Tag: उत्तराखंड

इजा! नि थामि तेरी कईकई, सब जगां रई तेरी नराई

इजा! नि थामि तेरी कईकई, सब जगां रई तेरी नराई

साहित्यिक-हलचल
(शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-3) डॉ. मोहन चंद तिवारी कुमाऊं के यशस्वी साहित्यकार शम्भूदत्त सती की रचनाधर्मिता से पहाड़ के स्थानीय लोग प्रायः कम ही परिचित हैं किन्तु पिछले तीन दशकों से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक आंचलिक कुमाऊंनी साहित्यकार के रूप में सती जी ने अपनी एक खास पहचान बनाई है. शम्भूदत्त सती साहित्य की सभी विधाओं में लिखते रहे हैं. कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक और यहां तक की रेखाचित्र विधाओं में भी. पिछले 27 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं.इनकी सभी कृतियों में पहाड़ के भोगे हुए संघर्षपूर्ण जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है. वहां की लोक संस्कृति, पर्व-उत्सव, लोकगीत, ग्रामीण जीवन, विवाह गीत, झाड़- फूंक के मंत्र, और कुमाऊंनी शब्द सम्पदा आदि का वर्णन अत्यंत रोचक और मनोहारी शैली में किया गया है. पहाड़ की लोकसंस्कृति के संस्कार...
गोधूलि का दृश्य

गोधूलि का दृश्य

किस्से-कहानियां
लघुकथा अनुरूपा “अनु” गोधूलि का समय था. गाय बैल भी जंगल की ओर से लौट ही रहे थे.मैं भी घर के पास वाले खेत में नींबू के पेड़ की छांव में कलम और कागज लेकर बैठ गई.सोच रही थी कुछ लिखती हूं. क्योंकि उस पल का जो दृश्य था वह बड़ा ही लुभावना लग रहा था. सूरज डूब रहा था. उसकी लालिमा चीड़ से छपाछप लदे हुए पहाड़ो पर फैल रही थी. पंछियों का कलरव भी चली रहा था. हवा भी मंद-मंद गति से दस्तक दे रही थी.आस पास के घरों से बच्चों की आवाजें भी गूंज रही थी क्योंकि बच्चे खेल- खेल में किलकारियां मार रहे थे. कुत्ते भी आपस में रपटा झपटी कर रहे थे. मां के गाय दुहने का समय भी आ ही गया था. तभी मां तड़पडा़ती हुई बाल्टी लेकर गोशाला की ओर दूध दुहने निकलती है. और बाबा भी टेलीविजन बंद करके जैसे ही बाहर की ओर आते हैं.अपना ऊन का कोट और साफा पहन कर लकड़ियों के ढांग से दो-चार लकड़ियां उठाते है और आग जलाने रसोई की ओर चल ...
अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

अब कौन ‘नटार’ से डरता है…

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—40 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में खेती हो न हो लेकिन "नटार" हर खेत में होता था. "नटार" मतलब खेत से चिड़ियों को भगाने के लिए बनाया जाने वाला ढाँचा सा. तब खेतों में जानवरों से ज्यादा चिड़ियाँ because आती थीं. एक -दो नहीं बल्कि पूरा दल ही आता था. झुंगर, मंडुवा, तिल, गेहूं, जौ, सरसों और धान सबको सफाचट कर जाते थे. कई बार तो उनके दल को देखकर ईजा हा...हा ऊपर से बोल देती थीं लेकिन तब चिड़ियाँ निडर हुआ करती थीं. दूर भागने की जगह वो निर्भीक होकर दाने चुगती रहती थीं. ज्योतिष खेत में बीज बोने के बाद ईजा की दो प्रमुख चिंताएं होती थीं: एक 'बाड़' करना और दूसरा "नटार" लगाना. बाड़, पशुओं के लिए और नटार, चिड़ियों के लिए. बाड़ के लिए ईजा '"रम्भास" (एक पेड़) और अन्य लकड़ियां लेकर आती थीं. सम्बल से उन्हें 'घेंटने' के बाद लम्बी लकड़ियों को सीधा और छोटी लकड़ियों को आड़ा- because तिरछा ल...
‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

