प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है. शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया. इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं.
इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है. श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीवन को अनुभव व अनुभूतियों के साथ प्रस्तुत करती है. पहाड़ी जीवन के रोचक किस्सों से भरपूर इस सीरीज की धुरी ‘ईजा’ हैं। ईजा की आँखों से पहाड़ का वो जीवन कई हिस्सों और किस्सों में अभिव्यक्ति पा रहा है. हमने कोशिश की है उनके इन संस्मरणों को अपनी वेबसाइट के माध्यम से आप लोगों तक पहुंचा सकें. पेश है उनकी 56वीं किस्त…
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—56
- प्रकाश उप्रेती
इन दिनों फिर से आम पारले-जी खास
हो गया है. आम की चर्चा अक्सर कुछ खास करने पर ही होती है, नहीं तो चर्चा के लिए ‘तैमूर’ और ‘रिया’ हैं. अपनी चर्चाओं में किसान आंदोलन, बेरोजगारी, कोरोना जैसी महामारी को हवा कर देने वालों को विज्ञापन नहीं देने के फैसले के कारण ही यह आम बिस्कुट पारले-जी खास हो गया है.बुरांस
बजाज के बाद पारले- जी कंपनी ने फैसला किया कि वह सामाजिक सौहार्द बिगड़ने वालों पर विज्ञापन स्ट्राइक करेंगे. पारले जी कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी कृष्णराव बुद्ध का कहना है,
‘कंपनी समाज में जहर घोलने वाले कंटेट को प्रसारित करने वाले समाचार चैनलों पर विज्ञापन नहीं देगी. साथ ही हम ऐसी संभावनाएं तलाश रहे हैं, जिसमें अन्य विज्ञापनकर्ता एक साथ आएं और समाचार चैनलों पर विज्ञापन देने के अपने खर्च पर संयम रखें, ताकि सभी समाचार चैनलों को सीधा मैसेज मिले कि उन्हें अपने कंटेट में बदलाव लाना होगा.’ यही बात इस आम को खास बनाती है.बुरांस
अपना रिश्ता तो इस बिस्कुट से
लैला-मजनूं, कॉलेज-कैंटीन, प्रेम और पहाड़ जैसा है. रिश्तेदारों से लेकर हर आमो-खास यही बिस्कुट लाते थे. गाँव में जिससे हम नहीं बोलते थे उसके लिए भी हमारे रिश्तेदार एक बिस्किट का पैकेट ले आते थे. रिश्तों में मिठास ये आरम्भ से भरता आया है. अब तो बस उसको बचा रहा है.गुलुको
पार्ले गुलुको
बिस्किट की पहली खेप 1938 में तैयार हुई. सिर्फ 12 लोगों के साथ शुरू हुई यह यात्रा 21वीं सदी में सबसे ज्यादा बिकने वाले बिस्किट तक पहुँची गई. ‘ऑरेंज कैंडी’ से शुरुआत करने वाली यह कंपनी धीरे-धीरे जीभ से जीवन में घुल गई.
बिस्किट
एक ‘साथ’
जो अटूट है. बहुत कुछ बंटा, यहां तक कि मुल्क भी लेकिन यही अटूट रहा. इसका सफर ब्रिटिश दौर से लेकर यंग इंडिया तक बदस्तूर जारी है. लगभग 8 दशकों के हमराह की पहचान ‘हम’ और ‘तुम’ है. इन दशकों में ‘हम’ में ‘तुम’ और ‘तुम’ में ‘हम’ घुलते रहे. हर सुबह-शाम की चाय में तुम, रिश्तेदारों की थैली में तुम, स्कूल के बैग में तुम, मेहमान नवाजी की प्लेट में तुम और लॉक डाउन के अकेलेपन में तुम ही तो थे जो ‘हम’ के हमसाया बने रहे.बुरांस
1928-29 में मोहन लाल
दयाल ने जो सपना मुंबई के “विले पार्ले” इलाके में एक पुरानी फैक्ट्री के रूप में देखा वही 1938 तक आते-आते “पार्ले गुलुको” बन गया. पार्ले गुलुको बिस्किट की पहली खेप 1938 में तैयार हुई. सिर्फ 12 लोगों के साथ शुरू हुई यह यात्रा 21वीं सदी में सबसे ज्यादा बिकने वाले बिस्किट तक पहुँची गई. ‘ऑरेंज कैंडी’ से शुरुआत करने वाली यह कंपनी धीरे-धीरे जीभ से जीवन में घुल गई.बिस्किट
अभी लोग स्वाद में डूबे ही थे
कि 6-7 साल के अंदर ही ‘पार्ले गुलुको’, इस वादे के साथ बंद हो गया कि जैसे ही गेहूँ की खपत बढ़ेगी तो ये ‘तुम’, ‘हम’ के बीच लौट आएगा. ‘तुम’ 1981 में लौटा लेकिन ‘जी’ को साथ लेकर. अब ‘तुम’ “पार्ले गुलुको” नहीं “पार्ले जी” हो गया था.
बिस्किट
अपने आरंभिक काल से
ही ‘तुम’ का स्वाद अंग्रेजों से लेकर भारतीयों तक की ज़बान पर चढ़ चुका था. किफायती दाम और गेहूँ के स्वाद ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया. अब आम और खास दोनों की चाय में कुछ था जो घुल रहा था. वो कुछ ‘तुम’ ही तो थे.बिस्किट
अपने जन्म के कुछ वर्षों के
बाद ही गेहूँ का प्रोडक्शन कम होने के कारण ‘तुम’ को बंद करना पड़ा. अभी लोग स्वाद में डूबे ही थे कि 6-7 साल के अंदर ही ‘पार्ले गुलुको’, इस वादे के साथ बंद हो गया कि जैसे ही गेहूँ की खपत बढ़ेगी तो ये ‘तुम’, ‘हम’ के बीच लौट आएगा. ‘तुम’ 1981 में लौटा लेकिन ‘जी’ को साथ लेकर. अब ‘तुम’ “पार्ले गुलुको” नहीं “पार्ले जी” हो गया था.बिस्किट
इस लॉक डाउन में पैदल चलते
‘हम’ से लेकर अकेले कमरे में बंद ‘मैं’ तक का साथ ‘तुम’ ने ही तो दिया. अब ‘तुम’ के इस फैसले ने ‘हम’ और we के वजूद को जिंदा कर दिया है.बिस्किट
नोट- चित्र पारले-
जी की वेबसाइट से लिए गए हैं.(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)