Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
पुण्यतिथि (20 मई) पर विशेष चारु तिवारी  मेरी ईजा स्कूल के दो मंजिले की बड़ी सी खिड़की में बैठकर रेडियो सुनती हुई हम पर नजर रखती थी. हम अपने स्कूल के बड़े से मैदान और उससे लगे बगीचे में ‘लुक्की’ (छुपम-छुपाई) खेलते थे. जैसे ही ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता ईजा हमें जोर से ‘धात’ लगाती. ‘उत्तरायण,’ ‘गिरि-गुजंन’ और ‘फौजी भाइयों के लिये’ कार्यक्रम के हम नियमित श्रोता थे. ईजा इस कार्यक्रम के लिये हमारा वैसा ही ध्यान रखती जैसा खाने-सोने का. उन दिनों बहुत बार एक गीत रेडियो में आने वाला हुआ- ‘ओ परुआ बौज्यू चप्पल क्ये ल्याछा यस, फटफटानी होनि चप्पल क्ये ल्याछा यस.’ शेरदा 'अनपढ़' के गीत-कवितायें सुनते हुये हम बड़े हुये.शायद यह 1982-83 की बात होगी. पता चला कि चौखुटिया में एक कवि सम्मेलन या सांस्कृतिक कार्यक्रम होने वाला है. बाबू ने कहा वहां चलेंगे. लेकिन पता नहीं क्या हुआ पिताजी नहीं आ पाये. माइ...
पलायन  ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है

पलायन  ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है

उत्तराखंड हलचल
भाग-एक पहले कृषि भूमि तो बचाइये! चारु तिवारी  विश्वव्यापी कोरोना संकट के चलते पूरे देश में लॉक डाउन है. अभी इसे सामान्य होने में  समय लगेगा. इसके चलते सामान्य जन जीवन प्रभावित हुआ है. देश में नागरिकों  का एक बड़ा तबका है जो अपनी रोटी रोजगार के लिए देश के महानगरों या देश से बाहर रह रहा है. उसके सामने अब अपने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया है. स्वाभाविक रूप से उसका सबसे सुरक्षित ठिकाना अपना गांव-घर ही है. यही कारण है बड़ी संख्या में  शहरों से लोग अपने-अपने गांव जा रहे हैं. उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है, जहां  से पिछले तीन-चार दशकों  से पलायन तेज हुआ है. राज्य बनने के दो दशक बाद तो यह रुकने की बजाय बढ़ा है. कोरोना के चलते बड़ी संख्या में लोग पहाड़ लौटे हैं. लोगों  को लगता है कि इसी बहाने लोग गांव में  रहने का मन बनायेंगे. सरकार भी इसे एक अवसर मान रही है. उत्तराखंड ग्राम विकास  एवं पलायन आ...
अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का 'भाग' (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही 'जानहर' चलाकर अनाज पीस लिया जाता था. पहाड़ अधिकतर चीजों में आत्मनिर्भर था. उसके पास अपनी जरूरतों के हिसाब से संसाधन थे और ये समझ भी कि उनका सर्वोत्तम उपयोग किस तरह करना है. तकनीक और मशीनों से बहुत दूर इस समझ के बलबूते ही जीवन चलता था. घर में रोज अम्मा (दादी) जानहर चलाती थीं. अम्मा एक बार में दो समय की रोटी भर के लिए ही पीस पाती थीं. मगर जब अम्मा और ईजा(मां) साथ मिलकर पीसते थे तो फिर कुछ आटा अगले दिन के लिए भी बच जाता था. यह तब ही होता था जब बाहर का कोई काम न हो. नहीं तो ईजा बाहर के कामों में ही लगी रहती थीं. जानहर से बड़ी आवाज ...
मोटा बांस भालू बांस

मोटा बांस भालू बांस

साहित्यिक-हलचल
जे. पी. मैठाणी सड़क किनारे उस मोटे बांस की पत्तियों को तेज धूप में मैंने, नीली छतरी के नीचे मुस्कुराते, हिलते-डुलते, नाचते-गाते देखा। ये बांस बहुत उपयोगी है- वैज्ञानिक नाम इसका डेंड्राकैलामस जाइगेंटिस हुआ ये पोएसी परिवार से ताल्लुक रखता है। आम बोलचाल में इसे मोटा बांस कहते हैं, सिक्किम की तरफ भालू बांस, असम में वोर्रा, अरूणाचल में माइपो, मणिपुर में मारिबोल, नागालैण्ड में वारोक और मिजोरम में राॅनल कहाजाता है। बांस का जड़ तंत्र, मिट्टी को बांधे रखता है जब बहुत पहले प्लास्टिक और पाॅलिथीन नहीं था इसके तनों में रखा जाता था अनाज पानी लाने ले जाने के लिए किया जाता था उपयोग। इसके नये कंद से बनाई जाती है सब्जी और एक पारंपरिक उम्दा किस्म का अचार। आज नवीन के युग में शौकिया लोग इसमें- फूल-पौधे उगाने लगे हैं। बनाये जाने लगे हैं बांस से- बोर्ड, फर्नीचर, कागज, कपड़े, मोटे...
किस्सा टूटी तख्ती का

