उत्तराखंड: आखिर कौन जिम्मेदार है इस आग के लिए…

जंगल में उपजी आग अधिकांशतः मानवजनित होती है!

  • सुनीता भट्ट पैन्यूली

क्या पहाड़ों पर कभी
अब न पकेगा काफल
चिड़िया नहीं चखेंगी हिस्सर
भूखी रह जायेगी क्या कोयलिया.

जंगल जब सुलग रहे हों
आओ हम सब जल बन जायें.

सड़क जो गांव से शहर को चली
आओ उसी सड़क पर चल वापस
लौट आयें अपने घर.

प्रकृति से हम मांगते हैं
हरियाली जल, हवा 
हमने स्वयं क्या प्रयास किया
सोचिये सोचिये.

भारत में वनों के सांस्कृतिक व धार्मिक महत्त्व का आंकलन इसी आधार पर किया जा सकता है कि पेड़ हमारी सभ्यताओं से लेकर आज तक हमारे संस्कारों में पूजे जाते हैं इन्हीं जंगलों के आश्रय स्थल में हमारी सभ्यताओं ने सामाजिक उन्नयन की ओर कूच किया.अथार्त वनों के सानिध्य और मार्गदर्शन में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का उद्भव और विकास हुआ है. कहना ग़लत न होगा कि पृथ्वी पर जीवन के लिए जंगलों का विस्तार और उपस्थिति अपरिहार्य है ताकि हमें स्वच्छ हवा और पानी अनवरत मिलता रहे.

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जंगल हमारी वन संपदा और धरोहर हैं या यूं कहें जंगल पेड़-पौधे व दुलर्भ  वनस्पतियों और पादपों का सघन समूह है जहां वन्य जीवों का बसेरा है जिनमें स्तनधारी,उभयचर,सरीसृप,पक्षी और कीड़े शामिल हैं. उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग अपने दावानल रुप की ओर अग्रसर है जंगल में लगी आग हर साल अमुल्य वन संपदा अथार्त प्राकृतिक आवास और जैव विविधता को भारी क्षति पहुंचाती है.

जिस तरह से हमारी प्रकृति संरक्षण की ओर उदासीनता के कारण पर्यावरण खराब हो रहा है उसके लिए जंगलों को बचाने और उसे फलने फूलने देने की हमारी और सरकार द्वारा नितांत और सख्त आवश्यकता है. प्रकृति हमें आवश्यक संसाधन प्रदान करती है जलवायु परिवर्तन के कारण आज और भविष्य के दुरगामी  दुष्प्रभावों को देखना आवश्यक है.

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जंगलों का कटना या आग जनित ह्रास का ही परिणाम है कि ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि , ग्लेशियरों का पिघलना, जिसके कारण समुद्र तल में वृद्धि हो रही है, ओजोन परत कम हो रही है और तूफान, बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाऐं अपने चरम पर हैं अतः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, प्राकृतिक आपदाओं को रोकने हेतु और स्वच्छ हवा, पानी, औषधि, भोजन, अन्न, फल आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें प्रकृति को सहेज और संभालकर रखना होगा.

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जंगल हमारे जल श्रोतों को स्थायी रुप से जल देने,बाढों को रोकने में, भूमि की ऊपरी सतह में नमी बनाये, हूं क्षरण को रोकने, रेगिस्तान के फैलाव को नियंत्रित में सहायता प्रदान करते हैं. जंगलों में आग लगने की ज्यादातर घटनायें हमारी स्वयं द्वारा भी जागरुकता के अभाव में उत्पन्न की गयी हैं जैसे जंगल में अधजली सिगरेट सूखी झाड़ियों में फेंक देना, कैंम्पफायर, जलता हुआ कचरा छोड़ना, माचिस या ज्वलनशील चीजों से खेलना, कम बारिश होना,सूखे की स्थिती, गर्म हवा और तापमान भी हो सकता है.

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आग बेकाबू होती जा रही है अभी तो गर्मी की शुरुआत  ही है चरम पर पहुंचने पर इस भीषण दावाग्नि के क्या अहितकारी परिणाम होंगे? कहा नहीं जा सकता. हर साल आग के चरम पर पहुंचने पर ठोस नीति बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जाता है किंतु आग पर काबू पाने के बाद सारी योजनाएं वहीं की वहीं धराशायी हो जाती हैं. जब प्यास लगे उसी समय कुंआ खोदने की प्रणाली पर हमारी वन संपदा कब तक बचाकर रखी जा सकती हैं?

