सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—54

  • प्रकाश उप्रेती

सर्दियों के दिन थे.because हम सभी गोठ में चूल्हे के पास बैठे हुए थे. ईजा रोटी बना रही थीं. हम आग ‘ताप’ रहे थे. हाथ से ज्यादा ठंड मुझे पाँव में लगती थी. मैं थोड़ी-थोड़ी देर में चूल्हे में जल रही आग की तरफ दोनों पैरों के तलुवे खड़े कर देता था. जैसे ही मैं ऐसा करता तो ईजा चट से “फूँकणी’ (आग फूंकने वाला) उठाती और एक ‘कटाक’ लगा देती थीं. साथ में कहतीं- “चूल हन खुट लगानि रे, पैतो तते बे ररणी है जानि” (गुस्से में, चूल्हे में पाँव लगाता है, तलुवों को गर्म करने से पैर फिसलने वाले हो जाते हैं). ‘फूँकणी’ की कटाक के साथ ही झट से मैं पांव नीचे कर लेता था. कभी लग जाती और कभी बच जाता था.

गोठ

गोठ में रोटी बनाते हुए भी ईजा के कान बाहर को ही लगे रहते थे. बाहर से आने वाली आवाज के साथ ईजा but चौकनी हो जाती थीं. कभी बाघ के “गुरजने” (गर्जन), कभी किसी के झगड़े, कभी लोमड़ी के रोने और कभी कुत्ते के भौंकने की आवाज आती रहती थी. घुप्प अँधेरे और सन्नाटे में हर आवाज स्पष्ट और तेज सुनाई देती थी. कभी-कभी छन से गाय, बैल और भैंस के गले में बंधी घण्टी की आवाज आती तो ईजा तुरंत चूल्हे से ‘मुछाव’ (जली हुई लकड़ी) निकाल कर बाहर को दौड़ पड़ती थीं. बाहर जाकर छन की तरफ सबको देखतीं और हा.. हुरच.. करके गोठ आ जाती थीं.

आवाज

गोठ आकर कहती थीं- “के देख्य नल वेल becauseतबे घानि बजा मो, ठाड़ ले है रो”( कुछ देखा होगा उसने, तभी घण्टी बज रही है, खड़ा भी हो रखा है). ‘कुछ देखने’ का अर्थ बाघ से  होता था. यह सुनकर हम चूल्हे के और नजदीक आ जाते थे.

सुनते

तब एक आवाज ऐसी आती थी जिसे सुनकर ईजा को ‘बड़म’ (घर के नीचे और आस-पास की क्यारियाँ) लगाई हुई सब्जी की चिन्ता हो जाती थी. खासकर आलू और प्याज की. वो आवाज ऐसी becauseहोती थी जैसे कोई सीटी बजा रहा हो. सूं.. सूं की आवाज आती थी. रात के सन्नाटे में वह आवाज सीधे कानों में पड़ती थी. ईजा उस आवाज को सुनकर कहतीं- “आ गो रे सॉल” (साही आ गया). ईजा के मुख से इतना सुनते ही हमारे कान खड़े हो जाते थे. हम भी उस आवाज को सुनते थे. कुछ-कुछ अंतराल पर आवाज सुनाई देती रहती थी.

ही

सूं..सूं की आवाज सुनते ही ईजा नीचे को पत्थर फेंकने लग जाती थीं. कुछ देर आवाज रुकती लेकिन फिर शुरू हो जाती थी. रात में वो दिखाई तो देता नहीं था लेकिन उसकी आवाज becauseऔर बड़ में मिट्टी खोदने की आवाज सोते हुए भी सुनाई देती थी. ईजा भतेर से ही कई बार खाँसती लेकिन सॉल इन आवाज का आदी हो चुका था. बिना उजाले और पत्थर के तो भागता नहीं था. उसके आने का समय रात का पहला पहर ही होता था. इसलिए कभी पकड़ में भी नहीं आता था. एक-दो गांवों वालों ने करंट भी लगाने की कोशिश की लेकिन नाकाम ही रहे. ईजा कभी करंट के पक्ष में नहीं रही, कहती थीं- “वेल ले के खाणों होय” (उसने भी कुछ खाना ही हुआ).

ईजा

माना जाता है कि सॉल केbecause शरीर पर 30 हजार से ज्यादा काँटे होते हैं. रहता जमीन के अंदर सुरँग बनाकर ही था. बाहर सिर्फ रात में निकलता था. इसके शिकार की चर्चा गांव भर में काफी होती थी. लोगों का मानना था कि इसका शिकार बहुत गर्म और स्वादिष्ट होता है. परंतु इसे मार पाना लगभग असंभव होता था.

