Month: July 2020

… जब दो लोगों की दुश्मनी दो गांवों में बदल गई!

… जब दो लोगों की दुश्मनी दो गांवों में बदल गई!

साहित्‍य-संस्कृति
सीतलू नाणसेऊ- खाटा 'खशिया' फकीरा सिहं चौहान स्नेही रुक जाओ! हक्कु, इन बेजुबान जानवरों को  इतनी क्रूरता से मत मारो. सीतलू हांफ्ता-हांफ्ता हक्कु के नजदीक पहुंचा. मगर हक्कु के आंखो पर तो  दुष्टता सवार थी. हक्कु भेड़ों तथा उनके नादान बच्चों पर  ताबड़तोड़ काथ के छिठे (डंडे) बरसा रहा था. सीतलू ने हक्कु का पंजा पकड़ कर उसे पीछे की तरफ धकेल दिया. इससे पहले की हक्कु खुद को संभालता सीतलू अपनी भेड़ों को चौलाई के खेतों से बाहर निकाल कर मुईला टोप की तरफ बढ़ने  लगा.  हक्कू  की आंखें गुस्से से  लाल थी. जमीन पर गिरे हुए अपने ऊन के टोपे को सर पर रखते हुए, अपनी चोड़ी को आनन-फानन में लपेट कर वह सीतलू पर क्रोधित होकर बोला,  सीतलू तेरे भेड़ों ने  मेरे चौलाई के खेतों पर जो नुकसान किया है.  उसका हर्जाना तुझे  अवश्य देना पड़ेगा.  मैं तुझे छोड़ूंगा नहीं.  सीतलू ने विनयपूर्वक उत्तर दिया.  हक्कू, मुझे तेरा द...
मां, बचपन और सोनला गांव 

मां, बचपन और सोनला गांव 

किस्से-कहानियां
डॉ. अरुण कुकसाल (भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणी, देहरादून में रहते हैं. ‘कहीं भूल न जाये-साबी की कहानी’ किताब श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणीजी की आत्मकथा है. अपने बचपन के ‘साबी’ नाम को जीवंत करते हुये बेहतरीन किस्सागोई लेखकीय अंदाज़ में यह किताब हिमालिका मीडिया फाउण्डेशन, देहरादून द्वारा वर्ष-2015 में प्रकाशित हुई है.) ‘साबी, जीवन में कहां-कहां नहीं भटका और कैसे-कैसे खतरों का बचपन से बुढ़ापे तक सामना नहीं किया. मन-तन की भटकन और मृत्यु से भिडंत उसकी कहानी रही है. सोनला से नन्दप्रयाग, नन्दप्रयाग से देहरादून वहां से बरेली, श्रीनगर, कानपुर होते हुए मध्य प्रदेश और अन्ततः वापस देहरादून. देहरादून लगता है शारीरिक अटकन की अन्तिम कड़ी होगी. भटकनों की इस यात्रा में साबी का मन तो सोनला में ही अटका रहा. अपने गांव के कूड़े का बौंड, ओबरा, हाट्टि, तिबारी, गाड़ का मंगरा, धार का ...
…जरा याद करो कुर्बानी

…जरा याद करो कुर्बानी

स्मृति-शेष
कारगिल विजय दिवस (26 जुलाई) पर विशेष डॉ. मोहन चन्द तिवारी आज पूरे देश में कारगिल विजय दिवस की 21वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है.आज के ही दिन 26 जुलाई,1999 को जम्मू और कश्मीर राज्य में नियंत्रण रेखा से लगी कारगिल की पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमाए आतंकियों और उनके वेश में घुस आए पाकिस्तानी सैनिकों को मार भगाया था. उसी उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ष '26 जुलाई' का दिन ‘विजय दिवस’ के रूप में याद किया जाता है और पूरा देश उन वीर और जाबांज जवानों को इस दिन श्रद्धापूर्वक नमन करता है. भारतीय सेना का यह ऑपरेशन विजय 8 मई से शुरू होकर 26 जुलाई तक चला था. इस कार्रवाई में भारतीय सेना के 527 जवान शहीद हुए तो करीब 1363 घायल हुए थे. कारगिल के इस युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाने में उत्तराखंड के 75 जवानों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी. दो महीने से भी अधिक समय तक चले इस युद्ध में भारतीय सेना के वीर सपूतों न...
उत्तराखंड के अमर क्रातिकारी शहीद श्री देवसुमन 

