Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
चिपको: खेतिहर देश में खेल नहीं खेत जरुरी  हैं…

चिपको: खेतिहर देश में खेल नहीं खेत जरुरी  हैं…

पर्यावरण
प्रकाश उप्रेती चिपको आंदोलन कुछ युवकों द्वारा ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ बनाने की कहानी से शुरू होता है. चिपको के दस साल पहले कुछ पहाड़ी नौजवानों ने चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में ‘दशौली ग्राम स्वराज्य संघ’ बनाया. जिसका मकसद था वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार और जंगल की लकड़ियों से खेती-बाड़ी के औज़ार बनाना . यह गाँव में एक प्रयोग के बतौर था . 1972 -73 के लिए उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ कला केंद्र को अंगू के पेड़ देने से इनकार कर दिया . गाँव वाले इस हल्की और मजबूत लकड़ी से खेती-बाड़ी के औज़ार और हल बनाते थे  गाँव के लोगों को इससे कोई शिकायत नहीं थी कि अंगू के पेड़ से खेलों का सामान बने . वो तो केवल इतना चाहते थे कि “पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाएँ because और फिर खेल की. एक खेतिहर देश में यह माँग  नाजायज़ भी नहीं थी”[1] लेकिन सरकार को...
लोक के रंग में रंगी कुमाऊं की होलियां

लोक के रंग में रंगी कुमाऊं की होलियां

लोक पर्व-त्योहार
चन्द्रशेखर तिवारीउत्तराखण्ड के अनेक पर्व व त्यौहारों ने स्थानीय गीत, नृत्य, गायन और संगीत को जन्म देकर यहां की सांस्कृतिक परम्परा को समृद्ध करने का कार्य किया है. यहां के पर्व त्यौहारों में धर्म, आस्था और संस्कृति का अद्भुत संगम तो दिखायी ही देता है साथ ही साथ इनमें सामूहिक सहभागिता, लोक जीवन की सुखद कामना और प्रकृति के साहचर्य में रहते हुए उसके प्रति संरक्षण की भावना भी परोक्ष तौर पर परिलक्षित होती है. उत्तराखण्ड खासकर कुमाऊं अंचल में मनाई जाने वाली होली भी कुछ ऐसी विशिष्टताओं के लिए जानी जाती है. शिशिर ऋतु के अवसान होते ही सम्पूर्ण पहाड़ में बसंत की सुगबुगाहट होने लगती है. ऊंचे शिखरों में खिले लाल बुरांश के फूल पहाड़ के लोगों को बसन्त आगमन की सूचना देने लगते हैं. गुलाबी ठण्डी बयार में सीढ़ीदार खेतों में फूली सरसों इठलाने लगती है. आंगन के आस-पास खडे़ आडू-खुबानी व पंय्या के पेड़ जहां सफेद...
उत्तराखण्ड में कण्डाली की खेती हो सकती है रोजगार का सशक्त साधन

उत्तराखण्ड में कण्डाली की खेती हो सकती है रोजगार का सशक्त साधन

अभिनव पहल
लेख एवं शोध जे.पी. मैठाणीउत्तराखण्ड में प्रमुखतः दो प्रकार की कण्डाली पाई जाती है, 400 मीटर से 1400 मीटर तक की ऊँचाई तक उगने वाली सामान्य कण्डाली जिसे बिच्छू घास या बिच्छू बूटी भी कहते हैं। because डांस कण्डाली का वानस्पतिक नाम Girardinia heterophylla जिरार्डिनिया हैट्रोफाइला या Girardinia diversifolia जिरार्डिनिया डाइवर्सिफोलिया है। जबकि सामान्य कण्डाली का वानस्पतिक नाम Dioca urtica डायोका because अर्टिका है। कण्डाली की कोमल पत्तियों और शीर्ष वाले भाग को जिन पर तेज चुभने वाले कांटे होते हैं। और शरीर पर लगने से बेहद जलन होती है। इसका प्रयोग उत्तराखण्ड में सब्जी, काफली बनाने में किया जाता है। (यह आयरन का प्रमुख स्रोत है।)यही नहीं कोरोना लॉकडाउन के दौरान कण्डाली because चाय के निर्माण और प्रयोग पर कई अभिनव प्रयास पूरे प्रदेश में हुए हैं और सामान्य कण्डाली रोजगार का अच्छा साधन बनक...
आई लव स्पैरो- मुझे गौरेयों से प्यार है

