- डॉ. अरुण कुकसाल
(भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणी, देहरादून में रहते हैं. ‘कहीं भूल न जाये-साबी की कहानी’ किताब श्री गोविन्द प्रसाद मैठाणीजी की आत्मकथा है. अपने बचपन के ‘साबी’ नाम को जीवंत करते हुये बेहतरीन किस्सागोई लेखकीय अंदाज़ में यह किताब हिमालिका मीडिया फाउण्डेशन, देहरादून द्वारा वर्ष-2015 में प्रकाशित हुई है.)
‘साबी, जीवन में कहां-कहां नहीं भटका और कैसे-कैसे खतरों का बचपन से बुढ़ापे तक सामना नहीं किया. मन-तन की भटकन और मृत्यु से भिडंत उसकी कहानी रही है. सोनला से नन्दप्रयाग, नन्दप्रयाग से देहरादून वहां से बरेली, श्रीनगर, कानपुर होते हुए मध्य प्रदेश और अन्ततः वापस देहरादून. देहरादून लगता है शारीरिक अटकन की अन्तिम कड़ी होगी. भटकनों की इस यात्रा में साबी का मन तो सोनला में ही अटका रहा. अपने गांव के कूड़े का बौंड, ओबरा, हाट्टि, तिबारी, गाड़ का मंगरा, धार का स्कूल, ठौंका का डांडा, धार का पोंगडा, छुणक्यालीं दाथली, पीतल की तमाली, तांबे की गागर, लामसिंग्या बल्द, बचुली भैंसी-कुछ भी नहीं भूला. नौकरी और जीवन की अनेक व्यस्तताओं से भी मन-पंछी फिर-फिर कर सोनला की तिबारी में ही पहुंच जाता है. आज जीवन के घाम का छैल खोला की बांजणी पार करने को है, परन्तु ‘ज्यूं’ है कि वहीं ‘रींग’ रहा है. हां ! अब इस ‘ज्यूं’ की रींगाट में ‘बै’ की याद धीरे-धीरे प्रबल होती जा रही है. साबी की ‘बै’, ‘बचपन’ और उसका ‘गांव’ ही उसके ‘ज्यूं’ के जहाज का अन्तिम पड़ाव लगता है.’(पृष्ठ-96)
जीवन की नियति देखिए कि उम्र, अनुभव, ज्ञान, हुनर, पद-प्रतिष्ठा और सम्पन्नता के ऊंचे पड़ाव पर पहुंच कर भी बचपन को फिर से पाने, उसमें जीने या उसे मात्र स्पर्श करने की ललक बढ़ती जा रही है. यह कामना हममें तब तक रहेगी, जब तक जीवन है.
उक्त कहानी साबी की ही नहीं है. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े उन सभी व्यक्तित्वों की है, जो अपने गांव से आधुनिक शिक्षा और सम्मानजनक जीवकोपार्जन को हासिल करने के लिए बाहरी दुनिया की ओर निकले. भौगोलिक विकटताओं, शैक्षिक पिछेड़ेपन और आर्थिक अभावों को पीछे धकेलते हुए वे जीवन और जीविका के क्षेत्र में विख्यात हुए. उनके जीवन को शिक्षा और आर्थिकी ने समृद्ध जरूर किया. लेकिन बाहरी जीवन की नित्य नई जरूरतों, अपेक्षाओं और दायित्वों के भ्रमजाल ने उन्हें जीवन-भर अपने में ही समेटकर रखा. इस जीवनीय प्रक्रिया में आज वे अपने मूल गांव, इलाके और जन-जीवन से बेगाने हुए. जिस समाज और क्षेत्र से वे बाहर निकले थे, वो उनके जीवनीय नेपथ्य में विलीन हो गया. परन्तु मन के नाजुक कोने में समाई अनगिनत उनकी यादें आज भी तरो-ताजा हैं.
