स्याल्दे बिखौती मेला : उत्तराखण्ड की लोक सांस्कृतिक धरोहर

  • डॉ. मोहन चन्द तिवारी

द्वाराहाट की परंपरागत लोक संस्कृति से जुड़ा उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती का मेला पाली पछाऊँ क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय रंग रंगीला  त्योहार है. चैत्र मास की अन्तिम रात्रि ‘विषुवत्’ संक्रान्ति 13 या 14 अप्रैल को प्रतिवर्ष द्वाराहाट से 8 कि.मी.की दूरी पर स्थित विमांडेश्वर महादेव में बिखौती का मेला लगता है. बिखौती की because रात के अगले दिन वैशाख मास की पहली और दूसरी तिथि को द्वाराहाट बाजार में स्याल्दे बिखौती का मेला लगता है. मेले की तैयारियां आसपास के गांवों में एक महीने पहले से ही शुरु हो जाती हैं.

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मगर इस साल  यह स्याल्दे बिखौती का  मेला 13 अप्रैल से 15 अप्रैल, तक रश्म अदायगी के तौर पर ही मनाया जाएगा. समाचार सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि नगर प्रशासन because और मेला समिति की बैठक में यह निर्णय हुआ है कि कोरोना के बढ़ते प्रकोप के कारण 13 अप्रैल को विभांडेश्वर में बिखोती के साथ मेले का शुभारम्भ होगा. 14 अप्रैल को द्वाराहाट (Dwarahat) में बाटपूजै (रास्ता पूजन) के दिन नौज्यूला धड़ा तथा 15 अप्रैल को आल व गरख धड़ा ओड़ा भेटने की रश्म अदायगी पूरी की जाएगी. इसी मुख्य स्याल्दे मेले के दिन ग्रामीणों की झोड़ा गायन व नृत्य प्रतियोगिताओं के साथ मेले का समापन कर दिया जाएगा.यानी स्याल्दे बिखोति के मौके पर जो लोकरंजक झोड़े, गीत, भगनौल के सामूहिक कार्यक्रम होते थे और एक सप्ताह तक द्वाराहाट बाजार में सांस्कृतिक उत्सव और आमोद प्रमोद के जो आयोजन होते थे,वे सब अब नहीं होंगे. पिछले साल भी कुछ ऐसा ही हुआ था. यह चिंता का विषय है कि दो सालों से लगातार इस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मेले पर कोरोना का ग्रहण उत्तराखंड की लोक संस्कृति के लिए शुभ संकेत नहीं है.

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गौरतलब है कि ‘स्याल्दे बिखोति’ का यह पर्व सदियों से कुमाऊं उत्तराखण्ड में कृषिजीवियों और पशुपालकों का मुख्य पर्व रहा है. लोक संस्कृति के प्रवहण और संवर्धन में स्याल्दे बिखोति के मेले की प्रमुख भूमिका रही है. स्याल्दे बिखौती के मेले में हिस्सा लेने वाले झोड़े, लोकगीत लोकनृत्य तथा सरंकार खेलने वाले दलों के विशेष अभ्यास so और प्रशिक्षण का दौर एक महीने पहले से ही गांव गांव में शुरु होने लगता है. हर्षोल्लास पूर्ण वातावरण में लोग पूरे महीने बारी बारी से अलग अलग घरों में इकट्ठा होकर,रात्रि के समय एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर और कदम से कदम मिलाते हुए सामूहिक स्वर से झोड़े, गीत,भगनौल आदि का आयोजन करते आए हैं. हालांकि पलायन के कारण गांव गांव में झोड़ों, लोकगीतों और भगनौल गाने की परंपरा अब टूट चुकी है,किंतु द्वाराहाट क्षेत्र के आसपास के अनेक गांव आज भी ऐसे हैं जहां इस परंपरागत लोक संस्कृति को बचाने के लिए स्याल्दे बिखौती त्योहार की तैयारियां बड़े उत्साह से की जाती हैं.

