जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम ‘लम्फू’ कहते थे. ‘लम्फू’ मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया.

दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक ‘छन’ (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम ‘गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), ‘भतेर’ (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान ‘गन्या’ (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार में बने ‘जॉ’ (छोटा सेल्फ जैसा) में रखा जाता था. यहाँ रखने से बाहर और भीतर दोनों तरफ रोशनी होती थी. इसी चीज को ध्यान में रखकर ही वो जगह बनाई भी गईं थीं.

शाम को लम्फू जलाने के बाद हम चूल्हे में चाय भी चढ़ा देते थे. ईजा छन से आकर , जब तक हाथ-पाँव धोती तब तक हम चाय तैयार करके बाहर ले आते थे. बाहर बैठकर सब साथ में चाय पीते. चाय खत्म होने के बाद ईजा कहतीं- “जाओ तुम आपण पढ़े हैं भतेर, लड़ें झन कया हां”.

शाम को लम्फू जलाने के बाद हम चूल्हे में चाय भी चढ़ा देते थे. ईजा छन से आकर , जब तक हाथ-पाँव धोती तब तक हम चाय तैयार करके बाहर ले आते थे. बाहर बैठकर सब साथ में चाय पीते. चाय खत्म होने के बाद ईजा कहतीं- “जाओ तुम आपण पढ़े हैं भतेर, लड़ें झन कया हां” (तुम अपना पढ़ने के लिए अंदर जाओ और लड़ाई मत करना). यह बोलकर ईजा गोठ खाना बनाने के काम में लग जाती और हम सभी भाई-बहन भतेर पढ़ने चले जाते थे.

भतेर बाकायदा एक बोरी बिछाते. लम्फू को ‘गन्या’ से नीचे उतार कर एक टिन के डिब्बे के ऊपर रख देते थे. लम्फू को लाने में कई बार वह बुझ जाता था. जिसके हाथ से भी बुझता वह तुरंत गोठ जाता और चूल्हे से ‘छिलुक’ (आग पकड़ने वाली लकड़ी) जला कर ले आता था. ईजा कहती थीं- ‘बुझे हेचे लम्फू’ (लैम्प बुझा दिया). हम तुरंत अपनी गलती हवा के सर मढ देते थे-“ईजा ऊ पॉनेल बुझी गो” (माँ वो हवा से बुझ गया). ईजा को कहते कि तुम बाहर ही खड़े रहना. बाहर के अंधेरे से डर लगता था. ईजा कई बार बाहर आती और कई बार गोठ से बोल देतीं- “जा.. जा.. मैं चाहे रह्यूं” (जा-जा मैं देख रही हूं). ईजा की आवाज के साथ ही हम भतेर को दौड़ लगा देते थे.

लम्फू मेरे तरफ कर, नहीं मेरे तरफ कर इसमें लड़ाई भी हो जाती थी. ईजा गोठ से आवाज लगातीं- “भतेरपन किकाट-भिभाट किले पाड़ि रहो”. ईजा की आवाज़ सुनते ही हम चुप हो जाते थे. फिर लिखना-पढ़ना शुरू हो जाता था. 

पढ़ने के लिए हम लम्फू के चारों ओर बैठ जाते थे. लगभग जमीन को छूता हमारा सर और मध्यम सी रोशनी लेकिन फिर भी काम चल ही जाता था. लम्फू मेरे तरफ कर, नहीं मेरे तरफ कर इसमें लड़ाई भी हो जाती थी. ईजा गोठ से आवाज लगातीं- “भतेरपन किकाट-भिभाट किले पाड़ि रहो” (अंदर हल्ला क्यों मचा रखा है). ईजा की आवाज़ सुनते ही हम चुप हो जाते थे. फिर लिखना-पढ़ना शुरू हो जाता था.

कभी-कभी तो झुके होने के कारण सर के बाल भी लम्फू की लौ से जल जाते थे. पहले तो पता नहीं चलता था पर जब बालों से ‘भड़ेन’ (बालों के जलने की बदबू) आने लगती थी तो पता चलता था. तब तक कुछ बाल जल चुके होते थे. उसके बाद तो कुछ देर बालों पर ही हाथ रहता था.

लम्फू की रोशनी इतनी कम होती थी कि उसको घेर कर बैठ जाने से पूरे भतेर में अंधेरा हो जाता था. हम में से कोई भी ‘दिहे’ (बाहर, देहरी ) की तरफ नहीं बैठना चाहता था. अंधेरा होने के कारण डर लगता था कि कहीं देहरी से आकर बाघ न ले जाए. कभी -कभी तो एक- दूसरे को डरा भी देते थे- “ऊ देख त्यर पच्छिन के छु” (वो देख तेरे पीछे क्या है).

भतेर से गोठ तब तक नहीं आते थे जबतक ईजा खाने के लिए आवाज न लगा दें. रोटी बनते ही ईजा “धात” (आवाज) लगाती थीं – ” रोट खेहें आवो रे” (रोटी खाने के लिए आओ). हम ईजा की धात का ही इंतजार कर रहे होते थे. कान में आवाज पड़ते ही ‘चट’ (तुरंत) किताब बंद, लम्फू अपनी जगह पर रखकर, भागे-भागे गोठ पहुंच जाते थे. ईजा वहीं से कहती- “अरामेल अया लफाईला” (धीरे-धीरे आना, गिरोगे). बाहर इतना अंधेरा होता था कि डर के मारे हम भाग कर ही आते थे.

गोठ में ईजा के साथ बैठकर रोटी खाते थे. लम्फू की रोशनी मुश्किल से ही सब्जी की कटोरी तक पहुंच पाती थी. फिर भी एक अभ्यास बन चुका था. हाथ अंधेरे में भी कटोरे में ही पड़ता था. कभी खाते हुए लम्फू बुझ जाता था तो ईजा कहती थीं-“यक खानी ड्यां अन्हारी हैं छ” (खाते समय ही अंधेरा होता है). बाद में वो अंधेरा दूसरे रूप में बढ़ता गया.

ईजा ने अब भी लम्फू की जगह, और लम्फू को जिंदा रखा है. वह आज भी तेज रोशनी की आदी नहीं हैं. घर में बिजली के बावजूद मध्यम रोशनी के बल्ब ही ईजा ने लगा रखे हैं. आज भी उनको वही रोशनी अच्छी लगती है जिसके घेरे से हम जगमगाती दुनिया में आ गए. ईजा वहीं, उसी अंधेरे में रह गईं. अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है, ईजा कि मैं….

लम्फू के बाद लालटेन, टेबल लम्फू, ‘गैस’ (पेट्रोमैक्स) और बिजली तक का सफर रोशनी के घेरे ने तय किया. पहाड़ में जैसे-जैसे रोशनी का घेरा बढ़ा वैसे-वैसे घरों में अंधेरे भी बढ़ने लगा. गाँव के गाँव बढ़ती रोशनी के बावजूद भी अंधेरे की भेंट चढ़ गए.

ईजा ने अब भी लम्फू की जगह, और लम्फू को जिंदा रखा है. वह आज भी तेज रोशनी की आदी नहीं हैं. घर में बिजली के बावजूद मध्यम रोशनी के बल्ब ही ईजा ने लगा रखे हैं. आज भी उनको वही रोशनी अच्छी लगती है जिसके घेरे से हम जगमगाती दुनिया में आ गए. ईजा वहीं, उसी अंधेरे में रह गईं. अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है, ईजा कि मैं….

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *