आँखों पर बिठाता है कभी-कभी दूसरे को उसी के लिए निंदा और घृणा का पात्र बना देता है. अब इसी हल चलाने कि प्रथा पर आज शाबाशी और बधाई मिल रही है, वहीं नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में काणी मैं (मामी) को क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा था. यह काणी उर्फ भुवनेश्वरी मामी का जिगरा ही था कि एक आँख से दुनियाँ को देखती मामी दुनियाँ को सुनती दोनों कानों से थी. लम्बी, दुबली-पतली काया चेहरे पर मर्दाना सख्ती सिर पर बंधी ठाठों (पगड़ी) ठांठे से निकले छितरे-उलझे बाल- और औरतों की सुकोमलता से बहुत दूर लम्बे-लम्बे कदमों से चलती भुवनेश्वरी मामी मेरे लिए चलती-फिरती पहेली थीं. मेरा बचपन अपने ममाकोट (ननिहाल) पुसोली गाँव में बीता, जो चैंदकोट की मवालास्यूं पट्टी में पड़ता है. पंत पण्डितों के इस गाँव मे वैसे तो सभी लोग अच्छा खाते-कमाते थे क्योंकि खेती-बाड़ी खूब दूर-दूर तक फैली थी. लगभग गाँव के आधे पुरुष खेती-बाड़ी, जजमानी के साथ मास्टर साहब थे. कोई जनता इण्टर कॉलेज मवाड़ीधार में, कोई मासों में कोई पांग और कोई प्राथमिक पाठशाला चैडूधार, बड़ोली आदि गाँव में. जजमानी का क्षेत्र भी विस्तृत था सासों, मोंसो, पांग, बड़ोली तल्ली बड़ोली के अतिरिक्त नयार पार के सभी गाँव पुसोली वालों के यजमान थे. मुझे याद है वृति के दिनों में नानाजी नयार पार के गांवों में जाते थे तो कई-कई दिनों बाद लौटते थे. कभी-कभी तो उनका प्रवास दस-बारह दिन तक खींच जाता था. एसे समृद्ध गाँव में दो-तीन ही परिवार थे जिन्हें औसत से कम कहा जा सकता था….ना…ना…आर्थिक दृष्टि से भी और करने कमाने वालों की दृष्टि से भी. इन तीन परिवारों में एक परिवार था विधवा भौजी (भाभीजी) और बाल विधवा ननद का, दूसरा परिवार था- विधवा माँ और बेटी माला का तथा तीसरा परिवार था काणी मैं (मामी) का, लेकिन काणी मैं के परिवार में सदस्यों की संख्या कम बिलकुल नहीं थी. पति विशनू (विशनदत्त मामाजी) के अतिरिक्त तीन बच्चे थे अज्जु, सुनीता और गुड्डू. इसमें से सुनीता मुझ से एक-दो साल बड़ी थी इसलिए मेरा काणी मैं के घर आना-जाना बहुत रहता था, चोरी-छुपे भी मैं उनके यहाँ दिन भर पड़ी रहती थी और घर में किसी को इस बात की कानों-कान खबर नहीं लगने देती थी, कारण? कारण था- घर में पड़ने वाली डांट. मेरी नानी दो ही घरों में जाने पर मुझे टोकती थी एक काणी मैं के यहाँ और दूसरे तल्ले ख्वाल (निचले मोहल्ले) के बसंत लाल, मामाजी के वहाँ. बाकी सारे गाँव में मैं भटकने के लिए दिन-रात रहने-खाने के लिए आजाद थी. इन दो परिवारों के अतिरिक्त दो और परिवार थे जिनके यहाँ जाने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती थी एक था पुरुषोत्तम मामा का और दूसरा नक्वा मामी के यहाँ, क्योंकि इन दो परिवारों से हमारे परिवार का अबोला था (बातचीत बंद थी).
