बेटा! हरेला बोना कभी नहीं छोड़ना!

आज हरेला है, ईजा की बहुत याद आती है…

डॉ. मोहन चंद तिवारी

आज श्रावण संक्रांति के दिन हरेले का  त्योहार है. सुबह से ही ईजा (मां) की और कॉलेज की बहुत याद आ रही है.आज मुझे हरेला लगाने के लिए न तो मेरी मां जीवित है because और न ही कॉलेज जाने की कोई जल्दी!कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए लगभग आठ साल हो गए हैं.ईजा के बिना हरेले का त्योहार कुछ सूना सूना सा लग रहा है.त्योहार की खुशी बहुत है किंतु आत्मतुष्टि बिल्कुल भी नहीं.पर मुझे संतोष है कि मातृत्वभाव का आशीर्वाद दिलाने वाला यह हरेला का त्यौहार आज भी मेरे और मेरे परिवारजनों के पास धरोहर के रूप में संरक्षित है.

नेता जी

मुझे याद है कि गर्मियों की छुट्टी के बाद हर साल 16 जुलाई को दिल्ली विश्वविद्यालय में कालेज खुलते थे तो संयोग से उसी दिन हरेले का त्यौहार भी होता था.मेरी मां मुझे because रात से ही सचेत करते हुए कहती- “च्यला यौ त्यौर कौलीज लै कौस छू हमेशा हर्यावक त्यारा दिन खुलों,राति पर जल्दि उठियै,तगें मैं सबूं है बे पैलि हर्याव लगोंल आपणि ड्यूटी पार देर झन करिये” (बेटा ये तेरा कालेज भी कैसा है, सदा हरले के त्योहार के दिन ही खुलता है,सुबह जल्दी उठना, तुझे मैं सबसे पहले हरेला लगाउंगी,अपनी ड्यूटी में देर मत करना)

नेता जी

मेरा परिवार अपनी पुरातन परम्पराओं का पालन करते हुए अपनी ईजा के कहने पर हर साल हरेला बोता आया है.इसलिए भी आज इस हरेले के दिन सुबह से ही मुझे अपनी स्वर्गीय ईजा की बहुत याद आ रही है.ईजा आषाढ़ के लगते ही हरेला बोने के दिनों की याद परिवार जनों को दिलाया करती थी.वह एक महीना पहले से because ही हरेले में बोए जाने वाले सात अनाजों का इंतजाम करने के लिए मुझे कहा करती. ईजा मुझ से खास तौर से कहती थी- “मोहना! हमौर हर्याव नौमी हर्याव बोई जां याद धरिये, कति कति दशमी हर्याव लै बुनी. आपण आपण रिवाज छू, च्यला! हर्याव बुण कभें झन छोड़िए!” (मोहन! हमारे घर मैं नौ दिनों का हरेला बोया जाता है,याद रखना, कहीं कहीं दस दिनों का हरेला भी बोते हैं, अपना अपना रिवाज है. बेटा! हरेला बोना कभी नहीं छोड़ना!)

नेता जी

मैं अपनी इजा से प्रायः सवाल करता कि हम त्याड़ी लोग नौ दिनों का हरेला क्यों बोते हैं? दस या ग्यारह दिन का क्यों नहीं? तो इजा का जवाब होता “हमरि इष्ट देवि नौ दुर्गा छू,यौ बजै ल हम नवमी हर्याव बुनूं (हमारी इष्ट देवी नव दुर्गा है इस वजह से हम लोग नौ दिनों का हरेला बोते हैं) फिर मैं हरेले से जुड़े और बहुत सारे तार्किक because सवाल अपनी इजा से पूछता तो उसके पास ज्यादा कुछ कहने को नहीं होता. बस मायूस सी होती हुई इतना कह कर चुप हो जाती “च्यला! मैं ज्यादा क्ये नि जाणोन! हमार बुजुर्गो ल बनाई यों त्योहार कें कभें झन छोड़िया! बस यतुकै जांणनूं”  (बेटा! में ज्यादा कुछ नहीं जानती!बस इतना ही जानती हूं कि हमारे बुजुर्गों द्वारा बनाए गए इन त्योहारों को मनाना कभी मत छोड़ना)

नेता जी

आज हरेले के मौके पर अपनी ईजा के साथ समय समय पर किया गया वार्त्तालाप भी मुझे बहुत याद आता है. मेरा परिवार अपनी इजा के इस आदेश “हमार बुजुर्गो ल बनाई यों त्योहार because कें कभें झन छोड़िया!” का आगम वाक्य की तरह पालन करता आया है. चाहे कितनी ही विपरीत परिस्थितियां हों मेरा परिवार हरेला बोने और काटने की इस परम्परा का पालन मातृआज्ञा के रूप में करता आया है.

