Tag: ईजा

बेटा! हरेला बोना कभी नहीं छोड़ना!

बेटा! हरेला बोना कभी नहीं छोड़ना!

लोक पर्व-त्योहार
आज हरेला है, ईजा की बहुत याद आती है… डॉ. मोहन चंद तिवारी आज श्रावण संक्रांति के दिन हरेले का  त्योहार है. सुबह से ही ईजा (मां) की और कॉलेज की बहुत याद आ रही है.आज मुझे हरेला लगाने के लिए न तो मेरी मां जीवित है because और न ही कॉलेज जाने की कोई जल्दी!कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए लगभग आठ साल हो गए हैं.ईजा के बिना हरेले का त्योहार कुछ सूना सूना सा लग रहा है.त्योहार की खुशी बहुत है किंतु आत्मतुष्टि बिल्कुल भी नहीं.पर मुझे संतोष है कि मातृत्वभाव का आशीर्वाद दिलाने वाला यह हरेला का त्यौहार आज भी मेरे और मेरे परिवारजनों के पास धरोहर के रूप में संरक्षित है. नेता जी मुझे याद है कि गर्मियों की छुट्टी के बाद हर साल 16 जुलाई को दिल्ली विश्वविद्यालय में कालेज खुलते थे तो संयोग से उसी दिन हरेले का त्यौहार भी होता था.मेरी मां मुझे because रात से ही सचेत करते हुए कहती- "च्यला यौ त्यौर कौलीज लै कौस छू ...
स्वयं सहायता समूह के जरिए पूर्ण हुआ स्वरोगार का स्वप्न

स्वयं सहायता समूह के जरिए पूर्ण हुआ स्वरोगार का स्वप्न

साहित्‍य-संस्कृति
प्रकाश उप्रेती   पहाड़ हमेशा आत्मनिर्भर रहे हैं. पहाड़ों के जीवन में निर्भरता का अर्थ सह-अस्तित्व है. यह सह-अस्तित्व का संबंध उन संसाधनों के साथ है जो पहाड़ी जीवनचर्या के because अपरिहार्य अंग हैं. इनमें जंगल, जमीन, जल, जानवर और जीवन का कठोर परिश्रम शामिल है. इधर अब गांव में कई तरह की योजनाओं के जरिए पहाड़ अपनी मेहनत से नई करवट ले रहा है. इस करवट की एक आहट आपको खोपड़ा गांव में दिखाई देगी. महिला स्वयं सहायता समूह पिछले साल गांव में ‘महिला स्वयं सहायता समूह’ की स्थापना हुई. यह विचार ग्राम पंचायत की तरफ से एक मीटिंग में रखा गया था. ईजा उस मीटिंग में गई हुई थीं. ईजा बताती हैं कि- ‘उस because मीटिंग में हमारी ‘पधानी’ के अलावा दो महिलाएं अल्मोड़ा से आई हुई थीं’. हमारी ग्राम पंचायत में 4 गांव आते हैं. हर गांव से महिलाएं आई हुई थीं. कहीं से चार, कहीं से दस और कहीं से तीन ही. हमारे गांव से द...
आब कब आलै ईजा…

आब कब आलै ईजा…

किस्से-कहानियां
डॉ. रेखा उप्रेती  ‘‘भलि है रै छै आमाऽ...’’ गोठ के किवाड़ की चौखट पर आकर खड़ी आमा के पैरों में झुकते हुए हेम ने कहा. ‘‘को छै तु?’’ आँखें मिचमिचाते हुए पहचानने की कोशिश की आमा ने... ‘‘आमा मी’’ हेम... ‘‘को मी’’... ‘‘अरे मैं हेम... तुम्हारा नाती..’’ आमा कुछ कहती तभी बाहर घिरे अँधेरे से फिर आवाज आयी- ‘‘नमस्ते अम्मा जी!’’ उत्तराखंड ‘‘आब तु कौ छै?’’ आमा की खीझती-सी आवाज पर हेम को जोर से हँसी आ गयी. ‘‘भीतर तो आने दे आमा , बताता हूँ. हेम ने आमा को अपने अंकवार में ले गोठ की ओर ठेला. उत्तराखंड गोठ में जलते चूल्हे के प्रकाश में हेम ने देखा, तवा चढ़ा हुआ है और एक भदेली में हरी साग.. ‘‘अरे, तेरा खाना बन गया आमा... बहुत भूख लगी है.’’ उत्तराखंड ‘‘पैली ये बता अधरात में काँ बट आ रहा तू और य लौंड को छू त्येर दगड़?’’ आमा ने गोठ के फर्श पर दरी बिछाते हुए कहा... फिर कुछ सोचते हुए बोली  ‘‘ भीतेर ...
ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