मामी अकसर भुनभुनाती रहती ये घिमंडी बुड्ढ्या ढांगू च, एका भर्वासा फर कण क्वै रैण? (यह घिमंडी तो बूढ़ा बैल है, इसके भरोसे पर कैसे रहूँ?) और जिसका भरोसा किया जा सकता था, बचनू उसे ब्याह-बारात, पुजाई वगैरह से जैसे ही फुर्सत मिलती वह अपने भाइयों के पास ऋषिकेश भाग जाता क्योंकि उसके बच्चे भी वहीं पढ़ रहे थे.
हाँ, तो इन दोनों परिवारों में न जाने देने या जाने पर नानी के गुस्सा होने का कारण मैं समझ नहीं पाती थी. अच्छा पहले के गार्जियन्स की यह एक खास बात या आदत होती थी कि किसी भी काम के पीछे के कारण को स्पष्ट रूप से बताते नहीं थे, और बालमन स्वाभाविक रूप से फिर कारण की खोज में जोश-ओ-खरोश से लग जाता और वही मेरे साथ भी हुआ. मैं, हमउम्र सुनीता और गुड्डू में कोई खामी नहीं पाती हाँ विशनू मामा जरूर मेरे लिए कुछ अलग से थे रहस्यमय, वह और पुरुषों की तरह खेती-बाड़ी का काम नहीं देखते थे बस बिस्तर पर ही अधिकांशतः पड़े रहते थे, उनके चैड़े से चेहरे पर उनकी आँखे बड़े-बड़े गड्ढों में धंसी सी दिखती. चैड़े ऊँचे माथे पर घुँघराले बाल छितरे रहते थे भले ही बीच में निकली चमकती चाँद हमारी हंसी-मजाक का विषय रहती थी. हाँ, खास बात मामाजी के बारे में यह थी कि अकसर उन्हें बुखार व खांसी बनी रहती थी, लेकिन तब भी वह जब कभी मामी घर पर नहीं रहती, हुक्का जरूर गुड़गुड़ाते थे और खाँसते रहते. वैसे भी मामी अक्सर बाहर ही रहती, कभी खेत-बाड़ी के काम से तो कभी वृति के काम से. जी हाँ. यह हमारे गाँव में एक परंपरा है कि जिस परिवार का जो पंडित कई पीढ़ियों पहले बंध गया हो, वह चाहे पूजा करे या ना करे, उसको न्यूता (आमंत्रण) जरूर जाता है, और उसी की यह जिम्मेदारी भी होती है कि वह पूजा करने वाले पंडित की व्यवस्था भी करे. तो काणी मामी अपने स्वारे (कुटुम्ब) के ही किसी पुरुष सदस्य को ले जाकर अपने यजमानों की ब्याह (विवाह), कथा, चूड़ाकर्म, श्राद्ध, आदि निबटाती थीं. मामी यजमानी ही नहीं निबटाती थी घर भर के कामों के अतिरिक्त खेती का काम भी उन्हीं के कंधों पर था. शुरू-शुरू में तो हल्या (हल लगाने वाला) गाँव का या सवारों में से ही कोई पुरुष होता लेकिन यह व्यवस्था आखिर कब तक चलती? गाँव में जो अनुसूचित जाति के चार परिवार थे उसमें दो ही पुरुष गाँव में रहते थे. घिमंडी लाल बूढ़ा हो चुका था और जब से वह रेडियो कलाकार बना था तब से उसकी तिड़ाण (भाव बढ़ना) ही अलग थी. मामी अकसर भुनभुनाती रहती ये घिमंडी बुड्ढ्या ढांगू च, एका भर्वासा फर कण क्वै रैण? (यह घिमंडी तो बूढ़ा बैल है, इसके भरोसे पर कैसे रहूँ?) और जिसका भरोसा किया जा सकता था, बचनू उसे ब्याह-बारात, पुजाई वगैरह से जैसे ही फुर्सत मिलती वह अपने भाइयों के पास ऋषिकेश भाग जाता क्योंकि उसके बच्चे भी वहीं पढ़ रहे थे.
