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अचानक याद आना एक गीत का

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अचानक याद आना एक गीत का
  • चारु तिवारी

‘गरुड़ा भरती, कौसाणी ट्रेनिंगा…!’

उन दिनों हमारे क्षेत्र बग्वालीपोखर में न सड़क थी और न बिजली. मनोरंजन के लिये सालभर में लगने वाला ‘बग्वाली मेला’ और ‘रामलीला’. बाहरी दुनिया से परिचित होने का because एक माध्यम हुआ- रेडियो. वह भी कुछ ही लोगों के पास हुआ. सौभाग्य से हमारे घर में था. रेडियो का उन दिनों लाइसेंस होता था. उसका हर साल पोस्ट आॅफिस से नवीनीकरण कराना पड़ता था. इसी रेडियो की आवाज से हम दुनिया देख-समझ लेते. हमारे सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम थे- ‘उत्तरायण’ और ‘गिरि गुंजन’. बाद में ‘बिनाका गीतमाला’, ‘क्रिकेट की कैमेंट्री’, ‘रेडियो नाटक’, ‘वार्ताओं’, ‘बीबीसी’ और समाचारों से भी हमारा रेडियो के साथ नाता जुड़ा, लेकिन शुरुआती दिनों में कुमाउनी गीत सुनना ही हमारी प्राथमिकता थी.

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उन दिनों एक गीत बहुत प्रचलित था- ‘गरुड़ा भरती कौसाणी ट्रैनिंगा, देशा का लिजिया लड़ैं में मरुला….’ इसी गीत से पहली बार ‘कौसानी’ और ‘गरुड़’ नामक स्थानों से because परिचय हुआ. लगने वाला हुआ कहां जो होंगी ये जगहें! 1962 के भारत-चीन युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के बीच में यह गीत लिखा और गाया गया. उसके बाद 1971 के युद्ध तक इस गीत की प्रासंगिकता बनी रही. बाद में भी इसकी आकाशवाणी में फ़रमाइश होती रही.

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एक पीढ़ी आज भी उन गीतों को सुनकर उस समय को याद करती है. यह बात 1964 की है, तब वे इंदौर में थे. उन दिनों लखनऊ में साहित्यिक क्षेत्र में बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ बहुत सक्रिय थे. उन्होंने एक कवि सम्मेलन में गोपलदत्त भट्ट जी को लखनऊ बुलाया. ‘जिज्ञासु’ जी आकाशवाणी, लखनऊ में एक नया कार्यक्रम ‘उत्तरायण’ चला रहे थे.

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इस लोकप्रिय गीत के रचनाकार और गायक हैं- सुप्रसिद्ध कुमाउनी कवि और गीतकार गोपालदत्त भट्ट. because उनके लिखे-गाये गीत सत्तर-अस्सी के दशक में आकाशवाणी से हम तक पहुंचे. कई नामी गायक-गायिकाओं ने उनके गीत आकाशवाणी से गाये. जब कैसेट का जमाना आया तो कुछ बड़े और चर्चित गायकों ने उनके गीत बिना उनका नाम दिये गा दिये. प्रसिद्धि भी पा ली. उम्र के इस पड़ाव में भी कुमाउनी साहित्य के प्रति उनके अनुराग और सक्रियता से उम्मीद की जा सकती है कि उनकी कुछ और उत्कृष्ट रचनाएं हमारे बीच आयेंगी.

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गोपालदत्त भट्ट जी से पहली मुलाकात 1989 में हुयी थी. वे तब गरुड़ विकासखंड से जिला पंचायत सदस्य थे. बिपिन त्रिपाठी द्वाराहाट के ब्लाक प्रमुख और शीतलसिंह परिहार because जिला पंचायत अध्यक्ष थे. बिपिन त्रिपाठी जी ने अल्मोड़ा जिला पंचायत की एक बैठक में प्रस्ताव रखा कि जिला पंचायत की बैठकें जिला मुख्यालय के बजाय अलग-अलग विकासखंड़ों में होनी चाहिये. इसे मान लिया गया और पहली मीटिंग द्वाराहाट में होनी तय हुयी. बिपिन दा ने हमसे पूछा कि दो दिन सभी प्रतिनिधियों और अधिकारियों को यहां रहना होगा तो और क्या किया जा सकता है. मैंने सुझाव दिया कि शाम को एक कवि सम्मेलन किया जा सकता है.

