स्वयं सहायता समूह के जरिए पूर्ण हुआ स्वरोगार का स्वप्न

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  • प्रकाश उप्रेती  

पहाड़ हमेशा आत्मनिर्भर रहे हैं. पहाड़ों के जीवन में निर्भरता का अर्थ सह-अस्तित्व है. यह सह-अस्तित्व का संबंध उन संसाधनों के साथ है जो पहाड़ी जीवनचर्या के because अपरिहार्य अंग हैं. इनमें जंगल, जमीन, जल, जानवर और जीवन का कठोर परिश्रम शामिल है. इधर अब गांव में कई तरह की योजनाओं के जरिए पहाड़ अपनी मेहनत से नई करवट ले रहा है. इस करवट की एक आहट आपको खोपड़ा गांव में दिखाई देगी.

महिला स्वयं सहायता समूह

पिछले साल गांव में ‘महिला स्वयं सहायता समूह’ की स्थापना हुई. यह विचार ग्राम पंचायत की तरफ से एक मीटिंग में रखा गया था. ईजा उस मीटिंग में गई हुई थीं. ईजा बताती हैं कि- ‘उस because मीटिंग में हमारी ‘पधानी’ के अलावा दो महिलाएं अल्मोड़ा से आई हुई थीं’. हमारी ग्राम पंचायत में 4 गांव आते हैं. हर गांव से महिलाएं आई हुई थीं. कहीं से चार, कहीं से दस और कहीं से तीन ही. हमारे गांव से दो लोग गए थे. हमारा गांव, ग्राम सभा के अन्य गांवों के मुकाबले छोटा है. गिनती के 12 परिवारों का घर है. उसमें से भी 7 परिवार गांव में रहते हैं. इस हिसाब से 2 लोगों की उपस्थिति भी ठीक ही कही जा सकती है.

महिला स्वयं सहायता समूह

उस दिन मीटिंग में आने के बाद ईजा ने बताया कि -च्यला, जो दो महिलाएं बाहर से आई थीं उन्होंने सबको ‘महिला स्वयं सहायता समूह’ के बारे में बताया. यह भी बताया कि इसके because जरिए कैसे गांव के स्तर पर आत्मनिर्भर बना जा सकता है. बता रहे थे कि तुम क्या-क्या कर सकते हो. कैसे स्वयं रोजगार पैदा कर सकते हो, खुद की साग-सब्जी लायक पैसा कमा सकते हो. इसमें सरकार भी तुम्हारी मदद करेगी. ये सारी बातें उन दोनों महिलाओं ने बताई थीं.

महिला स्वयं सहायता समूह

‘खोपड़ा ग्राम महिला स्वयं because सहायता समूह’ स्वरोजगार के साथ ही सामूहिकता की बिखरी कड़ियों को भी जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा रहा है. ईजा इसके बारे में बताते हुए बहुत खुश रहती हैं. हर मीटिंग के बाद बताती हैं- ‘च्यला आजक हिसाब लिख म्यु’

महिला स्वयं सहायता समूह

उसके बाद हमारी पधानी ने चारों गांवों की महिलाओं को ये जिम्मेदारी दे दी कि वो अपने गांव की महिलाओं से बात करेंगी और एक समूह बनाएंगी. जब समूह बन जाएगा तो फिर मैं आऊंगी so और उसे कैसे चलाना है वो बताऊंगी. ईजा को पधानी ने कहा कि दीदी आप ही पहले अपने गांव में शुरू कीजिए. मैं कल ही आपके गांव में आऊंगी.

महिला स्वयं सहायता समूह

इसके बाद मीटिंग खत्म हो गई. सब लोग अपने-अपने गांव के लिए चले गए. ईजा ने गांव में आकर दोपहर में सबको बता दिया. सब लोग राजी भी हो गए. शाम को फोन पर पधानी because को भी बता दिया कि आप कल शाम को 3 बजे आ जाओ. अगले दिन पधानी नीयत समय पर गांव में पहुंच गई. मीटिंग हमारे घर पर ही हुई. उस दिन ईजा समेत गांव की 4 और महिलाओं ने मिलकर ‘खोपड़ा ग्राम महिला स्वयं सहायता समूह’ की नींव रख दी. ईजा को सबकी सहमति से कोषाध्यक्ष बना दिया गया ताकि पैसे का हिसाब-किताब ईजा देखे.

महिला स्वयं सहायता समूह

इसके तहत सप्ताह में एक मीटिंग होती है. यह मीटिंग बारी-बारी से सबके घर में होती है. इसमें सब लोग 10-10 रुपए जमा करते हैं. इस तरह से महीने में एक जना 40 रुपए और सबका मिलाकर 200 रुपए इकट्ठा हो जाते हैं. ईजा ने बहन की मदद से इसके हिसाब-किताब का एक रजिस्टर बना रखा है. उसमें हर मीटिंग की मुख्य बातें और पैसे दर्ज होते हैं.

महिला स्वयं सहायता समूह

मीटिंग के बाद यह तय हुआbecause कि इन पैसों से हल्दी और अदरक लाया जाएगा और उसके जरिए ही खोपड़ा ग्राम स्वयं सहायता समूह रोजगार पैदा करेगा. कुछ लोगों ने मोमबत्ती बनाने को लेकर सोचा है. कुछ लोग इसकी ट्रेंनिग करने के लिए जाने वाले भी थे but लेकिन इस लॉक डाउन के कारण जा नहीं पाए. धीरे-धीरे 5 लोगों का यह समूह गति पकड़ने लगा है. ईजा पूरी मेहनत के साथ इसमें लगी हुई हैं. उद्यमिता उनके अंदर है. सब लोग मिलकर समूह को उसके लक्ष्य तक पहुंचाने के पहले पड़ाव को पार कर चुके हैं.

महिला स्वयं सहायता समूह

जनवरी 2020 में समूह का बैंक because एकाउंट भी खोल दिया गया है. उसमें सारे पैसे जमा करवा दिए गए हैं. साथ ही 10 हजार रुपए सरकार की तरफ से भी सहायता मिलने का आश्वासन है. वो भी मिल जाएंगे. आस-पास के गांवों के महिला स्वयं सहायता समूह वालों को मिल गए हैं.

महिला स्वयं सहायता समूह

इस तरह एक समूह अस्तित्व में आया. ईजा so और गांव की अन्य महिलाओं के प्रयासों से वो होने जा रहा है जिसकी कुछ वर्ष पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. because यह समूह स्वरोजगार के साथ ही सामूहिकता की बिखरी कड़ियों को भी जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा रहा है. ईजा इसके बारे में बताते हुए बहुत खुश रहती हैं. हर मीटिंग के बाद बताती हैं- ‘च्यला आजक हिसाब लिख म्यु’(बेटा आज का हिसाब लिख रही हूं).

(लेखक कार्यकारी संपादक हिमांतर एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)

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