साबी की यादें नितांत व्यक्तिगत हैं. परन्तु साबी इन यादों के खजाने को सार्वजनिक करके नये जमाने को यह संदेश देना चाहता है कि आज के इस सुविधाजनक जीवन की नींव में छुपी उसकी पीढ़ी के त्याग और संघर्ष को नजर-अंदाज न किया जाए. उसे डर है कि नये जमाने की चकाचौंध उसकी पीढ़ी के योगदान को कहीं भूल न जाये, इसीलिए साबी उसे आने वाले कल को बताने के लिए बेताब है.
यह किताब साबी के बचपन की उसी बेताबी को खूबसूरत अंदाज में बयां करती है. खूबसूरती इतनी अप्रीतम कि उसमें भाषा की जगह भाव ही भाव हैं. वैसे भी मां और बच्चे के बीच भाषा का क्या काम ? वहां भाषा को तो चुप रहना ही होता है. मूलतः यह किताब मां, बचपन और सोनला गांव से साबी नाम के बच्चे का वर्षों बाद का आपसी मिलन है. इस मिलन में मां और बचपन अब है नहीं. साथ ही गांव और साबी भी तो वैसे नहीं रहे. गांव और साबी अपने आप से ही दूर हो गए हैं. जीवन में यह क्यों, कब और कैसे घटित हुआ, सोनला गांव एवं उसके साबी को भी पता नहीं चला. आज ‘गांव के लिए साबी’ और ‘साबी के लिए गांव’ अन्जाना है. पर वो बचपन की यादें हैं कि रोज चली आती हैं, वक्त-वेवक्त साबी से उसके सिरहाने मिलने, बतियाने और उसको सहलाने. ताकि जीवन की नर्म नमी जीवंत रहे. तभी तो कष्टप्रद अतीत की याद भी आज साबी को जीवन का परम आंनद देती हुई लगती है. एक बानगी देखिए-
‘‘….चारों तरफ हृंयू ही हृंयू था….साबी की बै ने कहा ‘मास्टरजी को बचन दिया है, जाना तो पडेगा ही’ फिर कहा ‘अच्छा फूक, रण दे.’ साबी ने सुलार बिट्याये और नांगा खुटा ही चल दिया. अपणा खोला का गौळया पार कर श्यूराज करौं के खोळा में पहुंचा ही था कि खड़-खड़ कूड़ा की पठाल पड़ी और खचाक उसके सामने गिरी. यदि एक-दो फिट आगे होता तो पठाल गच्च मुण्ड में पड़ती, तो आज यह किताब ही नहीं बनती. अपणा खोला से साबी की बै देख रही थी. वह जोर से भट्याई, ‘साबी ! न जा, वापस ऐजा’. श्यूराज की बै-चटोल्या बौ भी भैर आई और दौड़ कर साबी को क्वौळी में उठाकर बोली, ‘छ्वट्या बामण कहां जा रहा है’, परन्तु साबी उसकी क्वौळी से उतर कर, संस्कार, सीख और बचन से प्रेरित आगे बढ़ गया. कुछ दूर गया ही था कि चड़ा ! चड़ हृयूं के भार से बुड्या तिमला का फांगा साबी की पीठ को छूते हुए धड़ाम से गिर गया. साबी छोटा ही तो था. पूष की रात, पठाल का गिरना, तिमला का फांगा का टूटना, भूत-पिचाश का डर, ठंड से अबोंकी जाना, नन्हीं जान सहन नहीं कर पाया. श्यूराज करौं के ओखला के नीचे गौळया से रड़कर दरमानू करौं के बाड़ा में बेहोश होकर गिर गया. बै और चटोल्या बौ ने चट से उठा लिया- परन्तु घर के बजाय मास्टरजी के घर पर ही गये. साबी को जब होश आया तो फज़ल की झंक-मुक दिख रही थी. उसने पास में बै, चटोल्या बौ और मास्टरजी के अश्रुपूरित चेहरों को देखा….उसने बताया कि मुंड में झन्झन्झाट हुआ. स्वीणा सरीखा आया और स्वीणा में ऐड़ी-आंछरी आई, ‘बै’ सफेद कपड़े पहने थी और उसके दोनों हाथों के बगल में पंख लगे थे. ‘बै’ ने साबी को प्यार किया अपने पंखों पर बैठाया और कहीं दूर सर्ग में ले गयी…साबी आज भी उस हृयूंदाली रात को याद करते रहता है…’’ (पृष्ठ-79)
वास्तव में, साबी की कहानी 20वीं शताब्दी के पहाड़ी युवाओं के जीवनीय संघर्ष के जज्ब़े की कहानी है. साथ ही सांस्कृतिक परिवेश और जड़ों से दूर हुए व्यक्ति की मनोदशा का आत्म-व्याख्यान है. यह किताब हमें उन दुर्गम और घुमावदार पगडंडियों की ओर वापस ले जाती है, जिन पर चल कर हमारे अग्रजों ने जीवन में पद-प्रतिष्ठा के चरम को हासिल किया है.