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पहली बार उसी कवि सम्मेलन में गोपालदत्त भट्ट जी की कविताएं because और गीत सुनने का मौका मिला. because बहुत वर्ष बाद 2008 में हमारे बहुत पुराने पत्रकार मित्र हरीश जोशी ने मुझे उनके दो कविता संग्रह ‘फिर आल फागुण’ और ‘धर्तिकि पीड’ भेजी. तब तक गोपालदत्त भट्ट जी की कविताओं-गीतों से बहुत परिचित भी हो चुका था.

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गोपालदत्त भट्ट जी का बड़ा परिचय उनका कवि रूप है. उन्होंने साठ-सत्तर के दशक में बहुत सारी कालजयी कुमाउनी कविताओं-गीतों की रचना की. उनके गीत एक समय में आकाशवाणी में बहुत लोकप्रिय हुये थे. एक पीढ़ी आज भी उन गीतों को सुनकर उस समय को याद करती है. यह बात 1964 की है, तब वे इंदौर में थे. because उन दिनों लखनऊ में साहित्यिक क्षेत्र में बंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ बहुत सक्रिय थे. उन्होंने एक कवि सम्मेलन में गोपलदत्त भट्ट जी को लखनऊ बुलाया. ‘जिज्ञासु’ जी आकाशवाणी, लखनऊ में एक नया कार्यक्रम ‘उत्तरायण’ चला रहे थे. उन्होंने भट्ट जी से आकाशवाणी में स्वर परीक्षा देने को कहा और 1964-65 में स्वर परीक्षा देने के बाद आकाशवाणी से जो पहला गीत गाया वह था-

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गरुड़ा भरती कौसानी ट्रेनिंगा,
देशा का लिजिया लडैं मा मरुला.

सात बरसा हैगिना, लडैं में जाइया,
बार बरसा हैगिना घरै कि नराई.

सात बरसै कमला सरासा हुनैली,
पांच बरस हेमुआं स्कूल हनौल.

भारत सरकारा मैं छुट्टी दी दियै
छुट्टी का दगैड़ा पैंसना दी दियै..

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उन दिनों आज की because तरह का सामाजिक परिवेश नहीं था. गांवों की सामाजिक संरचना भी बहुत दूसरे तरह की थी. ससुराल जाने के जो कष्ट थे उसे बेटी के साथ माता-पिता भी समझते थे. गोपालदत्त भट्ट जी ने बहुत गहरी संवदेनशीलता के साथ तत्कालीन परिस्थितियों को इस गीत में पिरोया. जितना अच्छा गीत लिखा गया, बीना तिवारी ने उसे उतने ही मनोयोग से गीत में गहरे तक डूबकर गाया.

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आकाशवणी में उनके गीतों की because यात्रा यहीं से शुरू हुयी. कुछ गाने उन्होंने खुद गाये. उनके बहुत सारे गाने उस समय के सुप्रसि़द्ध गायक-गायिकाओं ने गाये. इनमें बीना तिवारी, चन्द्रकला पंत, गोपालबाबू गोस्वामी आदि शामिल हैं. उनका एक मार्मिक गीत बीना तिवारी ने बहुत मनोभाव से गाया. यह गीत उन दिनों हर जुबान पर चढ़ा-

पारा का भिड़पन जांणिया बटोही
म्यारा उनुहंणि एक लिजै दे जुबाब.

झिट घड़ि स्यौव ठौर बैठ मेरि बात सुण,
तिकणि मि बतै द्यनों शुवै की पच्छयांण.

खिलकाई मुखड़ि छू, तकिया तमा जैसी,
पिठा लगाइया जागिया निशाण.

सौ मैंसम चमकछौं वीक रुआब
लिजै दे जबाब, लिजै दे जुबाब..

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गोपालदत्त भट्ट जी का एक विदाई गीत बीना तिवारी ने गाया. यह गीत जब आकाशवाणाी के ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम में बजता था तो दूर पहाड़ की गांवों की बाखलियों के श्रोताओं को भाव-विभोर कर देता था. उन दिनों आज की तरह का सामाजिक परिवेश नहीं था. गांवों की सामाजिक संरचना भी बहुत दूसरे तरह की थी. because ससुराल जाने के जो कष्ट थे उसे बेटी के साथ माता-पिता भी समझते थे. गोपालदत्त भट्ट जी ने बहुत गहरी संवदेनशीलता के साथ तत्कालीन परिस्थितियों को इस गीत में पिरोया. जितना अच्छा गीत लिखा गया, बीना तिवारी ने उसे उतने ही मनोयोग से गीत में गहरे तक डूबकर गाया. इस गीत को बाद में गोपालबाबू गोस्वामी ने भी अपनी एक कैसेट में शामिल किया-

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बाट लागी बर्याता च्येली बैठ डोली मा.
आज जालक रिसाछिया
नौक-भौल बुलाछिया
बुत-धाण बताछिया
आब त्यरा सरासिया-
सासु-सौरा मैं-बाप च्येली बैठ डोलिमा
बाट लागी बर्याता च्येली बैठ डोली मा..

