अपनी थाती-माटी से आज भी जुड़े हैं रवांल्‍टे

अपने पारंपरिक व्‍यंजनों और संस्‍कृति को आज भी संजोए हुए हैं रवांई-जौनपुर एवं जौनसार-बावर के बांशिदे

  • आशिता डोभाल

जब आप कहीं भी जाते हैं तो आपको वहां के परिवेश में एक नयापन व अनोखापन देखने को मिलता है और आप में एक अलग तरह की अनुभूति महसूस होती है. जब आप वहां की प्राकृतिक सुंदरता, संपन्नता, सांस्कृतिक विरासत, खान-पान, रहन—सहन, आभूषण और कपड़े—लत्ते इन चीजों से रू—ब—रू होते हैं तो वह आपको बार—बार अपनी ओर आकर्षित करते हैं और हमारा मन फिर उस स्थान पर जाने को लालायित हो उठता है. ऐसी ही एक सुंदर और सांस्कृतिक परिवेश से संपन्न घाटी है— ‘रवांई घाटी’ जो आज भी अपनी विरासतों को जिंदा रखे हुए हैं.

आज हम आपको रवांई के एक प्रसिद्ध व्यंजन से रू—ब—रू करवा रहे हैं. इसको रंवाई के व्यंजनों का राजा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. बल्कि नाम लिखने से पहले मैं आपको बताना चाहूंगी कि रवांई घाटी में 12 महीने के 12 त्यौहार मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और वह परम्परा आज भी बरकरार है. हर त्यौहार के पहले दिन इस व्यंजन को बनाने की परम्परा भी सदियों पुरानी है.

आज जब पहाड़ों में लोग पलायन की मार से जूझ रहे हैं तो वहीं एक ये घाटी ऐसी भी है जहां आजतक पलायन लेशमात्र भी नहीं है. रवांई घाटी अभीतक पलायन से अछूती है, कुछ लोग जो गांवों से बाहर नौकरी करने गए हुए हैं उनकी जड़े आज भी गांव में जमीं हुई हैं. वे हर तीज—त्यौहार या मेले थौलों में अपने गांव जरूर आते हैं. यहां के बाशिंदों ने अपनी संस्कृति और विरासत को ​आज भी बचाए रखा हुआ है. यहां के लोगो ने अपनी पुरानी चीज़ों को सहेज कर और समेट करके रखा हुआ है. यहां को बोली भाषा, खान—पान एकदम अलग हैं. रवांई—जौनपुर एवं जौनसार—बावर की संस्कृति लगभग मिलती—जुलती है. हमारे खान—पान भी लगभग एक जैसे ही है. इनसे सटे हिमाचल में भी लगभग चीजें एक—सी ही हैं. यमुना एवं टोंस घाटी का खान—पान एक जैसा ही है, बस फर्क है तो सिर्फ नाम का. यहां के व्यजनों का नाम बेशक अलग—लग हों पर उनको बनाने का तरीका एक जैसा ही है.

इसी कड़ी में आज हम आपको रवांई के एक प्रसिद्ध व्यंजन से रू—ब—रू करवा रहे हैं. इसको रंवाई के व्यंजनों का राजा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. बल्कि नाम लिखने से पहले मैं आपको बताना चाहूंगी कि रवांई घाटी में 12 महीने के 12 त्यौहार मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और वह परम्परा आज भी बरकरार है. हर त्यौहार के पहले दिन इस व्यंजन को बनाने की परम्परा भी सदियों पुरानी है.

आज मैं जिस व्यंजन की बात कर रही हूं उसका नाम है— ‘सीड़ा’ या ‘सीड़े’. जौनसार—बावर में इसे सिड़कु, पिनूये जैसे अलग—अलग नामों से जाना जाता है. दक्षिण भारत में इसे एलयप्पम कहा जाता है. संभवतः ये दक्षिण भारत से ही आया होगा, क्योंकि पहाड़ों में भी बहुत सारी जातियां दक्षिण भारत से आकर बसी है.

रवांई घाटी की जब हम बात करते हैं तो यहां के परम्परागत व्यंजनों की एक बहुत लंबी सूची है. इनमें अधिकत व्यंजन भाप से पकने वाले होते हैं और दूध से बनी चीजें दही मठ्ठा, मक्खन और घी के साथ ही खाए जाते हैं. यानी कि हमारे शरीर के विकास और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में जो भोजन सहायता करता है और एसिडिटी और कब्ज रहित है वो खानपान हमारे बुजुर्गों ने हमें विरासत में सौंपे हैं.