एक दिन उन्होंने हमारे चैक में बैठे-बैठे चाय पीते हुए कहा “जी (सास के लिए गढ़वाली संबोधन) अब त मीथै ही हैल लगाण प्वड़द” (अब तो मुझे ही हल लगाना पड़ता है) सुनकर नानी ने ऐसी प्रतिक्रिया दी कि मैं देखती ही रह गई….नानी एकदम नाटकीय अंदाज में दोनों हाथों को कानों पर रखकर बोलीं “क्य बात कन्नी छे भुवनी? तू इन सोची भी कन सकदी? अनर्थ ह्वे जालु अनर्थ”!
काणी मामी हार कहाँ मानने वाली थी, उन्होंने पहले-पहले खूब मिन्नतें की. गाँव भर में जिस-जिस घर से उनको मदद की उम्मीद थी उनके खेतों में जाकर पड्याल (बदले में काम) की, लेकिन जब मामी के खेतों में हल लगाने का वक्त हुआ तो दो-चार खेतों के बाद सभी किसी न किसी काम से सच्चे-झूठे बहाने बनाकर खिसक जाते. एक-दो फसल तो मामी सह भी लेती लेकिन साल भर और हर सारी (फसल) का नुकसान कैसे सहती? कुटले (कुदाल) से भी कितने खेत खोदती? एक दिन उन्होंने हमारे चैक में बैठे-बैठे चाय पीते हुए कहा “जी (सास के लिए गढ़वाली संबोधन) अब त मीथै ही हैल लगाण प्वड़द” (अब तो मुझे ही हल लगाना पड़ता है) सुनकर नानी ने ऐसी प्रतिक्रिया दी कि मैं देखती ही रह गई….नानी एकदम नाटकीय अंदाज में दोनों हाथों को कानों पर रखकर बोलीं “क्य बात कन्नी छे भुवनी? तू इन सोची भी कन सकदी? अनर्थ ह्वे जालु अनर्थ”! (भुवनी क्या बात कर रही हो? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो? अनर्थ हो जाएगा अनर्थ!) भुवनी मामी उर्फ काणी मैं जरा तैश में आ गई- “होने दो जी (सास) मेरे लिए क्य अर्थ क्या अनर्थ? मर्द तो मड़घट (शमशान) जाने के लिए तैयार ही बैठा है, मैं कब तक किसी के भरोसे रहूँगी? और फिर यखुली (अकेली) होती तो चला ही लेती किसी तरह, अपने आप बांझा पड़ती पुंगड़ी (बंजर पड़ती खेती), पर तीन पेट और पालने हैं, पढ़ाना-लिखाना, सैंतना-पालना सभी तो करना है”, कहते-कहते काणी मैं का गला रुँध आया. मैं इस समय बड़े ध्यान से यह देखने का प्रयास कर रही थी कि काणी मैं की फूटी आँख से आँसू निकलता है कि नहीं, लेकिन मेरी जिज्ञासा पर पानी फेरते हुए (साफ करते) निश्चयात्मक आवाज में कहा- “अफी राला ये पंडित अर यूंका पोथी-पतड़ा, म्यरा भौं वाल आग जुगता ह्वे जै सभि, जै धरम म एक दुखी-कजयाण खूणि क्वी दया-भाव नी च वैथे मि किले माणु”? (“अपने आप रहेंगे ये पंडित और इनके पोथी-पतड़े, मेरी बला से सब पर आग लग जाये, जिस धर्म में एक दुखी औरत के लिए कोई दया-भाव नहीं है मैं उन्हें क्यूँ मानूँ”?). मामी की ढृढता के आगे नानी भी आगे कुछ ना बोल पायी. हाँ संभवतः सांत्वना देने की गरज से इतना ही बोली “घाम अर छैल लग्यूं धंधा च, सबू का दिन अंदी त्यारा भि आला ही” (“धूप और छाँव तो लगा रहता है सभी के दिन फिरते हैं तुम्हारे भी फिरेंगे ही”).