आकाशवाणी से उनकी, बीना तिवारी because और चन्द्रकला पंत की आवाज में गाये गये कुछ और गीत-

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1.
नि जाऔ-नि जाऔ सुवा परदेशा,
न्हैं जानू-न्है जानू बाना परदेशा.
त्यर बिना नि रईन
कसिक कौनू नि कईन
जुग है जानी रात दिन-
लागि जां उदेखा, जन जाऔ परदेशा,
न्है जानू-न्है जानू बाना परदेशा..

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2.
कै भलो लागों त्यरौ बुलाणा
शरमै बै त्यरौ छाजा बै चाणा.
कसी भुलोंलौ त्येरी दन्तुली
जून्याली मुखड़ी लाल बन्दिुली,
लाल बिन्दुली, छाजा बै चाणा
के भलों लागों त्यरौ बुलाणा
शरमै बै त्यरौ छाजा बै चाणा..

3.
झम्मा-झम्मा बाजनी त्यरा झांवरा.
बिजुली कें ल्योंल
उ्वीक सिन्दूर बणैंल
त्यरा मांग में भरूंल-
झम्मा-झम्मा बाजनी त्यरा झांवरा..

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4.
फागणौ म्हैंण becauseफलि गो दैंण
ओ सुआ, becauseआ रे आ.
रङिला becauseस्वैण
रसिला गैण
ओ बाना, because आ वे आ.
कधणि कौनू becauseमनक क्वीड़
अगास छुङैं becauseहुङरि पीड़.

5.
हिट ददा उत्तरैणि, हिट भुला उत्तरैणि
जाणा लागी रईना मस्त बैग-स्यैणि.

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इसके अलावा उनके लिखे-गाये because और गीत भी आकाशवाणी से प्रसारित होते रहे जिनमें प्रमुख हैं- ‘रौंण पहाडोंक रौंण… ’, ‘कफड्या चड़ बासड़ फैगोछ… ’, ‘रुपसा राजुला जसी… ’, ‘झन हो भागिया पर परदेश जाण हो… ’, ‘ज दिन तू आलि वे बाना… ’, इंनरैणि हिनाई खेतोलों वाल डाना वै पाल डाना… ’कदुक भल मानिछा हमारा पहाड़ मा… ’, ‘गरजने-बरसने म्हैण सोंण ऐगो… ’, जै बदरी कथा… ’ आदि हैं.

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आकाशवाणी में प्रसारित गीतों के अलावा गोपालदत्त भट्ट जी का कुमाउनी और हिन्दी कविता की एक लंबी रचना-यात्रा रही है. उनके हिदी में ‘वक्त की पुकार’, ‘गोकुल अपना गांव’, ‘आदमी के साथ’, ‘गहरे पानी पैठ’ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कुमाउनी में ‘धर्तिक पीड़’, ‘अगिन आंखर’, ‘फिर आल फागुण’, because ‘हिटने रवौ-हिटने रवौ’ चर्चित रहे हैं. उन्होंने ‘बुरांस’ काव्य संकलन, सुमित्रान्दन पंत स्मारिका और ‘हिमालय बंधु’ साप्ताहिक का संपादन किया. उनकी कुमाउनी कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘गोमती-गगास’ और ‘गोपालदत्त भट्ट की एक सौ कविताएं’ नाम से मथुरादत्त मठपाल जी ने किया है. अनेक संकलनों एवं पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख, कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य, यात्रा वृतांत, कहानियां प्रकाशित because हुयी हैं. कुमाऊं विश्वविद्यालय में भी उनकी रचनाएं शामिल हैं. विनोद कुमार सिंह बिष्ट ने ‘गोपालदत्त भट्ट की रचनाओं में सामाजिक चेतना’ शीर्षक से लघु शोध भी किया है. वे आकाशवाणी के बी-हाई ग्रेड गायक रहे हैं.

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मूल रूप से बागेश्वर जनपद की ग्रामसभा नौटा (कटारमल), गरुड़ के रहने वाले गोपालदत्त भट्ट जी का जन्म 12 दिसंबर, 1940 को हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा because पाटली गांव और जूनियर हाईस्कूल गरुड़ से किया. बाद में दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरुआत 1960 में की.