किस्सा टूटी तख्ती का

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—3 रेखा उप्रेती टूटे हुए मूँठ वाली भारी-भरकम उस तख्ती का पूरा इतिहास तो ज्ञात नहीं, पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि पाँच भाई-बहनों को अक्षर-ज्ञान करा, जब वह मुझ तक पहुँची, तो घिस-घिसकर उसके चारों किनारे गोल हो चुके थे. पकड़ने वाली मूँठ न रहने के कारण उसके दोनों तरफ छेद करवाकर एक मजबूत पतली रस्स्सी बाँध दी गई थी, जिससे उसे कन्धे पर लटकाकर पाठशाला तक की चढ़ाई पार की जा सके. तख्ती, जिसे हम ‘पाटी’ कहते थे, उसके दो सहयोगी भी थे- सफेद 'कमेट' से भरी दवात और बाँस की कलम ... कक्षा दो तक निरक्षरता से लड़ने के लिए यही हमारे अस्त्र-शस्त्र थे. तो मेरे लिए ज्ञान की पहली सीढ़ी बनी वह पारिवारिक तख्ती, बसंत-पंचमी को ‘पाटी-पूजन’ के बाद मेरे सुपुर्द कर दी गई. अक्षत-फूल से सजी उस पाटी पर 'अ' लिखकर मैंने अपनी औपचारिक पढ़ाई प्रारम्भ की. 'प्राईमरी पाठशाला, माला' में पहले दिन तख्ती लटकाकर...
नाराज़ होने की जगह ‘पहाड़वाद’ की बात क्यों नहीं करते जनाब?

नाराज़ होने की जगह ‘पहाड़वाद’ की बात क्यों नहीं करते जनाब?

उत्तराखंड हलचल
ललित फुलारा लगातार 'पहाड़वाद' के सवाल को उठा रहे हैं. दिल्ली/एनसीआर में बड़े ओहदों पर बैठे पहाड़ियों की अपनों के प्रति निष्क्रियता और पहाड़ी अस्मिता पर जोरदार कटाक्ष कर रहे हैं. इसे लेकर विवाद भी हो रहा है. युवा समर्थन कर रहे हैं तो कई लोगों को उनकी यह बातें चुभ भी रही है. हिमांतर ने इसी विषय पर उनसे पूछा था जिसके जवाब में उन्होंने हमें यह लेख लिखकर दिया है- ललित फुलारा प्रिय साथियों/पहाड़ियों... जब मैं स्नातकोत्तर का विद्यार्थी था, तो हर तरह के 'वाद' का विरोध करता था. मुझे लगता था ये चीजें हमारे भीतर हर तरह की कट्टरता को बढ़ावा देती हैं. भाषाई अस्मिता/क्षेत्रीय अस्मिता का धुर विरोधी भी रहा. अपनी सत्ता के भाव का अर्थ ही है, अपने भीतर अहंकार का भाव लाना, श्रेष्ठता का बोध होना. पर भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता से मुझे बेहद लगाव और प्रेम रहा.... जब मैं 'पहाड़वाद' कह रहा हूं, तो आपक...
पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

