
स्मृतियों के उस पार…
पिता की स्मृतियों को सादर नमन
सुनीता भट्ट पैन्यूली
समय बदल जाता है किंतु जीवन की सार्थकता जिन बिंदुओं पर निर्भर होती है उनसे वंचित होकर जीवन में क्यों, कैसे, किंतु और परंतु रूपी प्रश्न ज़ेहन में उपजकर बद्धमूल रहते हैं हमारी चेतना में और झिकसाते रहते हैं हमें ताउम्र मलाल बनकर लेकिन क्या कर सकते हैं ?जो समय रेत की तरह फिसल जाता है वह मुट्ठी में कभी एकत्रित नहीं होता. इंसानी फितरत या उसकी मजबूरी कहें कि चाहे कितना बड़ा घट जाये, जीवन के कथ्य तो वही रहते हैं किंतु जीने के संदर्भ बदल जाते हैं.
नेता जी
8 अगस्त से 10अगस्त 2015 के मध्य पिता के जन्मदिन का होना और उनकी विदाई की अनभिज्ञता के इन दो दिनों में पिता के साथ मेरे उड़ते -उड़ते संवाद आज तक कहीं ठौर ही नहीं बना पाये शायद इसीलिए 20 जून को पितृ दिवस पर मेरी पनीली आंखों में सावन का अषाढ़ कुछ अजीब सा हरा हो जाता है.
नेता जी
आज ...