पिता की स्मृतियों को सादर नमन
सुनीता भट्ट पैन्यूली
समय बदल जाता है किंतु जीवन की सार्थकता जिन बिंदुओं पर निर्भर होती है उनसे वंचित होकर जीवन में क्यों, कैसे, किंतु और परंतु रूपी प्रश्न ज़ेहन में उपजकर बद्धमूल रहते हैं हमारी चेतना में और झिकसाते रहते हैं हमें ताउम्र मलाल बनकर लेकिन क्या कर सकते हैं ?जो समय रेत की तरह फिसल जाता है वह मुट्ठी में कभी एकत्रित नहीं होता. इंसानी फितरत या उसकी मजबूरी कहें कि चाहे कितना बड़ा घट जाये, जीवन के कथ्य तो वही रहते हैं किंतु जीने के संदर्भ बदल जाते हैं.
नेता जी
8 अगस्त से 10अगस्त 2015 के मध्य पिता के जन्मदिन का होना और उनकी विदाई की अनभिज्ञता के इन दो दिनों में पिता के साथ मेरे उड़ते -उड़ते संवाद आज तक कहीं ठौर ही नहीं बना पाये शायद इसीलिए 20 जून को पितृ दिवस पर मेरी पनीली आंखों में सावन का अषाढ़ कुछ अजीब सा हरा हो जाता है.
नेता जी
आज बीस जून 2021 है पांच सालों का इतना लंबा अंतराल किंतु मेरे लिए जैसे 2015 कभी आगे बढ़ा ही नहीं और वह दुर्दिन मेरी स्मृतियों के पेड़ के तने पर खोह बनाकर बैठ गया है,
जितना मेरा पिता से बिछोह का अप्रिय व अवांछित भोगा हुआ यथार्थ है चुन-चुन कर उस खोह में डालती रहती हूं,पिता के अस्तित्व की अनुभूति के पुनर्नवा के लिए सोचती हूं कि उन नम,गीली स्मृतियों को उस पेड़ की खोह से निकालकर उन्हें अपने अन्त:करण की धूप से समय-समय पर गर्माईश देना ज़रूरी है.नेता जी
अत: मन हुआ जो भी जज़्बात मेरे भीतर इतने सालों से उबल रहे हैं उन्हें कलम की रौशनाई के रुप में भरकर कागज़ी ज़मीं पर उड़ेल दूं शायद तस्कीं हो जाये दिल को कहीं.
पिता से बिछोह हुए पांच साल पूरे हो गये हैं कल सुबह से ही बारिश छिड़ी हुई है उसी बदनसीब सावन ने मेरे दरवाज़े पर फिर दस्तक दे दी है. ये सावन का मौसम गोया तपते रेगिस्तान के होंठों पर बूंदों का गिरकर उन्हें तृप्त कर जाने जैसा है किंतु यह सावन तो मेरे संपूर्ण अस्तित्व को भीतर तक झुलसा देता है.
नेता जी
आठ अगस्त को पिता का जन्मदिन था
सुबह फोन पर परिवार के सभी सदस्यों और मैंने शुभकामनाएं दी .बहुत ख़ुश थे वह उस दिन मैंने कहा”पिताजी आप आज कितने साल के हो गये हैं?”बड़े उत्साहित होकर वह कहने लगे बेटा मुझे इकहत्तर साल पूरे हो गये हैं और मैं बिल्कुल फिट हूं”मैंने पिता से हंसते हुए कहा आप ईश्वर की अनुकंपा से हमेशा फिट ही रहें.नेता जी
पिताजी ने कहा “आज बेटा मैं अपने हाथ से खाना
बनाकर तुम सभी को खिलाऊंगा.तुम सभी बहनें अपने परिवार सहित दिन के खाने में यहां आ जाओ”.दिन का समय चूंकि सभी के लिए व्यस्त होता है
बच्चों का स्कूल था उनको लाने का आश्वासन तो नहीं दिया किंतु अपने आने की उनको तसल्ली दी.किंतु उस दिन बारिश का मिजाज़ भी इस कदर बिगड़ा कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था घर के सारे कामों से निवृत हो
गरीब थी मैं किंतु बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी ,इतनी मूसलाधार हो रही थी कि बाहर निकलने का प्रश्न ही नहीं था बारिश थमने का इंतज़ार करते-करते दिन के दो बज गये और इतने में बच्चे भी घर पहुंच गये .जब वो घर पहुंच ही गये तो सोचा इन्हें भी लेकर चलती हूं छोटी बेटी ने अपने स्कूल के बहुत सारे काम का हवाला देकर न आने का आग्रह किया.नेता जी