उत्तराखंड के अमर क्रातिकारी शहीद श्री देवसुमन 

स्मृति-शेष
क्रातिकारी अमर शहीद श्री देवसुमन की पुण्यतिथि (25 जुलाई) पर विशेष डॉ. मोहन चन्‍द तिवारी “मां के पदों में सुमन सा रख दूं समर्पण शीश को” उपर्युक्त काव्य पंक्तियों के लेखक और   जन्मभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानी, क्रातिकारी जननायक, अमर शहीद श्री देव सुमन जी का आज बलिदान दिवस है. श्री देव सुमन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वे अमर शहीद हैं जिन्होंने न केवल अंग्रेजों का विरोध किया बल्कि टिहरी गढ़वाल रियासत के राजा की प्रजा विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए सत्याग्रह और अनशन द्वारा अपने प्राण त्याग दिए. श्री देव सुमन जी की पूरी राजनीति महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों से प्रभावित थी. “मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं जहां अपने भारत देश के लिए पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय में विश्वास करता हूं और मैं चाहता हूं कि महराजा की छत्रछाय...
जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...
अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

स्मृति-शेष
टिहरी बांध बनने में शिल्पकार समाज के जीवन संघर्षों का रेखांकन, साहित्यकार ‘बचन सिंह नेगी’ का मार्मिक उपन्यास 'डूबता शहर’ डॉ.  अरुण कुकसाल "...शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं. शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं. डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता. जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं.....चैतू सोच में डूब जाता है, उनका क्या होगा? आज तक रोजी-रोटी ही अनिश्चित थी, अब रहने का ठिकाना भी अनिश्चित हो रहा है.’’  (पृष्ठ, 9-10) टिहरी बांध बनने के बाद ‘उनका क्या होगा?’ यह चिंता केवल चैतू की नहीं है उसके जैसे हजारों स्थानीय लोगों की भी है. ‘डूबता शहर’ उपन्यास में जमनू, चैतू, कठणू, रूपा, रघु,...
राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

अल्‍मोड़ा
डॉ. मोहन चन्द तिवारी अभी हाल ही में 22, जुलाई, 2020 को जालली क्षेत्र के सक्रिय कार्यकर्त्ता और समाजसेवी भैरब सती ने अमरनाथ, ग्राम प्रधान जालली; मनोज रावत, ग्राम प्रधान ईड़ा; सरपंच दीन दयाल काण्डपाल, मोहन काण्डपाल, नन्दन सिंह, गोपाल दत, पानदेव व महेश चन्द्र जोशी आदि क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल की अगुवाई करते हुए जालली क्षेत्र के विकास और वहां उप तहसील के कार्यालय की स्थापना की मांग को लेकर द्वाराहाट तहसील के एसडीएम श्री आर के पाण्डेय से मुलाकात की और उन्हें ज्ञापन भी सौंपा है. जालली क्षेत्रवासियों की एक मुख्य मांग है कि वहां एक साधन संपन्न कार्यालय खोला जाए और तुरंत वहां डाटा आपरेटर की नियुक्ति की जाए, ताकि इस कोरोना काल की चरमराई हुई राज्य परिवहन व्यवस्था के दौर में स्थानीय लोगों को अपने खतोंनी की नकल प्राप्त करने और परिवार रजिस्टर, आय प्रमाण पत्र,स्थायी निवास पत्र, जातिपत...
मिलाई