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दरअसल,उत्तराखण्ड (Uttarakhand) की लोक संस्कृति हिमालय प्रकृति के गोद में रची बसी और फली फूली संस्कृति है. यहां की प्रकृति अत्यन्त उदार है.परन्तु कहीं-कहीं कठोर भी है.जलवायु कहीं अत्यधिक शीत प्रकृति की है तो कहीं बहुत ज्यादा उष्ण भी है. भिकियासेन,मासी,चौखुटिया, द्वाराहाट और बागेश्वर की घाटियां दिन में बहुत गरम होती हैं bu और रात को ठंडी हो जाती हैं. प्रकृति के इस विरोधात्मक रूप ने कुमाऊं (Kumaon) उत्तराखण्ड के लोक धर्म और लोक संस्कृति में भी अनेक विरोधी तत्त्वों को समाविष्ट कर लिया है. प्रकृति परमेश्वरी की अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों प्रकार की परिस्थितियों ने इस संस्कृति को शिव और उनकी शक्ति का उपासक बना दिया.

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शिव और शक्ति के सम्मिलन का पर्व

स्याल्दे बिखौती का मेला शिव because और उनकी शक्ति की समवेत रूप से मेला मनाने की लोक संस्कृति है. वर्ष के प्रारम्भ में इसे पुरुष और प्रकृति के संमिलन का पर्व भी कह सकते हैं. केवल स्याल्दे बिखौती का मेला ही उत्तराखण्ड का एक मात्र ऐसा मेला है जो शिव और शक्ति के संमिलन को लक्ष्य करके एक साथ दो मंदिरों- शिव के मंदिर विभांडेश्वर में तथा शक्ति के मंदिर शीतला देवी के प्रांगण में संयुक्त रूप से आयोजित किया जाता है.

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असल में प्रकृति के प्रांगण में हुए इस ऋतुपरिवर्तन का कारण ‘विषुव संक्रांति’ का लोक लुभावन आगमन ही है. भारतीय त्योहार ज्यादातर ऋतु परिवर्तन के समारोह हैं. because हमारे अधिकांश उत्सव शरद और वसंत ऋतुओं में मनाए जाते हैं. ये दोनों ही मनभावन ऋतुएं हैं. शरद ऋतु वर्षा के बाद आती है और वसंत कंपकंपाती ठंड से निजात दिलाती है. इसलिए दोनों ही ऋतुएं उत्सवों के अनुकूल पड़तीं हैं. इस समय भारतीय किसान कृषि कार्य से मुक्त रहते हैं. उत्सव मनाने का यह भी एक खास कारण हो जाता है.

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चैत्र-वैशाख के महीनों में शीत को विदाई देकर लौटती हुई सुहानी हवा, बुरांश प्योली आदि से कुसुमित वन-उद्यान, कोयल,घुघुती की आवाज से गूंजता परिवेश- ये सभी प्रकृति के दूत बन कर मानो स्याल्दे बिखोति की अगवानी में लग जाते हैं. ललनाओं के रक्तिम हेमवर्णी चंचल वस्त्र, पिछौड़ और हंसूली, नथूली,मूंगे की माला because जैसे पारंपरिक आभूषण इस स्याल्दे बिखोति के सौंदर्य में  चार चांद लगाते प्रतीत होते हैं. द्वाराहाट के इस रंग-रंगीले कौतिक के उल्लास से हमारी सभी ज्ञानेंद्रियां ही तृप्त नहीं होतीं,हमारा मन भी बाग-बाग हो उठता है.

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वस्तुतः, स्याल्दे बिखोति का मेला हो या अन्य कोई क्षेत्रीय मेला,कुमाऊं के लोकगीतों ने शक्तिपूजा की ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ अर्थात् भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हूं कि because विश्वव्यापी विराट् वैदिक अवधारणा को माता और पुत्र के अत्यन्त कोमल और भावना पूर्ण रिश्ते से आज भी बांध रखा है. पाली पछाऊँ के क्षेत्रों में जब भी कोई धार्मिक मेले महोत्सव या संक्रान्ति का आयोजन होता है तो क्षेत्रवासियों की पहली पुकार प्रायः मां जगदम्बा के दरबार में लगाते हुए एक लोकप्रिय झोड़ा ‘खोली दे माता, खोल भवानी धरम केवाड़ा’ को गाए जाने की प्रथा है. इस झोड़ा गीत में माता भवानी से धर्म के द्वार खोलने की प्रार्थना की गई है. उधर देवी मां अपने भक्तों से पूछती है कि पहले यह तो बताओ कि तुम मेरे because लिए भेंट-पूजा में क्या क्या लाए हो? भक्त उत्तर देते हैं कि हम तुम्हारे लिए दो जोड़े निशाण (ध्वजाएं) और दो जोड़े नगाड़े लाए हैं.इस प्रकार अपने भक्तों पर वात्सल्यपूर्ण अधिकार जतलाने की भावना से जैसे मां अपने पुत्रों से बात करती है उसी शैली में देवी और उसके भक्तों का आपसी संवाद इस झोड़े की मूल भावना है-

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मां भवानी से भक्तों की पुकार

“ओहो गोरी गंगा, so भागीरथी कौ,
के भल रेवाड़ा.
ओहो खोली दे माता, because खोल भवानी,
धरम केवाड़ा.”