बारिश अपने स्वभाव में थोड़ा सहज हुई तो बड़ी बेटी को लेकर निकल पड़ी पिता से मिलने उनके जन्मदिन पर .पिता के घर गयी तो पिताजी ने पहुंचते ही पूछा दामाद और छोटी बिटिया नहीं आये किंतु बारिश की बदमिजाज़ी को समझकर वह उन दोनों के न आने का कारण समझ गये उनके वृद्ध चेहरे पर अपने दामाद और छोटी नातिन से न
मिल पाने के कारण उभर आयी मायूसी को अच्छे से पढ़ पा रही थी तिस पर बड़ी बेटी का भी हबड़-तबड़ मचाना कि जल्दी से खाना खाकर मम्मी चलो, मुझे ट्यूशन छोड़ दो. यह सुनकर पिता और निराश हुए यह कहकर कि “बेटी अभी तो आयी है अभी जा रही है? रूकना मैं भी चाहती थी किंतु एक लड़की के मन को शादी के बाद अपनी गृहस्थी और बच्चों की ज़िम्मेदारियों की फ़ेहरिस्त में प्राथमिकता कहां मिल पाती है? ख़ैर जितना भी सीमित समय मेरे पास था पिता के साथ गुजारा.नेता जी
न जाने क्यों पिता के चेहरे पर एक अजीब सा भाव मैं पढ़ने की कोशिश कर रही थी, मुझे उन्होंने अपने पास बैठने को कहा, मैं खाना खा रही थी और वह मेरा सिर सहला रहे थे कहने लगे,
मैं और सब लोग जब आ जायेंगे उनके साथ खाना खाऊंगा.खाना खाने के बाद पिताजी ने मुझे और बेटी को सौ-सौ रुपये दिये फिर कहने लगे बेटा तुम दोनों निकलो निधी को ट्यूशन की देर हो जायेगी और हां मैंने तेरे लिए खाद मंगवायी है वह लेती जा .नेता जी
पिताजी के साथ बैठकर खाना खाने के दौरान मैंने जो प्रश्न कि मैंने उनसे कभी पूछा ही नहीं था कि आपको आपके जन्मदिन पर क्या दूं? पूछ लिया हालांकि मैं हमेशा पिता के कर्मठ और स्वस्थ रहने के
कारण उनके प्रति ग़ाफ़िल ही रही कि उन्हें मैं क्या दे सकती हूं सबकुछ तो है उनके पास.. फिट हैं हमें और क्या चाहिए?यह सुनकर ख़ुश होकर पिताजी ने कहा,“बेटा मैं हिटलर की बायोग्राफी पढ़ना चाहता हूं हो सके तो ले आना मेरे लिए और फिर कहने लगे,”एक काम मेरा पहले ये कर कि मेरी घड़ी की स्ट्रेप टूट गयी है तू बाजार जायेगी तो इसे लगवा देना”.नेता जी
मैंने भी उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि आज
तो मैं जल्दी में हूं एक दो दिन में आती हूं यह कहकर मुसलसल बारिश में ही मैं और बेटी जाने की जल्दी में बाहर आ गये बेटी को ट्यूशन जो छोड़ना था.कभी क्या होता है कि हम अनजाने में वह कर जाते हैं जिसके हम अभ्यस्त नहीं होते और जिसको करने के अभ्यस्त होते हैं वह हमसे छूट कैसे जाता है? समझ नहीं पाते हम.
नेता जी
मैंने आगे देखा न पीछे तेजी से मैं और बेटी कार में बैठ गये और उसी तेज बारिश की बौछारों में पिताजी ने कब मेरी कार की डिक्की में मेरे लिए खाद का बोरा रख दिया मुझे महसूस ही नहीं हुआ इतना याद भर है मुझे जल्दी में कि पिताजी और मां दोनों मुझे गेट पर छोड़ने आये थे और मैं बिना पीछे देखे तेजी से गाड़ी चलाती हुई सरपट आगे दौड़ गयी यह सब तेज बारिश और बेटी के ट्यूशन पहुंचाने की ज़िद का ही
नतीजा था कि मैं सीधे आगे वाली सड़क से निकल गयी वरना रोज़ की जो मेरी आदत थी वह वापस गाड़ी को मोड़कर लाने की और मां-पिताजी को दोबारा प्रणाम करके अपने घर जाने की थी किंतु आज तो मुझे यह भी ध्यान नहीं रहा कि मैंने आज कुछ बिसरा दिया है पीछे मुड़कर नहीं देखने का बाद में भी मुझे मलाल नहीं हुआ कि मैंने आज कुछ बहुत बहुमुल्य खो दिया था इसका यह अर्थ है कि शायद ज़िंदगी में जब सब कुछ मुलायम होता रहता है तो छोटे-छोटे अहसास अर्थहीन हो जाते हैं हमारे लिए.नेता जी
पिता का जन्मदिन तो यूं ही अफरातफ़री में बीत गया था बस यही सुकून था कि उनसे मिल आयी थी.