‘ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं…यह मथुरा कंचन की नगरी मनिमुत्ताहल जाही’ जैसे चरम वियोग के भाव इस किताब में हैं. जब आदमी बहुत भाव-विभोर होता है, तो उसकी अभिव्यक्ति के स्वर मातृभाषा के कलेवर में ही बाहर आते हैं. साबी की कहानी भी उसकी मातृभाषा गढ़वाळी के रंग-रूप में उद्घाटित हुई है. इस किताब की सबसे बड़ी खूबी यही है कि लेखक ने अभिव्यक्ति के प्रवाह को सभी बंधनों से मुक्त कर दिया है. तभी तो साबी उन्मुक्त और निश्चल भाव से अपनी कथा-व्यथा को कह पाया है. उसके पास अपनी भावनाओं को सबसे बेहतर तरीके से बताने का यही माध्यम था. यही नहीं मैठाणीजी ने इन ठेठ गढ़वाळी शब्दों और संबोधनों का कहीं रूपान्तरण भी नहीं किया है. तभी तो उनके गांव की मिट्टी की ताजगी की खुशबू और मौलिकता से पाठक किताब के विराम तक आनंदित होता रहता है.
वास्तव में, साबी की कहानी 20वीं शताब्दी के पहाड़ी युवाओं के जीवनीय संघर्ष के जज्ब़े की कहानी है. साथ ही सांस्कृतिक परिवेश और जड़ों से दूर हुए व्यक्ति की मनोदशा का आत्म-व्याख्यान है. यह किताब हमें उन दुर्गम और घुमावदार पगडंडियों की ओर वापस ले जाती है, जिन पर चल कर हमारे अग्रजों ने जीवन में पद-प्रतिष्ठा के चरम को हासिल किया है. लेकिन जीवनीय सफलता से मिले सुख और सुविधाओं की ओट में कुछ ऐसा है जो निरंतर छूटता गया है. जीवन की नियति देखिए कि उम्र, अनुभव, ज्ञान, हुनर, पद-प्रतिष्ठा और सम्पन्नता के ऊंचे पड़ाव पर पहुंच कर भी बचपन को फिर से पाने, उसमें जीने या उसे मात्र स्पर्श करने की ललक बढ़ती जा रही है. यह कामना हममें तब तक रहेगी, जब तक जीवन है. परन्तु जीवन के उस स्वर्णिम अतीत और सुविधायुक्त वर्तमान के बीच की लकीरें गहरी हो गई है. इन लकीरों से पार पाना संभव नहीं है. परन्तु आदमी के ‘मन का हंस’ तो आज भी यही कहता है ‘जैसे उडि जहाज कु पंछी, पुनि-पुनि जहाज पै आवे’. यही जीवन की गति और नियति है.
(लेखक एवं प्रशिक्षक)