बारिश के महफूज़
ये में वो अधजला
विक्षिप्त पेड. 
देखो..!
फिर से ठूंठ निकल आये
कौन कहता है जले हुए पेड़
का कोई वजूद नहीं होता..?
सावन को तो बरसने दो
तसल्ली से..
मौसम एक सा नहीं रहता

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आज जंगल में आग लगना कोई नई दुर्घटना नहीं है हर साल हमें देश के घने जंगलों में आग को बुझाने के लिए वन विभाग को मशक्कत करनी पड़ती है किंतु आग पर काबू पा लेने के उपरांत हम जस के तस अपने पुराने सामान्य जीवन में लौट आते हैं भविष्य में लगने वाली आग की  पुनरावृत्ति की चिंता किये बना. जंगल में हर साल आग लग जाती है, यह स्थाई समस्या है यदि लापरवाही बरतते रहे तो कई बहुमुल्य वन संपदा प्रजातियां, पादप, पेड़, पौधे पशु पक्षी विलुप्ति के कगार पर पहुंच जायेंगे.

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जंगल में उपजी आग अधिकांशतः मानवजनित होती है कई बार गांव के स्त्री पुरुष जमीन पर गिरी हुई सूखी घास-पत्तियों में जानबूझकर आग लगा देते हैं ताकि उस जगह पर दोबारा हरी घास उग आये, कभी जंगल में  पेड़ो से शहद निकालने  व साल के बीज इकट्ठा करने हेतु  पेड़ों के नीचे  आग लगा देते हैं. खास कारण जो उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के लिए जिम्मेदार माना जाता है वह है 16 से 17 फीसदी चीड़ के जंगलों का होना, चीड़ की पत्तियों (पिरूल) और छाल से निकलने वाला रसायन रेजिन बेहद ज्वलनशील होता है जरा सी चिंगारी से आग भड़क जाती है और भीषण रूप ले लेती है. दूसरा कारण आग लगने का बारिश न होने से जमीन में आद्रता की कमी होना है जिसके कारण भी पेड़-पौधे तुरंत आग पकड़ लेते हैं.

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हमारे देश में भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद और भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान हैं जो जंगल में लगने वाली आग से वन संपदा और जैव विविधता को होने वाले नुक़सान और वनों के लिए व्यय की जाने वाली राशि के बारे में जानकारी रखते हैं, आग पर काबू पाने की दिशा में इन संस्थानों द्वारा ठोस कदम उठाये जाने  चाहिए. जंगल की आग पर नियंत्रण सहित वन प्रबंध का जिम्मा राज्यों के वन विभागों के पास है अत: वन दावाग्नि रोकने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस योजना  क्रियान्वित होनी चाहिए जिसकी दिशा निर्देश का पालन राज्यों द्वारा पूर्ण तालमेल के साथ किया जाना चाहिए.

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जंगल हमारी आवश्यकताओं की खोज भी हैं बार-बार आग लगने का परिणाम यह हुआ है कि ज़मीन की उर्वरकता में कमी, वनों की सालाना व‌द्धि दर में कमी,भूमि में कटाव और विभिन्न पादपों,जन्तुओं और वनस्पतियां हमारी स्मृतियों से मुक्त हो गयी हैं जो  पारिस्थितिकी  के मजबूत होने का आधार  हैं.

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आग हर साल उत्तराखंड के जंगलों में उग्र रूप धारण करती है किंतु अभी तक अग्नि नियंत्रण के लिए कारगार उपायों की खोज नहीं की जा सकी है न ही  वन विभाग,राष्ट्रीय दूर संवेदन एजेंसी ,भारतीय मौसम विभाग और भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान के बीच कोई समन्वय है निश्चित रुप से इन सभी संस्थानों  को समवेत  रुप से आग पर काबू पाये जाने के आधुनिक व संसाधन युक्त उपाय खोजें जाने चाहिए.

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चीड़ का दरख्त
मेरा हम उम्र या कहूं 
मेरी उम्र का हिसाब रखता है
अपनी जेब में ..

बस से गुजरती हूं कहीं भी
पीछे -पीछे चलता है मेरे
साये की तरह ..