9 अप्रैल 2015 अगले दिन उस खाद के
बोरे को निकालकर मैंने आंगन में रख दिया सोचा पिताजी से बात करती हूं .फोन किया उनका हाल,कुशल पूछा तो वह कहने लगे“ बेटा मैं एकदम फिट हूं “हमेशा यही उनकी अपने बारे में धारणा और जवाब होता था.कहने लगे “मैं अभी कालोनी की मीटिंग
में ह़ूं घर पर अपनी मां से बात कर लो ”बस यहीं हमारा वार्तालाप समाप्त हो गया.नेता जी
10 अप्रैल 2015 को सुबह पिताजी द्वारा
दी गयी खाद गमलों में डालने की सोच ही रही थी तब तक पिताजी का फोन आ गया कि “बेटा कल तुझसे बात नहीं हो पायी वह खाद जो मैंने दी तुझे उसे सारे गमलों में डाल दे मुझे पता है बहुत सारे गमले हैं तेरे पास सबमें खाद डाल देना फिर इधर-उधर की थोड़ी बात करने के बाद जल्दी ही मैंने फोन रख दिया क्योंकि उस दिन आखिरी सावन का सोमवार था और मेरा व्रत था.पूजा पाठ भी करना था.नेता जी
शाम को पूजा पाठ करके सात -साढ़े सात बजे आलू उबाले हुए थे आलू का झोल बनाने के लिए छील रही थी एक तरफ खीर चढ़ा दी किंतु न जाने उस दिन देर तक सोई रह गयी मैं ,खाना बनाने में भी मन नहीं लग रहा था. कुछ अजीब, बेचैन सा हो रहा था मन
आलू मैश कर रही थी कि भाई का दिल्ली से फोन आया कि दीदी पापा आज चक्कर खाकर गिर गये सड़क पर जैसा कि मां पिताजी दोनों दो टाईम वाक पर जाते थे यह उन दोनों का हमेशा से ही नियम था मैं यह सोचकर जरा सा भी परेशान नहीं हुई सोचा शायद आज दूर तक वाक के लिए चले गये होंगे और थक गये होंगे. इसलिए गिर गये होंगे भाई को भी यही समझाया कि परेशान मत हो ठीक होंगे .इसी बीच आलू को मैश करने लगी और खीर चलाने लगी कि पति देव गेट खोलकर अंदर घुसे और कहने लगे ये सब बाद में कर लेना तरुण विहार चलना है. मैंने प्रस्तर होकर सीधे कहा, क्यों पिताजी नहीं रहे क्या? और मुझे आलिंगनबद्ध करके धीमे से रुंआसे होकर जवाब दिया हां..नेता जी
समय को जब पंख लगे तब मां से जाना मैंने कि उस दिन जल्दी में मैंने पिताजी को प्रणाम भी नहीं किया था न ही पीछे मुड़कर उनकी झलक ही देखी,मां के अनुसार वह देर तक
अपना हाथ हिलाकर मेरी गाड़ी को जाता देखते रहे..समय जब आज वृद्ध हो रहा है तब मुझे मलाल होता है कि उस दिन वह बहुमुल्य जो मुझ अभागी ने खोया वह था पिता को आखिरी समय में गले मिलना और उनको प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लेना.
नेता जी
बेटी भी अपनी ज़िद के कारण पिता के
साथ मेरी उस औपचारिक सी मुलाकात के लिए क ईबार माफी मांग चुकी है लेकिन उसका भी तो कुसूर नहीं था शायद मुझे उसे लाना ही नहीं चाहिये था फिर सोचती हूं कम से कम उन्होंने निधि को आख़िरी समय में देख तो लिया था ख़ैर हममें से कोई भी नियती के इस क्रूर खेल से कहां वाकिफ़ था.घड़ी की स्ट्रेप लगवाने और हिटलर की
बायोग्राफी खरीदकर देने का पिताजी ने मुझे मौका नहीं दिया न ही मेरे पास वह सौ का नोट है जो पिताजी ने मुझे दिया था स्वयं की असंतोष आत्मा को तृप्त करने हेतु बेटी को हिटलर की बायोग्राफी खरीदकर ले दी है मैंने.पिता की स्मृतियों के रुप में मैंने उनके होली के रंग लगे हुए जूते संभाले हुए हैं,उनके बागवानी के औजार गैंती,कैंची और स्वेटर ,जैकेट मां से मांग कर ले आयी हूं मैं पिता के अहसास को हमेशा जिंदा रखने हेतु.नेता जी
आज मैंने पिता की स्मृति में देर
तक बागवानी की जिसमें कि उनकी जान बसती थी,पेड़-पौधों की टहल की ताकि पिता को स्वयं के करीब महसूस कर सकूं.(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)