नेता जी

ईजा हर साल कालेज में जाने से पहले मुझे हरेला लगाते हुए “जी रये! जागि रये!” का आशीर्वाद देकर मुझे कर्त्तव्यनिष्ठा का जो पाठ पढ़ाती थी,वे दुदबोलि के शब्द मेरे मन और मस्तिष्क because में आज भी ब्रह्मवाक्य की तरह गूंज रहे हैं. जिस दिन मेरे कालेज में अध्ययन अध्यापन जैसे शुभकार्य का प्रारम्भ हो रहा हो और उसी दिन एक मां अपने पुत्र को यशस्वी भव और दीर्घायुष्य का आशीर्वाद दे रही हो तो वह दिन और वह पुत्र कितना सौभाग्यशाली रहा होगा! इसका अहसास मुझे तब उतना नहीं था, जितना आज ईजा के नहीं रहने पर हो रहा है.

नेता जी

आज मुझे अपने कठोर स्वाध्याय because और सारस्वत साधना के परिणामस्वरूप जो भी यश और सम्मान मिला और अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि की सेवा के रूप में अपनी सारस्वत साधना के रूप मैं जो भी योगदान दे पाया,वह सब मेरी ईजा का हरेले के दिन दिया हुआ प्रेरणापरक आशीर्वाद ही था.ईजा चली गई मगर उनका दिया हुआ आशीर्वाद आज भी फलीभूत हो रहा है.

नेता जी

अब मेरी पत्नी ही परिवार की सबसे बड़ी और वरिष्ठ बन गई है. वही मां, सास, दादी, नानी, भाभी,  मामी इन सारे रिश्तों का दायित्व निभाते हुए सभी परिवारजनों को हरेला लगाती है.because समय कब बदल गया,पता ही नहीं चला.किन्तु हरेला त्योहार आज भी मेरे परिवार जनों को ईजा की तरह हरेले की आशीष दे रहा है-

नेता जी

जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस because हरी जड़ हो,ब्यर जस फइये,
हिमाल में because ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में so पांणि छन तक,
यो दिन औरbut यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चारbecause उकाव,
धरती चार soचकाव है जये,
स्याव कस but बुद्धि हो,
स्यू जस because पराण हो.

नेता जी

अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की because तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले. जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें. आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”

नेता जी

-ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं,जो हरेले के because अवसर पर घर की बड़ी बजुर्ग महिलाएं अपने बच्चों,युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं.

नेता जी

दरअसल, हरेले का त्योहार मनाने में हमको आनंद की अपार अनुभूति इसलिए भी होती है क्योंकि हम अपनी मातृतुल्य लोक संस्कृति की पहचान से जुड़ रहे होते हैं, हम सांस्कृतिक because पर्व हरेला की गागर से अपनी लोक संस्कृति की जड़ों को पानी देते हुए अपने सूखे रूखे मन में हरियाली का भाव ला रहे होते हैं और इससे हम स्वयं को तरो-ताजा भी अनुभव कर रहे होते हैं.हम चाहे जितनी भी तरक्की कर लें या अपार धनसम्पत्ति के मालिक बन जाएं,हमें अपनी क्षेत्रीय लोक संस्कृति के मूल्यों से नहीं कटना चाहिए.

नेता जी

पर आज विडंबना यह है कि महानगर संस्कृति के प्रभाव के कारण हरेला के पर्व का वास्तविक संदेश समाज से कहीं गायब सा हो गया है. पहाड़ों के पर्वों,त्योहारों के बारे में ही पहाड़ के because लोगों की सोच बदल गई है. सब कुछ सांकेतिक रस्म निभाई जैसा हो गया है. इस त्योहार के माध्यम से पारिवारिक एकता और सौहार्द का सन्देश कहीं खो सा गया है. आज भी मुझे ईजा के ये बोल हरेले के दिन  यह याद दिलाते रहते हैं- “च्यला! हमार बुजुर्गो क बनाई यों हर्याव बुणक त्योहार कें कभें झन छोड़िए!”

नेता जी

आप सभी को हरेला पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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