ईज़ा शब्द अभिव्यक्ति की सीमा  से परे अनुभूति का रिश्ता  है  

आधी आबादी
भुवन चंद्र पंत ईजा के संबोधन में जो लोकजीवन की सौंधी महक है, उसके समकक्ष माँ, मम्मी या मॉम में रिश्तों के तासीर की वह गर्माहट कहां? ईजा शब्द के संबोधन में एक ऐसी ग्रामीण because महिला की छवि स्वतः आँखों  के सम्मुख उभरकर आती है, जो त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति है, जिसमें आत्मसुख का परित्याग कर खुद को परिवार के लिए समर्पित होने का त्याग एवं बलिदान है, बच्चों की परवरिश के लिए समयाभाव के बावजूद उनकी खुशियों के लिए कोई कसर न छोड़ने वाली ईजा का कोई सानी नहीं. हमारी थोड़ा बच्चों की शरारत पर because मीठी झि़ड़की देने और उसी क्षण शिबौऽऽ कहकर उसके सर पर हाथ फिराने और मुंह मलासने वाली ईजा, जंगल से लौटकर झटपट बिना पानी की घूँट पीये बच्चे को अपने दूध पर लगाने वाली ईजा, पीठ पर बच्चे को बांधकर खेतों में निराई-गुड़ाई करने वाली ईजा, धोती से सिर बांधकर आंगन में ओखल कूटती ईजा, सुबह सबेरे गागर सिर प...
अमावस्या की रात गध्यर में ‘छाव’, मसाण

अमावस्या की रात गध्यर में ‘छाव’, मसाण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—61 प्रकाश उप्रेती गाँव में किसी को कानों-कान खबर नहीं थी. शाम को नोह पानी लेने के लिए जमा हुए बच्चों के बीच में जरूर गहमागहमी थी- 'हरि कुक भो टेलीविजन आमो बल' because (हरीश लोगों के घर में कल टेलीविजन आ रहा है). भुवन 'का' (चाचा) की इस जानकारी को पुष्ट करते हुए चंदन ने कहा- 'हम ले यसे सुणेमुं' (हम भी ऐसा ही सुन रहे हैं). इसके बाद तो नोह के चारों ओर बैठे लोगों के बीच से टेलीविजन पर दुनिया भर का ज्ञान उमड़ आया.  so जिसने भी पहले टीवी देखा हुआ था वह अपनी तई भरपूर ज्ञान दे रहा था. उसमें हम जैसे लोग भी थे जिन्होंने टीवी सुना भर ही था लेकिन मुफ्त के ज्ञान देने में हम भी पीछे नहीं थे. टीवी में फ़िल्म आती है . यह ज्ञान सबके पास था. इसके आगे का ज्ञान किसी को नहीं था. इसके आगे तो एंटीना, से लेकर उसके आकार-प्रकार पर बात चल रही थी. टेलीविजन इस ज्ञान के चक्कर...
आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीव...
लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