मिलाई

किस्से-कहानियां
कहानी एम. जोशी हिमानी वह 18 जून 2013 का दिन था वैसे तो जून अपनी प्रचण्ड गर्मी के लिए हमेशा से ही बदनाम रहा है परन्तु उस वर्ष की गर्मी तो और भी भयावह थी पारा 46 के पार जा पहुँचा था ऐसी सिर फटा देने वाली गर्मी की दोपहर में माया बरेली से लखनऊ के लिए जनरल क्लास के डिब्बे में बैठ गई थी जनरल क्लास का वह उसका पहला सफर था वह कहाँ बैठी है किन लोगो के बीच में बैठी है आज उसका उसके लिए कोई महत्व नहीं रह गया था अपनी दाहिनी हथेली को उसने साड़ी के पल्लू से पूरी तरह से ढक लिया था बरेली जेल में मिलाई की मुहर ने जैसे उसे स्वयं गुनहगार बना दिया था. वह कनखियों से आस पास जानवरों की तरह ठुंसे हुए सहयात्रियों को कनखियों से देखती है उसे वे सारे लोग मिलाई के वक्त घंटो से इंतजार में बैठे कांतिहीन. गौरवहीन लोगों से लग रहे थे परन्तु उनमें से किसी की हथेली में मिलाई की मुहर नहीं दिख रही थी. किसी ने न अपनी हथेल...
हौंसलों की उड़ान

हौंसलों की उड़ान

संस्मरण
भारतमाता की सेवा में समर्पित यमुना घाटी के कई लाल ध्‍यान सिंह रावत ‘ध्‍यानी’ सीमान्त जनपद उत्तरकाशी का रवांई क्षेत्र जहां अपनी सांस्कृतिक विविधता प्राकृतिक सुन्दरता के लिए जग जाहिर है वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी इन सुदूरवर्ती गांवों से निकलने वाले नौजवान ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा कर समूचे देश  के साथ कंधे से कंधा मिला रहे हैं. इन सुदूर रवांई क्षेत्र की शांत वादियों में बसे गांव के होनहार नौनिहाल जब विभिन्न क्षेत्रों में अपनी कामयाबी की सूचना देते हैं तो इन पहाड़ों में बसने वाले सीधे-सादे जन मानस का मस्तिष्‍क भी पहाड़ सा ऊँचा हो जाता है. अखिल राणा की माँ कहती है कि अखिल अक्सर मुझे कहता था -‘‘माँ एक दिन मैं सेना में ऑफिसर बन के रहूंगा और देश  की सेवा करूंगा.’’ राष्‍ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में जहां उत्तराखण्ड राज्य देश  में अपना विशिष्‍ट स्थान बनाए है वहीं अब उ...
गोधनी ईजा छाँ कसि फाने: घूर..घवां..

गोधनी ईजा छाँ कसि फाने: घूर..घवां..

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—35 प्रकाश उप्रेती यह हमारे जीवन का वो किस्सा है, जो हर तीसरे और चौथे दिन घटता ही था. इसकी स्मृतियाँ कभी धुँधली नहीं होती बल्कि चित्र बन आँखों में तैरने लगती हैं. वो स्मृतियाँ हैं -'ईजा' (माँ) के 'छाँ  फ़ानने' की. मतलब कि छाँछ बनाने की. ईजा ने भैंस तो हमेशा रखी. कभी एक तो कभी दो, हाल के दिनों में तो चार भी थीं. इसलिए हर तीसरे-चौथे दिन छाँ फानती ही थीं. ईजा 'भतेर' (घर का ऊपर वाला हिस्सा) 'थुमी' (घर के बीच में धुरी के समान लगी मोटी लकड़ी) पर छाँ फानती थी. थुमी पर दो 'ज्योड़' (रस्सी) जिन्हें "नेतण" कहा जाता था, हमेशा बंधे रहते थे. ईजा उनमें 'रअडी' ( एक लंबी लकड़ी जिसके नीचे के सिरे पर तिकोना बनाया होता था) को फंसाकर 'कंटर' (कनस्तर) में छाँ फानती थीं. उसको बीचों-बीच में करना और बैलेंस बनाए रखना भी कला होती थी. तब घर की नई बहू की परीक्षा 'छाँ' फानना आता है...