पिठाड़ी—पिदें की बाकर्या अर बाकर्यों कु त्यार

साहित्‍य-संस्कृति
लोक पर्व दिनेश रावत वर्ष का एक दिन! जब लोक आटे की बकरियाँ बनाते हैं. उन्हें चारा—पत्ती चुंगाते हैं. पूजा करते हैं. धूप—दीप दिखाते हैं. गंध—अक्षत, पत्र—पुष्ठ चढ़ाते हैं. रोली बाँधते हैं. टीका लगाते हैं. अंत में इनकी पूजा—बलि देकर आराध्य देवी—देवताओं को प्रसन्न करते हैं. त्यौहार मनाते हैं, जिसे 'बाकर्या त्यार' तथा संक्रांति जिस दिन त्यौहार मनाया जाता है 'बाकर्या संक्रांत' के रूप में लोक प्रसिद्ध है. बाकर्या त्यार की यह परम्परा उत्तराखण्ड के सीमान्त उत्तरकाशी के पश्चितोत्तर रवाँई में वर्षों से प्रचलित है. जिसके लिए लोग चावल का आटा यानी 'पिठाड़ी' और उसकी अनुपलब्धता पर 'पिदें' यानी गेहूँ के आटे को गूंथ कर उससे घरों में एक—दो नहीं बल्कि कई—कई बकरियाँ बनाते हैं, जिनमें 'बाकरी', 'बाकरू' अर्थात नर, मादा बकरियों के अतिरिक्त 'चेल्क्यिा' यानी ' मेमने' भी बनाए जाते हैं. बाकर्या त्यार की...
काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—5 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'कोरैण' की. कोरैण माने कोरने वाला. लुप्त होने के लिए 'ढिका' (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है. फिर हम शायद ही इसे देख पाएं. उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण. अब तो इसके कई स्थानापन आ गए हैं. कोरैण भी धीरे-धीरे पहाड़ के उन घरों की तरह पुरानी हो गयी है जो आधुनिकता की भेंट चढ़े. आधुनिकता और आराम ने कई पुरानी चीजों को ढहाया और ले आया नये व आसान विकल्प. लकड़ी के हत्थे और लोहे की पत्ती से बनी कोरैण अलग-अलग आकार की होती थी. इसका आगे का हिस्सा मुड़ा होता था. उस मुड़े हुए हिस्से के 'कर्व' से तय होता था कि यह पतली वाली कोरैण है या मोटी वाली. लोगों द्वारा अलग-अलग चीजों को कोरने के लिए अलग-अलग कोरैण का इस्तेमाल किया जाता था. "ले य काकड़ कोर दे" (ये ककड़ी कोर दे). हम  ईजा को कहते थे 'डाव से कोरैण' निकाल दे. ईजा निक...
एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा-दुनिया ने माना, हमने भुलाया

एक घुमक्कड़ की गौरव गाथा-दुनिया ने माना, हमने भुलाया

संस्मरण
पंडित नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर, 1830-1 फरवरी, 1895) डॉ. अरुण कुकसाल 19वीं सदी का महान घुमक्कड़-अन्वेषक-सर्वेक्षक पण्डित नैन सिंह रावत (सन् 1830-1895) आज भी ‘‘सैकड़ों पहाड़ी, पठारी तथा रेगिस्तानी स्थानों, दर्रों, झीलों, नदियों, मठों के आसपास खड़ा मिलता है. लन्दन की रॉयल ज्‍यॉग्रेफिकल सोसायटी, स्‍टॉटहोम के स्वेन हैडिन फाउण्डेशन, लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी, कलकत्ता के राष्ट्रीय पुस्तकालय, दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार, देहरादून के सर्वे ऑफ इण्डिया के दफ्तरों में नैन सिंह, अन्य पण्डितों, मुन्शियों तथा उनके तमाम गौरांग साहबों को अर्से से शोधार्थी अभिलेखों में विराजमान देखते रहे हैं.’’ (एशिया की पीठ पर, पण्डित नैन सिंह रावत, पृष्ठ-21) पण्डित नैन सिंह रावत का जन्म उत्तराखंड में जोहार इलाके के गोरी नदी पार भटकुड़ा गांव में 21 अक्टूबर, 1830 को हुआ था. उनका पैतृक गांव मिलम था. उस दौरा...
हिमालय के साथ चलने वाला व्यक्तित्व

हिमालय के साथ चलने वाला व्यक्तित्व

संस्मरण
राजेन्द्र धस्माना की पुण्यतिथि (16 मई) पर विशेष चारु तिवारी उम्र का बड़ा फासला होने के बावजूद वे हमेशा अपने साथी जैसे लगते थे. उन्होंने कभी इस फासले का अहसास ही नहीं होने दिया. पहाड़ के कई कोनों में हम साथ रहे. एक बार हम उत्तरकाशी साथ गये. रवांई घाटी में. भाई शशि मोहन रावत 'रवांल्टा' के निमंत्रण पर. पर्यावरण दिवस पर उन्होंने एक आयोजन किया था नौंगांव में. हमारे साथ बड़े भाई और कांग्रेस के नेता पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय भी थे. रास्ते भर उन्होंने यमुना घाटी के बहुत सारे किस्से सुनाये. उन्होंने यमुना पुल की मच्छी-भात के बारे में बताया. खाते-खाते मछली के कई प्रकार और उसे बनाने की विधि भी बताते रहे. यहां की कई ऐतिहासिक बातें, लोकगाथाओं, लोककथाओं एवं लोकगीतों के माध्यम से कई अनुछुये पहलुओं के बारे में बताते रहे. एक बार हम लोग टिहरी जा रहे थे. श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर. यह आयोजन मैंने ह...