बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

बंजर होते खेतों के बीच ईजा का दुःख

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—9 प्रकाश उप्रेती हमारे खेतों के भी अलग-अलग नाम होते हैं. ‘खेतों’ को हम ‘पटौ’ और ‘हल चलाने’ को ‘हौ बहाना’ कहते हैं. हमारे लिए पटौपन हौ बहाना ही कृषि या खेती करना था. कृषि भी क्या बस खेत बंजर न हो इसी में लगे रहते थे. हर खेत […]

Read More
 पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

पितरों की घर-कुड़ी आबाद रहे

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—8 प्रकाश उप्रेती ये हमारी ‘कुड़ी’ (घर)  है. घर को हम कुड़ी बोलते हैं. इसका निर्माण पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और गोबर से हुआ है. पहले गाँव पूरी तरह से प्रकृति पे ही आश्रित होते थे इसीलिए संरक्षण के लिए योजनाओं की जरूरत नहीं थी. जिसपर इंसान आश्रित हो उसे […]

Read More
 दैंणी द्वार भरे भकार

दैंणी द्वार भरे भकार

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—7 प्रकाश उप्रेती मिट्टी और गोबर से लीपा, लकड़ी के फट्टों से बना ये- ‘भकार’ है. भकार (कोठार) के अंदर अमूमन मोटा अनाज रखा जाता था. इसमें तकरीबन 200 से 300 किलो अनाज आ जाता था. गाँव में अनाज का भंडारण, भकार में ही किया जाता था. साथ ही […]

Read More
 पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

पहाड़ की संवेदनाओं के कवि थे शेरदा ‘अनपढ़’

पुण्यतिथि (20 मई) पर विशेष चारु तिवारी  मेरी ईजा स्कूल के दो मंजिले की बड़ी सी खिड़की में बैठकर रेडियो सुनती हुई हम पर नजर रखती थी. हम अपने स्कूल के बड़े से मैदान और उससे लगे बगीचे में ‘लुक्की’ (छुपम-छुपाई) खेलते थे. जैसे ही ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता ईजा हमें जोर से ‘धात’ लगाती. ‘उत्तरायण,’ […]

Read More
 अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

अब घट नहीं आटा पीसने जाते हैं

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—6 प्रकाश उप्रेती इसको हम- जानहर, जंदरु, जांदरी कहते हैं. यह एक तरह से घरेलू चक्की है. उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी. पानी की चक्की वालों के पास जाना पड़ता था. वो पिसे हुए का ‘भाग’ (थोड़ा आटा) भी लेते थे. इसलिए कई बार घर पर ही […]

Read More
 काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—5 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘कोरैण’ की. कोरैण माने कोरने वाला. लुप्त होने के लिए ‘ढिका’ (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है. फिर हम शायद ही इसे देख पाएं. उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण. अब तो इसके कई स्थानापन आ […]

Read More
 ‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

‘तीलू पिन’ मतलब जाड़ों की ख़ुराक़

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—4 प्रकाश उप्रेती आज बात-‘तीलू पिन’ (तिल के लड्डू) की.हमारे यहाँ यह सर्दियों की ख़ुराक थी. पहाड़ के जिन इलाकों में तिल ज्यादा होते हैं, वहाँ ‘पिन’ बनता ही था. हमारे यहाँ तिल ठीक-ठीक मात्रा में होते थे. बाकायदा कुछ खेत तिल के लिए ही जाने जाते हैं. उनको तिल […]

Read More
 कब लौटेगा पाई में लूण…

कब लौटेगा पाई में लूण…

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—3 प्रकाश उप्रेती आज बात- ‘पाई’ की. पहाड़ के हर घर की शान ‘पाई’ होती थी. पाई के बिना खाना बनने वाले गोठ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. पाई दरअसल लकड़ी की बनी वह चीज थी जिसमें पिसा हुआ लूण और चटनी रखते थे. मोटी लकड़ी […]

Read More
 जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

जाड़ों की बरसात में जब पड़ते ‘घनगुड़’ थे

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—2 प्रकाश उप्रेती आज बात– ‘घनगुड़’ की. पहाड़ों पर जाड़ों में जब बरसात का ज़ोर का गड़म- गड़ाका होता था तो ईजा कहती थीं “अब घनगुड़ पडील रे”. मौसम के हिसाब से पहाड़ के जंगल आपको कुछ न कुछ देते रहते हैं. बारिश तो शहरों में भी होती है […]

Read More