नीचे

‘सॉल’ को ‘साही’ (Porcupine) भी कहा जाता है. इसका शरीर आधे काले और सफेद रंग के काँटों से भरा होता है. सिर्फ गर्दन ही खाली रहती है. यह छोटी बिल्ली के becauseबराबर होता था. हद से ज्यादा डरपोक और पकड़ में बाघ के भी नहीं आता था. चलते हुए अक्सर पीछे को मिसाइल माफ़िक काँटे छोड़ते जाता था. माना जाता है कि इसके शरीर पर 30 हजार से ज्यादा काँटे होते हैं. रहता जमीन के अंदर सुरँग बनाकर ही था. बाहर सिर्फ रात में निकलता था. इसके शिकार की चर्चा गांव भर में काफी होती थी. लोगों का मानना था कि इसका शिकार बहुत गर्म और स्वादिष्ट होता है. परंतु इसे मार पाना लगभग असंभव होता था. फिर भी कुछ लोग घेर-घार के मार भी देते थे.

को

अब सॉल की जगह becauseसूअर ने ले ली है. हमारे इलाके में जंगली  सूअरों का काफी आंतक है. खेत में कुछ भी बो दो, वो सब खोद देते हैं. सॉल तो अकेले आता था ये तो पूरे दल-बल के साथ आते हैं. डरते भी कम ही हैं, इंसान इनसे ज्यादा डरता है. ईजा कह रही थीं- “अब सॉल हरे गिं” (सॉल अब गुम हो गए हैं). ईजा सही कहती हैं, सॉल के साथ पहाड़ों का बहुत कुछ है जो गुम हो गया है…

पत्थर

एक बार हम ‘नान पाटेई’ (जगह का नाम) “गवा” (गाय-भैंस को चराने) गए हुए थे. हमने देखा कि वहाँ एक “उढयार” because(सुरँग) के बाहर “सॉल तीर” (साही के काँट या Quills) बिखरे हुए थे. इससे हमें अंदाज लगा कि अंदर जरूर सॉल होगा. हमने बाहर से आग जलाकर धुँआ लगा दिया था. अंदर धुँआ भर जाने के कारण सॉल बाहर निकला और फिर गोली की रफ़्तार से ‘सॉल तीर’ छोड़ते हुए भागने लगा. यह पहला मौका था जब बहुत नजदीक से सॉल को देखा था.

गोठ

हमें जहां भी “सॉल तीर” मिलते थे,उन्हें becauseउठाकर घर ले आते थे. घर में “डावपन” बहुत से सॉल तीर रखे हुए थे. इनका एक इस्तेमाल तो पूजा-पाठ में होता था दूसरा एक खास तरह के काँटे को निकालने में भी इनका प्रयोग किया जाता था. अक्सर इनके नुकीलेपन से ज्यादा, रंग हमको आकर्षित करता था. इसलिए भी उठा लाते थे.

सॉल

सॉल जब भी बड में आता था तो becauseजो कुछ भी वहाँ उगा होता,  सब खोद-खोद कर उनकी जड़ें खा जाता था. आलू को तो रहने ही नहीं देता था. ईजा बड़ की पूरी “बाड़” (घेराबंदी) भी करती थी लेकिन सॉल कहीं न कहीं से अंदर घुस कर सब चट कर जाता था. ईजा सुबह को जब पूरा खोदा हुआ बड देखती थी तो कहतीं- “मरोल यो सॉलक होय, सारे बड़ खनि है” (मरेगा ये सॉल, इसने पूरी क्यारी खोद दी है). ऐसा कहते हुए ईजा फिर बाड़ को ठीक करने में लग जाती थीं.

क्यारी

अब सॉल की जगह सूअर ने ले ली है. becauseहमारे इलाके में जंगली  सूअरों का काफी आंतक है. खेत में कुछ भी बो दो, वो सब खोद देते हैं. सॉल तो अकेले आता था ये तो पूरे दल-बल के साथ आते हैं. डरते भी कम ही हैं, इंसान इनसे ज्यादा डरता है. ईजा कह रही थीं- “अब सॉल हरे गिं” (सॉल अब गुम हो गए हैं). ईजा सही कहती हैं, सॉल के साथ पहाड़ों का बहुत कुछ है जो गुम हो गया है…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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