आई लव स्पैरो- मुझे गौरेयों से प्यार है

पर्यावरण
विश्व गौरेया दिवस पर विशेषअनीता मैठाणीएक सयानी गौरेया- हमारी चीं-चीं, चूं-चूं के बीच आज ये क्या मच-मच लगी है इंसानों की, कि जिसे देखो अपना एंड्राॅयड फोन लिए घर के आगे पीछे घूम रहा है कि कहीं हम दिख भर जाएं क्लिक, क्लिक, क्लिक, और वो सोशल मीडिया में दोस्तों के बीच शेखी बघार कर पोस्ट डाल सके कि ये देखो साहब हम भी ठहरे बड़े वाले प्रकृति प्रेमी, पर्यावरणविद् और गौरेया के पक्षधर। एक दूसरी गौरेया- मुझे लगता है इसमें हमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए, चाहे जो हो इन दशकों में उन्हें कम से कम हमारे अस्तित्व की चिंता तो हुई।एक बेबी गौरेया- हाँ यही मैं भी कह रही हूँ लेने दो उन्हें हमारी फोटू। कौन सा रोज-रोज लेते हैं कोई हमारी फोटू। कहकर छुटकी ढाई सेेंटीमीटर की मुस्कान मुस्कुरा दी। और साथ में एक दूसरा बेबी गौरेया भी अपने पोपले मुंह से खी-खी कर पेट पकड़ कर हंस पड़ा।एक सयाना चिड़ा- कुछ गं...
देश-दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा हुआ हो- पंड़ित, क्षत्रीय और शिल्पकार का सफल संयुक्त परिवार

देश-दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा हुआ हो- पंड़ित, क्षत्रीय और शिल्पकार का सफल संयुक्त परिवार

टिहरी गढ़वाल
डॉ. अरुण कुकसालउत्तराखण्ड में सामाजिक चेतना के अग्रदूत 'बिहारी लालजी' के 18 मार्च, 2021 को बूढ़ाकेदार आश्रम में निधन  होना एक युग नायक का हमारे सामाजिक जीवन से प्रस्थान करना है.टिहरी गढ़वाल जनपद की भिलंगना घाटी में धर्मगंगा और बालगंगा के संगम पर है बूढ़ाकेदार (पट्टी-थाती कठूड़). समुद्रतल से 1524 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बूढ़ाकेदार so कभी गंगोत्री - केदारनाथ पैदल मार्ग का प्रमुख पड़ाव था. यह क्षेत्र नाथ संप्रदाय से प्रभावित रहा है. ‘गुरु कैलापीर’ इस क्षेत्र का ईष्टदेवता है. यहां बुढाकेदारनाथ, राजराजेश्वरी और बालखिल्येश्वर के प्राचीन मंदिर हैं.टिहरी गढ़वाल यह सर्वमान्य हक़ीक़त है कि जातीय भेदभाव से आज भी हमारा समाज नहीं उभर पाया है.  समय-समय पर जागरूक लोगों ने इसके लिए प्रयास जरूर किए पर कमोवेश आज भी because हमारा समाज इस मुद्दे पर सदियों पूर्व की यथास्थिति में वहीं का वहीं ठिठका हुआ ...
छत्तीसगढ़ : पौराणिक काल का कौशल प्रदेश…

छत्तीसगढ़ : पौराणिक काल का कौशल प्रदेश…

ट्रैवलॉग
बिहाय के पकवान मंजू दिल से… भाग-11मंजू कालाभांवर परत हे, भांवर परत हे हो नोनी दुलर के, so हो नोनी दुलर के होवत हे दाई, मोर but रामे सीता के बिहाव होवत हे दाई, मोर because रामे सीता के बिहाव एक भांवर परगे, because एक भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के अगनी देवता दाई, because हाबय मोर साखी अगनी देवता दाई, because हाबय मोर साखी दुई भांवर परगे, because दुई भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के गौरी गनेस दाई, because हाबय मोर साखी गौरी गनेस दाई, because हाबय मोर साखी तीन भांवर परगे, तीन भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because हो नोनी दुलर के देवे लोके दाई, because हाबय मोर साखी देवे लोके दाई, because हाबय मोर साखी चार भांवर परगे, चार भांवर परगे हो नोनी दुलर के, because दाई नोनी दुलर के दुलरू के नोनी, because तोर अंग झन डोलय दुलरू के नोनी...
आब कब आलै ईजा…

आब कब आलै ईजा…

किस्से-कहानियां
डॉ. रेखा उप्रेती ‘‘भलि है रै छै आमाऽ...’’ गोठ के किवाड़ की चौखट पर आकर खड़ी आमा के पैरों में झुकते हुए हेम ने कहा. ‘‘को छै तु?’’ आँखें मिचमिचाते हुए पहचानने की कोशिश की आमा ने... ‘‘आमा मी’’ हेम... ‘‘को मी’’... ‘‘अरे मैं हेम... तुम्हारा नाती..’’ आमा कुछ कहती तभी बाहर घिरे अँधेरे से फिर आवाज आयी- ‘‘नमस्ते अम्मा जी!’’ उत्तराखंड ‘‘आब तु कौ छै?’’ आमा की खीझती-सी आवाज पर हेम को जोर से हँसी आ गयी. ‘‘भीतर तो आने दे आमा , बताता हूँ. हेम ने आमा को अपने अंकवार में ले गोठ की ओर ठेला. उत्तराखंड गोठ में जलते चूल्हे के प्रकाश में हेम ने देखा, तवा चढ़ा हुआ है और एक भदेली में हरी साग.. ‘‘अरे, तेरा खाना बन गया आमा... बहुत भूख लगी है.’’ उत्तराखंड ‘‘पैली ये बता अधरात में काँ बट आ रहा तू और य लौंड को छू त्येर दगड़?’’ आमा ने गोठ के फर्श पर दरी बिछाते हुए कहा... फिर कुछ सोचते हुए बोली  ‘‘ भीतेर हिटो फ...
प्रयोग ही परिवर्तन के संवाहक बनेगें