बात यह थी कि अपनी सारी ढृढ़ता के बावजूद मामी ‘स्त्री के हल न चलाने की प्रथा’ का खुलेआम उल्लंघन नहीं कर पाई थी. उन्होंने अज्जू को जो उस समय मुश्किल से दस-ग्यारह साल का था, उसको भी हल की मूँठ पकड़कर चलने के लिए विवश कर दिया था. समाज के एकदम से खिलाफ जाना, वह भी इस स्थिति में जब मामा टी० बी० की बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़े-पड़े मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, मामी के लिए संभव नहीं था.
दिन आते नहीं, लाने पड़ते हैं संभवतः मामी ने यह बात गाँठ बाँध ली थी और दो दिन बाद पूरे गाँव में काणी मामी सबकी चर्चा का विषय थी. बड़े-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी की किस्से-कहानियों, बात-चिंता का केन्द्र काणी उर्फ भुवनी उर्फ भुवनेश्वरी ही थी. हर कोई गलिया रहा था कि- ‘औरत जात की हिम्मत तो देखो….’ किसी को गाँव में इस अधर्म की वजह से आने वाले विनाश की चिंता थी तो कोई इस बात से थोड़ा-सा संतुष्ट दिख रहा था कि चलो अब काणी का पलटा नहीं देना पड़ेगा (किये हुए काम के बदले काम नहीं करना पड़ेगा). जिस किसी को अपनी जान छूटती हुई नजर आ रही थी वह मामी के पक्ष में यह दलील देने से भि नहीं चूक रहा था कि वह कौन से खुद हल लगा रही है? हाथ तो अज्जू का ही है ना हल की मूँठ पर? इससे अनर्थ कैसा? बात यह थी कि अपनी सारी ढृढ़ता के बावजूद मामी ‘स्त्री के हल न चलाने की प्रथा’ का खुलेआम उल्लंघन नहीं कर पाई थी. उन्होंने अज्जू को जो उस समय मुश्किल से दस-ग्यारह साल का था, उसको भी हल की मूँठ पकड़कर चलने के लिए विवश कर दिया था. समाज के एकदम से खिलाफ जाना, वह भी इस स्थिति में जब मामा टी० बी० की बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़े-पड़े मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, मामी के लिए संभव नहीं था. अज्जू थक जाता तो गुड्डू ही सही, हल की मूँठ न सही, बैल की पूँछ ही सही दोनों लड़के माँ और बैलों के साथ-साथ चलते. फिर शरमा-शरमी कुछ गाँव के पुरुषों ने अपने-अपने समयानुसार काणी मैं के खेतों में हल लगा दिया था. लेकिन खेती का काम कोई कुंभ का काम तो है नहीं कि छः साल या बारह साल बाद ही होगा. साल में दो बार दो फसलें, लोगों को भी कब तक शर्म आती? कोई भी नया काम कुछ समय के लिए चर्चा का विषय बनता जरूर है, लेकिन जैसा कहते हैं कि जनता को आदत पड़ने में बहुत कम समय लगता है वैसे ही काणी मामी के हल चलाने के साथ भी हुआ. धीरे-धीरे गाँव को भी आदत सी हो गई और मामी को भी. एक-दो फसल की बुआई के बाद तो मामी ने अज्जू और गुड्डू नाम की दीवारों का भी सहारा छोड़ दिया था. हाँ, लेकिन एक परिवर्तन जरूर आया काणी मैं का नाम एक बार फिर बदलकर हल्या बौ (हल जोतने वाली भाभी) हो गया… और तो और मेरे लिए भी अब वह मैं (मामी) नहीं हल्या बौ ही थीं.
क्रमशः
(लेखिका रा.बा.इं. कॉलेज द्वाराहाट, अल्मोड़ा में अंग्रेजी की अध्यापिका हैं)