आज मैं जिस व्यंजन की बात कर रही हूं उसका नाम है— ‘सीड़ा’ या ‘सीड़े’. जौनसार—बावर में इसे सिड़कु, पिनूये जैसे अलग—अलग नामों से जाना जाता है. दक्षिण भारत में इसे एलयप्पम कहा जाता है. संभवतः ये दक्षिण भारत से ही आया होगा, क्योंकि पहाड़ों में भी बहुत सारी जातियां दक्षिण भारत से आकर बसी है. इस व्यंजन की खास बात यह है कि जो एक बार इसका स्वाद चख ले तो वह जिंदगी भर उस स्वाद को नहीं भूल सकता. ये जितना खूबसूरत दिखने में है उतना ही स्वाद और पौष्टिकता से भरपूर है.

सीड़ा बनाने के लिए चावल, गेंहू, मक्का तथा झंगोरे को निश्चित मात्रा में डाल कर आटा चक्की में पिसा जाता है, जिसे स्थानीय बोली में सिराड़ी कहा जाता है. यदि घराट में पिसा हुआ हो तो ज्यादा अच्छा होता है साथ ही स्टफिंग के लिए काला तिल, पोस्त (खसखस), नारियल का गोला, मूंगफली, अखरोट और गुड़ का मिश्रण बनाया जाता है. यदि किसी को मीठा पसंद नहीं है तो स्वादानुसार नमकीन भी बना सकते है, उसके लिए किसी भी दाल का मिश्रण तैयार कर सकते है. परंतु दाल यदि मसूर की हो तो ज्यादा अच्छा रहता है. फ्लेवर के लिए हमें चाहिए होते है बड़े नींबू के पते, जिससे सीड़े की खुशबू और स्वाद में चार चांद लग जाते हैं.

यदि आप रवांई घाटी आए और आपने सीड़ा/सीड़े के स्वाद का मजा नहीं लिया तो आपका आना अधूरा है और ये पकवान आपको किसी होटल और रेस्टोरेंट में नहीं मिलेगा ये मिलेगा तो सिर्फ गांव घर में. या हो सकता है किसी होम—स्टे में मिल जाए. हमारे घर में जब भी कोई त्यौहार होता है तो सीड़ा जरूर बनता है और खाते समय घी से भरी कटोरी भी मिलती है. पुराने समय में लोग पूरे घी की कटोरियां भरकर एकदम से खा लेते थे और घी भी घर पर ही बनता था वो घी देने की परंपरा आज भी बरकरार है. भले ही आज हम बाज़ार से कैमिकल युक्त घी या खाने पीने की चीजें खरीद कर खा रहे है, जिससे कटोरी भर घी खाना हम लोगों के बस में तो बिल्कुल भी नहीं है. बल्कि घी की हल्की सी ब्रशिंग करके भी सीड़े का स्वाद लाजवाब हो जाता है.

आज हम आए दिन एसिडिटी कब्ज आदि से परेशान रहते है और रोगप्रतिरोधक क्षमता हमारी ना के बराबर है, होगी भी क्यों नहीं, क्योंकि हमने अपने पुराने खानपान से मुंह मोड़ रखा है. हमें पसंद आता है साउथ का डोसा, इडली आदि और चाइनीज खाने को तो हमने उच्च श्रेणी का दर्जा दिया रहता है. हमारे घरों में सीड़ा बनने की बजाय मोमोज बनेंगे तो रोग प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा कहां से होगा. मैंने तो ये भी देखा है कि कई घरों के बच्चों को अपने परम्परागत व्यंजनों का नाम और स्वाद पता ही नहीं है, उनके घर में जब कभी सीड़ा बना ही नहीं तो ये कसूर उसका नहीं है बल्कि उन लोगों का है जो अपने खान—पान को अपनाने में शर्म महसूस करते है. प्रवासी में लोग अपने खाने को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं. मैंने खुद देखा है कि बाकी पहाड़ों से हट कर हमारे खाने को जब बाहर के लोगों ने चखा तो उनको हमारे खाने की बड़ी तारीफ तो की ही बल्कि उसकी वैल्यू भी समझाई.

हमारे उत्तराखंड में चारधाम यात्रा के जितने भी मार्ग है उन मार्गों पर बहुत कम जगह पहाड़ी थाली या पहाड़ी खाने के रेस्टोरेंट या होटल होंगे बल्कि राजस्थानी गुजराती और साउथ के खाने के बहुत सारे विकल्प आपको मिल जाएंगे पर पहाड़ी खाने की थाली आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेगी.

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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