
लघुकथा
- अनुरूपा “अनु”
गोधूलि का समय था. गाय बैल भी जंगल की ओर से लौट ही रहे थे.मैं भी घर के पास वाले खेत में नींबू के पेड़ की छांव में कलम और कागज लेकर बैठ गई.सोच रही थी कुछ लिखती हूं.
क्योंकि उस पल का जो दृश्य था वह बड़ा ही लुभावना लग रहा था. सूरज डूब रहा था. उसकी लालिमा चीड़ से छपाछप लदे हुए पहाड़ो पर फैल रही थी. पंछियों का कलरव भी चली रहा था. हवा भी मंद-मंद गति से दस्तक दे रही थी.आस पास के घरों से बच्चों की आवाजें भी गूंज रही थी क्योंकि बच्चे खेल- खेल में किलकारियां मार रहे थे. कुत्ते भी आपस में रपटा झपटी कर रहे थे. मां के गाय दुहने का समय भी आ ही गया था. तभी मां तड़पडा़ती हुई बाल्टी लेकर गोशाला की ओर दूध दुहने निकलती है. और बाबा भी टेलीविजन बंद करके जैसे ही बाहर की ओर आते हैं.अपना ऊन का कोट और साफा पहन कर लकड़ियों के ढांग से दो-चार लकड़ियां उठाते है और आग जलाने रसोई की ओर चल पड़ते हैं.
गोधूलि का यही परिदृश्य देखते ही देखते मानों मैं खो सी गई. मैं खुली आंखों से सपने देख रही थी. और सोच रही थी कि ये सारे दृश्य सदा इसी तरह चलते रहे. कभी भी मेरी आंखों से ओझल न हो. मैंने अपने इर्द-गिर्द जब नजर फेरी तो सन्नाटा छा रहा था. सूरज पूरी तरह से डूब चुका था. पहाड़ों ने भी रंग बदल दिया था. पहाड़ों पर लालिमा की जगह अब कालापन छा गया था. पंछियों का कलरव भी बंद हो गया था. बच्चों की किलकारियां अब सुनाई नही दे रही थी. मां-बाबा की बातें भी मुझ तक पहुंच नही पा रही थी. फिर मुझे अकेलापन महसूस होने लगा. मैं सच में उस पल अकेले थी क्योंकि गोधूली अपनी जगह जा चुकी थी.पहाड़ों के पीछे से चिडो़ के ऊपर से चांद भी निकल ही चुका था. मेरे कलम और कागज धरे के धरे रह गए कुछ भी नही लिख सकी. मानों मैं उस पल गोधूली में डूब गई थी.
(अनुरूपा ‘अनु’ युवा कवयित्री, नानई – मोरी, उत्तरकाशी (उत्तराखंड).)
लघु कथा गोधूलि आपका यह प्रयास बहुत अच्छा लगा। डूबते सूरज की लालिमा के साथ ही प्राकृतिक छटा की झलक आपकी इस लघु कथा में स्पष्ट झलक रही है…. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।