मां अपने because भक्तों से पूछती है

“ओहो क्ये so ल्यै रै छै, भेट पखोवा,
क्ये खोलुं bu केवाड़ा.”

भक्त मां because भवानी को उत्तर देते हैं

“ओहो द्वी so जोड़ा निसाण ल्यै रयूं,
खोलि दे केवाड़ा.”

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स्याल्दे बिखौती मेले का इतिहास उत्तराखंड की गौरवशाली लोक परंपरा व संस्कृति से जुड़ा है. यह पर्व कूर्माचल के अतीत, गौरव, राजा एवं प्रजा के बीच बेहतर तालमेल तथा because सामरिक कौशल के कुछ बुनियादी सिद्धान्तों पर आधारित कौतिक भी है,जिसे सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट शीतला देवी के प्रांगण में सदियों से एक पुरातन धरोहर के रूप में संरक्षित किए हुए है.

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पं.बद्रीदत्त पाण्डे ने अपने ग्रंथ ‘कुमाऊं का इतिहास’ में शीतला देवी के मन्दिर निर्माण का काल कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय संवत् 1179 निर्धारित किया है. इन ऐतिहासिक because तथ्यों से यह अनुमान लगाना सहज है कि कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय से ही द्वाराहाट में शीतला देवी के मंदिर प्रांगण में स्याल्दे मेले की शुरुआत हुई होगी. कत्यूरी शासकों की वीर रस से भरी स्याल्दे बिखौती की ‘कौतिक’ परंपरा को कालांतर में चंद वंशीय राजाओं ने धरोहर की भांति संरक्षित किया. इसे बतौर विरासत कुमाऊं (कूर्माचल) के 31 परगनों तक विस्तार दिया और गढ़वाल (केदारखंड) से भी इस मेले के सांस्कृतिक सूत्र जुड़ते गए.

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आज यद्यपि नवयुवकों की नई पीढ़ी अपने परंपरागत त्योहारों और मेले उत्सवों के प्रति उदासीन होती जा रही है. पर्वतीय इलाकों में भी महानगरीय संस्कृति के प्रभाव के because कारण तीज त्योहारों का रंग दिन प्रतिदिन फीका पड़ता जा रहा है. मैदानों की ओर निरंतर रूप से पलायन के कारण त्योहारों के अवसर पर उमड़ने वाली लोकसंस्कृति की चमक दमक अब कम होती जा रही है. पर सन्तोष का विषय है कि because बागेश्वर में उतरैणी का मेला और द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती का मेला उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की पहचान आज भी बनाए हुए हैं.द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती मेले के संबंध में कहा जा सकता है कि इस त्योहार के आयोजन में समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े उत्साह के साथ बढ़ चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाता आया है. बूढ़े हों या जवान बच्चे हों या महिलाएं प्रतिवर्ष कुछ नई उमंग और नए अंदाज से मेले में हिस्सा लेते हैं.

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पाली पछाऊँ क्षेत्र के लोग स्याल्दे बिखौती मेले के माध्यम से न केवल अपनी पुरातन परंपराओं और कला संस्कृति को जीवित रखते आए हैं,बल्कि यहां के लोकगायकों तथा because लोक कलाकारों ने भी कुमाउंनी साहित्य, विशेषकर पाली पछाऊं के लोक साहित्य की समृद्धि में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. स्याल्दे बिखौती मेले की एक विशेषता यह भी है कि इस क्षेत्र के लोक गायक हर साल कोई ऐसा नया लोकगीत या कोई नया झोड़ा चला देते हैं जो अपनी समसामयिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है बाद में ये ही झोड़े या लोकगीत पूरे साल लोगों की जुबान में रटते रहने के कारण जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय भी हो जाते हैं.

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वैशाखी के अवसर पर because सभी उत्तराखंड वासियों को स्याल्दे बिखौती की हार्दिक शुभकामनाएं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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