लकड़ी जो लकड़ी को “फोड़ने” में सहारा देती

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—57 प्रकाश उप्रेती पहाड़ की संरचना में लकड़ी कई रूपों में उपस्थित है. वहाँ लकड़ी सिर्फ लकड़ी नहीं रहती. उसके कई रूप, नाम और प्रयोग हो जाते हैं. इसलिए जंगलों पर निर्भरता पर्यावरण के कारण नहीं बल्कि जीवन के कारण होती है. because जंगल, जमीन, जल, सबका संबंध जीवन से है. जीवन, जीव और जंगलातों के बीच अन्योश्रित संबंध होता है. इन्हें अलग-अलग करके पहाड़ को नहीं समझा जा सकता. इन सबसे ही पहाड़ और वहाँ का जीवन बनता है. पहाड़ आज बात उस लकड़ी की जो लकड़ी को ही 'फोड़ने' (फाड़ने) में सहारा देती थी. इसके बिना घर पर आप लकड़ी फोड़ ही नहीं सकते थे. इसका मसला वैसे ही था जैसा कबीर कहते हैं न- “अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट”. ईजा तो इसे कभी 'गोठ' (घर के नीचे वाला हिस्सा) तो कभी “छन” (जहां गाय-भैंस बाँधी जाती) के अंदर संभाल कर because रखती थीं. इसका काम सिर्फ लकड़ी को सहारा देने ...
पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

पारले-जी ने की ‘विज्ञापन स्ट्राइक’ (‘तुम’- ‘हम’)

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है. शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए 'लॉक डाउन' ने सभी को 'वर्क फ्राम होम' के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं. इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है. श्रृंखला, पहाड़ और because वहाँ ...
बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

बिना पड़ाव (बिसोंण) के नहीं चढ़ा जाए पहाड़

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—55 प्रकाश उप्रेती पहाड़ में पड़ाव का बड़ा महत्व है. इस बात को हमसे ज्यादा वो समझते थे जिनकी समझ को हम नासमझ मानते हैं. हर रास्ते पर बैठने के लिए कुछ पड़ाव होते थे ताकि पथिक वहाँ  बैठकर सुस्ता सके. दुकान से आने वाले रास्ते से लेकर पानी, घास लाने वाले सभी रास्तों में कुछ जगहें ऐसी बना दी जाती थीं जहां पर थका हुआ इंसान because थोड़ा आराम कर सके. बुबू बताते थे कि जब वो रामनगर से पैदल सामान लेकर आते थे तो 5 दिन लगते और बीच में 12 पड़ाव पड़ते थे. वो इन पड़ावों के अलावा कहीं और नहीं बैठते थे. पत्थर अब हमारा बाजार केदार हो गया है. यह गाँव से चार एक किलोमीटर तो होगा ही. पहले इस बाजार में बड़ी रौनक रहती थी. मिठाई से लेकर किताब, कंचे, राशन, चक्की सभी की दुकानें थीं. सबसे ज्यादा तो चाय और सब्जी की दुकानें होती थीं. शाम के समय तो आस-पास के गांव वालों से पूरा बाजार पट...
सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—54 प्रकाश उप्रेती सर्दियों के दिन थे.because हम सभी गोठ में चूल्हे के पास बैठे हुए थे. ईजा रोटी बना रही थीं. हम आग 'ताप' रहे थे. हाथ से ज्यादा ठंड मुझे पाँव में लगती थी. मैं थोड़ी-थोड़ी देर में चूल्हे में जल रही आग की तरफ दोनों पैरों के तलुवे खड़े कर देता था. जैसे ही मैं ऐसा करता तो ईजा चट से "फूँकणी' (आग फूंकने वाला) उठाती और एक 'कटाक' लगा देती थीं. साथ में कहतीं- "चूल हन खुट लगानि रे, पैतो तते बे ररणी है जानि" (गुस्से में, चूल्हे में पाँव लगाता है, तलुवों को गर्म करने से पैर फिसलने वाले हो जाते हैं). 'फूँकणी' की कटाक के साथ ही झट से मैं पांव नीचे कर लेता था. कभी लग जाती और कभी बच जाता था. गोठ गोठ में रोटी बनाते हुए भी ईजा के कान बाहर को ही लगे रहते थे. बाहर से आने वाली आवाज के साथ ईजा but चौकनी हो जाती थीं. कभी बाघ के "गुरजने" (गर्जन), कभी किसी क...