‘ओ इजा’ उपन्यास में कल्पित इतिहास चेतना और पहाड़ की लोक संस्कृति

साहित्यिक-हलचल
शम्भूदत्त सती का व्यक्तित्व व कृतित्व-2 डॉ. मोहन चन्द तिवारी पिछले लेख में शम्भूदत्त सती जी के 'ओ इजा' उपन्यास में नारी विमर्श से सम्बंधित चर्चा की गई थी. इस उपन्यास का एक दूसरा खास पहलू पहाड़ के लोगों की इतिहास चेतना और लोक संस्कृति से भी जुड़ा है,जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. पहाड़ वालों ने अपने इतिहास और धार्मिक तीर्थस्थानों के सम्बन्ध में सदियों से जो अनेक प्रकार की भ्रांतियां और अंधरूढ़ियां पालपोष रखी हैं,ज्यादातर वे या तो किंवदंतियों या जनश्रुतियों पर आधारित हैं या साम्राज्यवादी अंग्रेज इतिहासकारों की सोच के कारण पनपी हैं. पहाड़ी समाज में कस्तूरी की गंध की तरह रची बसी इन भ्रांतियों को आज कोई प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर खारिज भी करना चाहे तो नहीं कर सकता, क्योंकि ये आस्था और विश्वास के रूप में अपनी गहरी पैंठ बना चुकी हैं.यहां पहाड़ के विभिन्न मंदिरों और यह...
ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

ईजा को ‘पाख’ चाहिए ‘छत’ नहीं

Uncategorized
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—39 प्रकाश उप्रेती पहाड़ के घरों की संरचना में 'पाख' की बड़ी अहम भूमिका होती थी. "पाख" मतलब छत. इसकी पूरी संरचना में धूप, बरसात और एस्थेटिक का बड़ा ध्यान रखा जाता था. because पाख सुंदर भी लगे और टिकाऊ भी हो इसके लिए रामनगर से स्पेशल पत्थर मँगा कर लगाए जाते थे. रामनगर से पत्थर मंगाना तब कोई छोटी बात नहीं होती थी. अगर गाँव भर में कोई मँगा ले तो कहते थे-"सेठ आदिम छु, पख़्म हैं रामनगर बे पथर ल्या रहो" (सेठ आदमी है, छत के लिए रामनगर से पत्थर लाया है). ज्योतिष पाख की संरचना में एक 'धुरेणी' because (छत के बीचों- बीच बनी मेंड सी) दूसरी, "दन्यार" (छत के आगे के हिस्से में लगे पत्थर, जिनसे बारिश का पानी सीधे नीचे जाता था) और तीसरी चीज होती थी "धुँवार" (रोशन दान). इनसे ही पाख का एस्थेटिक बनता था. ज्योतिष पाख में जो "धुरेणी" होती थी वह सबसे महत्वपूर्ण थी. वही...
अपनी थाती-माटी से आज भी जुड़े हैं रवांल्‍टे

अपनी थाती-माटी से आज भी जुड़े हैं रवांल्‍टे

लोक पर्व-त्योहार
अपने पारंपरिक व्‍यंजनों और संस्‍कृति को आज भी संजोए हुए हैं रवांई-जौनपुर एवं जौनसार-बावर के बांशिदे आशिता डोभाल जब आप कहीं भी जाते हैं तो आपको वहां के परिवेश में एक नयापन व अनोखापन देखने को मिलता है और आप में एक अलग तरह की अनुभूति महसूस होती है. जब आप वहां की प्राकृतिक सुंदरता, संपन्नता, सांस्कृतिक विरासत, खान-पान, रहन—सहन, आभूषण और कपड़े—लत्ते इन चीजों से रू—ब—रू होते हैं तो वह आपको बार—बार अपनी ओर आकर्षित करते हैं और हमारा मन फिर उस स्थान पर जाने को लालायित हो उठता है. ऐसी ही एक सुंदर और सांस्कृतिक परिवेश से संपन्न घाटी है— 'रवांई घाटी' जो आज भी अपनी विरासतों को जिंदा रखे हुए हैं. आज हम आपको रवांई के एक प्रसिद्ध व्यंजन से रू—ब—रू करवा रहे हैं. इसको रंवाई के व्यंजनों का राजा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. बल्कि नाम लिखने से पहले मैं आपको बताना चाहूंगी कि रवांई घाटी में ...
ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