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उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुये कई संस्थानों ने उन्हें सम्मानित भी किया है. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, उत्तराखंड संस्कृति एवं कला विभाग द्वारा ‘वरिष्ठ विभूति सम्मान’, because उत्तराखंड भाषा संस्थान द्वारा ‘डॉ.. गोविन्द चातक पुरस्कार’, कुमाउनी भाषा एवं संस्कृति प्रसार समिति द्वारा ‘शेर सिंह ‘अनपढ’ पुरस्कार’, राष्ट्रीय लोकमंच उत्तराखंड द्वारा ‘मानव सेवा सम्मान’, द्वाराहाट महोत्सव द्वारा ‘उत्तराखंड गौरव सम्मान’ और उत्तराखंड अम्बेडकर समिति द्वारा अम्बेडकर सम्मान शामिल हैं.

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मूल रूप से बागेश्वर जनपद की ग्रामसभा नौटा (कटारमल), गरुड़ के रहने वाले गोपालदत्त भट्ट जी का जन्म 12 दिसंबर, 1940 को हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पाटली गांव because और जूनियर हाईस्कूल गरुड़ से किया. बाद में दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरुआत 1960 में की. वे अनेक शिक्षण संस्थाओं के निर्माण के साथ रचनात्मक कार्यों से जुड़ने लगे. 1963 में उनकी शादी हुयी. उन दिनों उनके गांव में स्कूल नहीं था. उन्होंने धैना में इंटर कालेज खोलने के लिये विधायक और मंत्री गोबर्धन तिवारी के समय में काम किया.

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इसी दौरान वे ‘लक्ष्मी आश्रम’ कौसानी से जुड़ गये. यही से 1963 में सर्वोदय सम्मेलन में भाग लेने इंदौर गये. वहां उनकी मुलाकात बिनोवा भावे के साथ हुयी. यहीं से उनकी एक प्रतिबद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता के सफर की शुरुआत हुयी. वे इंदौर में 1963 से 1973 तक लगभग एक दशक तक रहे. यहां रहकर उन्होंने सभी सर्वोदयी आंदोलनों में because हिस्सेदारी की. मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र मध्य धार, झाबुआ, पश्चिम निमाड़, इन्दौर तथा बस्तर जिलों में  शिक्षण एवं लोक शिक्षण का कार्य किया. भूदान, ग्रामदान, शराबबंदी के लिये बिनोवा भावे के साथ लंबी पद यात्रायें कीं. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चंबल और बुंदेलखंड में चले डाकू उन्मूलन अभियान में साथ रहे.

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एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में 1980 में गरुड़ विकासखंड के ज्येष्ठ प्रमुख और 1989 से 1996 तक जिला पंचायत सदस्य रहे. कांग्रेस संगठन के कई पदों पर रहे. because कई जिलों के प्रभारी बने. नारायणदत्त तिवारी और हरीश रावत सरकार में आपको कुमाऊं मंडल विकास निगम का उपाध्यक्ष बनाया गया. फिलहाल वे गरुड़ में रहते हैं. वे स्वस्थ रहें. दीर्घायु हों यही कामना है.

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गांधी शताब्दी वर्ष 1969 में मध्य प्रदेश के कई जिलों में शिविर श्रृंखला के संचालक रहे. सामाजिक चेतना के लिये उन्होंने मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तराखंड में लंबी पद because यात्रायें कीं. बाद में वे अपने भाई के कहने पर 1973 में वापस गांव आ गये. उस समय यहां कई तरह के आंदोलन चल रहे थे. वे वन बचाओ, नशाबंदी और बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलनों में शामिल हो गये. उत्तराखंड में कार्यरत कई सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं से आप लंबे समय तक जुड़े रहे.

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आपदा के समय राहत कार्यों से लेकर उत्तराखंड राज्य आंदोलन तक भूमिका रही. राजनीति में भी हस्तक्षेप किया. एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में 1980 में गरुड़ विकासखंड के because ज्येष्ठ प्रमुख और 1989 से 1996 तक जिला पंचायत सदस्य रहे. कांग्रेस संगठन के कई पदों पर रहे. कई जिलों के प्रभारी बने. नारायणदत्त तिवारी और हरीश रावत सरकार में आपको कुमाऊं मंडल विकास निगम का उपाध्यक्ष बनाया गया. फिलहाल वे गरुड़ में रहते हैं. वे स्वस्थ रहें. दीर्घायु हों यही कामना है.

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पहाड़ के सरोकारों से जुड़े हैं)

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