प्रयोग ही परिवर्तन के संवाहक बनेगें

साहित्‍य-संस्कृति
इन्‍द्र सिंह नेगीये प्रयोग कितना सफल-असफल होता है ये भविष्य के गर्भ में है लेकिन चलना शुरू करेगें तभी कहीं ना कहीं पहुंच पायेगेंये लगभग चार वर्ष पहले की बात है जेठ का समय रहा और हमारे दो परिवारों के बच्चे सौरभ, कनिष्क, कुलदीप,  शुभम एवं रवि समर जेस मोटर मार्ग जो because लखस्यार से निकल कर फिलहाल कचटा गांव में समाप्त हो रहा है, से लगी हमारी पारिवारिक so जमीन जो बजंर हो चुकी थी ने गड्ढे खोदने शुरू किए. एक दिन मुझे भी इन्होने अपने इस कार्य को देखने के लिए आने को कहा तो मैं भी समय निकाल कर चल दिया, रस्ते में जब हम साथ-साथ खेतों की तरफ बढ़ने लगे तो मैंने पूछा कि तुम लोगों को ये गड्ढे खोदने की क्या सूझी तो so कहने लगे कि जरूरी नहीं पढ़ाई लिखाई करने के बाद नौकरी लग ही जायेगी इसलिए जरूरी है इस तरह के कामों को भी साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए. मैंने कहा ये तो बहुत दूरदर्शिता पूर्ण बात कह दी तु...
अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ  ही ले गई प्यूलीं

अपने पहाड़ लौटने का सपना अपने साथ  ही ले गई प्यूलीं

किस्से-कहानियां
डॉ. कुसुम जोशी        फ्यूंली (प्यूंली) के खिलते ही पहाड़ जी उठे, गमक चमक उठे पहाड़ पीले रंग की प्यूंली से, कड़कड़ाती ठन्ड पहाड़ से विदा लेने लगी, सूखे या ठन्ड से जम आये नदी नालों में पानी की कलकल ध्वनि लौटने लगी, फ्यूंली के साथ खिलखिला उठी प्रकृति, रक्ताभ से बुंराश, राई के फूलो की पीली आभा, गुलाबी कचनार, आडू, खुबानी, प्लम, के सफेद, गुलाबी फूल, इन सब से खिल उठे हैं पहाड़, पशु, पक्षी सब. पहाड़ी सुन्दरी प्यूंली जब हंसती तो झरझर जी उठता था उसका घर आंगन, उसके पहाड़, गुनगुनाती हुई जंगल जाती घास काटती, लकड़ी बीनती, सारा जंगल, चिड़िया पशु पक्षी भी उसके साथ गुनगुनाते, रंग बिरंगी तितलियां पूरे जंगल को रंग से भर देती.... पूरा पहाड़ झूम उठा उनकी प्यूंली रानी बनेगी, पर जैसे जैसे रस्म आगे बढ़ रही थी, प्यूंली का दिल पहाड़ से दूर जाने के नाम से घबराने लगा था, पहाड़ भी महसूस करने लगे की उनकी खु...
सोनप्रयाग का ‘पहाड़ी किचन’ यानी आर्गेनिक उत्पादों से बने खाने का जायका

सोनप्रयाग का ‘पहाड़ी किचन’ यानी आर्गेनिक उत्पादों से बने खाने का जायका

रुद्रप्रयाग
अर्जुन सिंह रावतभारत के लोग घूमने और एक से दूसरे राज्य के खाने का जायका लेने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. चारधाम का अहम पड़ाव होने के कारण केदारनाथ हमेशा से ही because श्रद्धालुओं के ट्रैवल मैप में रहता है. पिछले कुछ वर्षों में केदारनाथ आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा हुआ है. ऐसे में यहां आने वाले लोगों को पहाड़ों के आथेंटिक जायके से रूबरू कराने और उन्हें सफर की 'जायकेदार' यादों देने के लिए केदारनाथ यात्रा के मुख्य पड़ाव सोनप्रयाग में पहाड़ी किचन की शुरुआत हुई है.उत्तराखंड केदारनाथ यात्रा में आने वाले कई लोग पहाड़ी खाने का स्वाद लेने की इच्छा रखते हैं. सोनप्रयाग में लोगों को आर्गेनिक पहाड़ी उत्पादों से तैयार खाने का विकल्प देने के लिए because ‘पहाड़ी किचन’ की शुरुआत की गई. 24 मई, 2019 को ‘पहाड़ी किचन’ एक प्रयोग के तौर पर शुरु हुआ, लेकिन अपने खास तरह के स्वाद के...