चीड़ का दरख्त
मेरे बचपन का साथी
मगर अब कहाँ 
रोज़ मुलाकात  होती है 
अलहदा हो गए हैं रास्ते 
मगर बर्फ की फुहार
जब तुम्हारे कोमल पर्ण
को ढक देती थी नख से
शिखर तक..

और मैं 
तुमसे बर्फ उधार लेकर
स्नो-मैन बनाती थी ..

उस ठंड की सिहरन
अब तलक मेरी शिराओं
में दौड़ जाती है
वक्त बहुत आगे
निकल गया है
इधर सुना है तुम वृद्ध हो गये हो
और क्रुद्ध भी दावाग्नि फैला रहे हो

पहाड़ों पर ..
खेद है मुझे मित्र तुम्हारी समृद्धता
और तुम्हारे पिरूल को इंसान सहेज
नहीं पा रहा या अनजान बन रहा है
वन सम्पदा और तुम जैसी धरोहर
को संरक्षित करने में
खेद है मुझे मित्र ..

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भारत के लगभग 7 लाख ,65 हजार  210 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगल फैला है इनमें से लगभग 6 लाख, 39 हजार छ: सौ किलोमीटर क्षेत्र में किसी न किसी तरह के वन हैं मजबूत पारिस्थितिकी और जैव विविधता के संरक्षण का स्त्रोत हैं आज इंधन,चारे लकड़ी की बेतहाशा आवश्यकता और वनों के संरक्षण में कोताही और हर वर्ष आग लगने से जंगल के जंगल खत्म होते जा रहे हैं. जंगल की आग की रोकथाम के लिए ग्रामीणों में वन, पारिस्थितिकी,जैव-विविधता और उनकी हमारे जीवन में महत्ता के प्रति जागरूकता अभियान चलाना चाहिए.

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जंगल के पर्यावरण में अवांछित घुसपैठ और समुचित संसाधन और प्रशिक्षण के अभाव के चलते हर साल आग हमारे जंगलों को चपेट में लेकर हमारी पारिस्थितिकी और जैव-विविधता को खत्म  कर रही है.

दुर्गम और दूरस्थ  वनों में आग लगने की स्थिती  में वन विभाग के कर्मचारियों का तुरंत न पहुंचना भी आग का बेकाबू होने का कारण हो सकता है इस समस्या के निराकरण के लिए सरकार को चाहिए कि दूरदराज  के गांवों में आग को बुझाने और उस पर काबू पाने का प्रशिक्षण या आग लगने की घटना पर निरन्तर  निगरानी हेतु सरकार द्वारा स्थानीय लोगों को ही कोई मानदेय सुनिश्चित कर  बेरोजगार ग्रामीणों को  रोजगार देनें की ओर एक कारगार कदम हो सकता है.

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जंगल में ज्वलनशील पत्तियों जैसे चीड़ की सुई जैसी पत्तियों (पिरूल)का फैलाव नहीं होना चाहिए कुछ ऐसे शोध किये जायें जिससे  पिरूल से उत्पादित ईंधन के अतिरिक्त कुछ और उपयोगी ….बनाकर ग्रामीणों के लिए  रोजगार के सुअवसर मुहैया कराये जायें. संबंधित भावी वृक्षारोपण में चीड़ की पत्तियों का वैकल्पिक समाधान ढूंढकर औषधीय पादप या जिन पेड़ों की पत्तियों और जंगली फलों को खेतों को नुक्सान पहुंचाने वाले जानवर हाथी,भालू, या बंदर पसंद करते हैं ऐसे पौधे जंगल में रोपे जाने चाहिए जिससे जानवरों के जंगल से शहर की ओर अतिक्रमण को भी रोका जा सकता है.

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वन विभाग के पास आग को बुझाने हेतु पर्याप्त संसाधन होने चाहिए जिससे आगे पर नियंत्रण किया जा सकता है. भारतीय अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति में वनों के महत्त्व को देखते हुए यह आवश्यक है कि वनों के संरक्षण हेतु आम जन और सरकार परस्पर सहयोग की भावना और समर्पण के साथ कार्य करें. जहां से होकर हमारी सभ्यताएं गुजरी हैं उन जंगलों को क्या हम उनका पुराना स्वरूप नहीं लौटा सकते? जंगल हम इंसानों के जीवन के लिए वरदान भी हैं क्या हमें  वनों को भी उनका जीवन नहीं लौटाना चाहिए?

(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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