ओ हरिये ईजा..कुड़ी मथपन आग ए गो रे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—38 प्रकाश उप्रेती 'ओ...हरिये ईजा ..ओ.. हरिये ईज... त्यूमर कुड़ी मथपन आग ए गो रे' (हरीश की माँ... तुम्हारे घर के ऊपर तक आग पहुँच गई है). आज बात उसी- "जंगलों में लगने वाली आग" की. because मई-जून का महीना था. पत्ते सूख के झड़ चुके थे. पेड़ कहीं से भी खूबसूरत नहीं लग रहे थे. चीड़ के पेड़ों से 'पिरूहु' (चीड़ की घास) झड़ कर रास्तों और जंगलों में फैल गया था. रास्तों में इतनी फिसलन कि चलना मुश्किल हो रहा था. हर जगह पिरूहु ही पिरूहु था. ज्योतिष ईजा जब भी घास काटने जाती 'दाथुल' (दरांती) या लाठी से पिरुहु को रास्ते से हटातीं चलती थीं. यह उनका रोज का काम था. ईजा के साथ सूखी लकड़ी लेने हम भी जाते थे तो ईजा कहती थीं- because "भलि अये हां, इनुपन पिरूहु है रो रडले" (ठीक से आना, इधर चीड़ की घास बिखरी पड़ी है, फिसलना मत). हम संभल-संभल कर चलते थे. कई बार तो 'घस-घस' फिसल भी ...
“खाव” जब आबाद थे

“खाव” जब आबाद थे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—37 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पानी समस्या भी है और समाधान भी. एक समय में हमारे यहाँ पानी ही पानी था. इतना पानी कि सरकार ने जगह-जगह सीमेंट की बड़ी-बड़ी टंकियाँ बना डाली थी. जब हमारी पीढ़ी सीमेंट की टंकियाँ देख रही थी तो ठीक उससे पहले वाली पीढ़ी मिट्टी के "खाव" बना रही थी. आज बात उसी 'खाव' की. 'खाव' मतलब गाँवों के लोगों के द्वारा जल संरक्षण के लिए बनाए जाने वाले तालाब. बात थोड़ी पुरानी है लेकिन उतनी भी नहीं कि भुलाई और भूली जा सके. हमारे यहाँ कई जगहों के और गाँवों के नाम के साथ खाव लगा है.जैसे- रुचि खाव, खावे ढे, पैसि खाव, और भी कई खाव थे. कई जगहों की पहचान ही खाव से थी. जगहें तो अब भी हैं लेकिन खाव समतल मिट्टी में तब्दील हो गए हैं. सीमेंट ने पानी और खाव दोनों को निगल लिया. वह समय था जब पानी लेने के लिए सुबह-शाम 'पह्यरियों' (पानी लाने वाली महिलाएँ) की लाइ...
जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...
राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

अल्‍मोड़ा
डॉ. मोहन चन्द तिवारी अभी हाल ही में 22, जुलाई, 2020 को जालली क्षेत्र के सक्रिय कार्यकर्त्ता और समाजसेवी भैरब सती ने अमरनाथ, ग्राम प्रधान जालली; मनोज रावत, ग्राम प्रधान ईड़ा; सरपंच दीन दयाल काण्डपाल, मोहन काण्डपाल, नन्दन सिंह, गोपाल दत, पानदेव व महेश चन्द्र जोशी आदि क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल की अगुवाई करते हुए जालली क्षेत्र के विकास और वहां उप तहसील के कार्यालय की स्थापना की मांग को लेकर द्वाराहाट तहसील के एसडीएम श्री आर के पाण्डेय से मुलाकात की और उन्हें ज्ञापन भी सौंपा है. जालली क्षेत्रवासियों की एक मुख्य मांग है कि वहां एक साधन संपन्न कार्यालय खोला जाए और तुरंत वहां डाटा आपरेटर की नियुक्ति की जाए, ताकि इस कोरोना काल की चरमराई हुई राज्य परिवहन व्यवस्था के दौर में स्थानीय लोगों को अपने खतोंनी की नकल प्राप्त करने और परिवार रजिस्टर, आय प्रमाण पत्र,स्थायी निवास पत्र, जातिपत...