- भुवन चंद्र पंत
ईजा के संबोधन में जो लोकजीवन की सौंधी महक है, उसके समकक्ष माँ, मम्मी या मॉम में रिश्तों के तासीर की वह गर्माहट कहां? ईजा शब्द के संबोधन में एक ऐसी ग्रामीण
महिला की छवि स्वतः आँखों के सम्मुख उभरकर आती है, जो त्याग की साक्षात् प्रतिमूर्ति है, जिसमें आत्मसुख का परित्याग कर खुद को परिवार के लिए समर्पित होने का त्याग एवं बलिदान है, बच्चों की परवरिश के लिए समयाभाव के बावजूद उनकी खुशियों के लिए कोई कसर न छोड़ने वाली ईजा का कोई सानी नहीं.हमारी
थोड़ा बच्चों की शरारत पर
मीठी झि़ड़की देने और उसी क्षण शिबौऽऽ कहकर उसके सर पर हाथ फिराने और मुंह मलासने वाली ईजा, जंगल से लौटकर झटपट बिना पानी की घूँट पीये बच्चे को अपने दूध पर लगाने वाली ईजा, पीठ पर बच्चे को बांधकर खेतों में निराई-गुड़ाई करने वाली ईजा, धोती से सिर बांधकर आंगन में ओखल कूटती ईजा, सुबह सबेरे गागर सिर पर रखकर नौले से पानी लाती ईजा, सुबह शाम में गोठ से दूध दुह कर दूध के बर्तन को आंचल में छिपाकर लाती ईजा, स्वयं पढ़ी लिखी न होने पर भी तीज- त्योहारों पर घर की देली पर गेरू व विस्वार से ऐंपण देती ईजा, घर परिवार की मंगल कामना के लिए ब्रत-त्योहारों पर उपवास लेकर कुछ न खाते हुए तृप्त होती ईजा, पाकविद्या का औपचारिक ककहरा कहीं से न सीखने के बावजूद पाककला में प्रवीण ईजा, संस्कृति व लोकपरम्पराओं की संवाहक व संरक्षक ईजा, घुघुती बासुती गाते हुए बिस्तर पर पैंरो में झुलाती ईजा, परिवार में सब को भोजन कराकर बचा-खुचा जो भी हो उससे तृप्त होने वाली ईजा, नाम एक रूप अनेक ईजा की विशेषताओं का कोई अन्त नहीं. सच कहें तो आज ऐसी ईजाऐं दुर्लभ होती जा रही हैं.हमारी
ईजा शब्द कैसे हमारे समाज में चलन में आया अथवा इसकी व्युत्पत्ति कैसे हुई, लोग तरह तरह के तर्क देते हैं. कुछ लोग इह (ईश्वर अथवा आत्मा) जा (जनने वाली) से ईजा शब्द की उत्पत्ति मानते हैं. लेकिन मेरा मानना है, कि ईजा देह को जन्म देती है,
आत्मा तो अजन्मा व सनातन है, इसलिए ईजा शब्द की व्युत्पत्ति का यह तर्क अतार्किक लगता है. जब कि कुछ लोगों का मानना है कि ईजा शब्द मराठी के ‘आई’ शब्द का ही अपभ्रंश है. उनका मत है कि अधिकांश लोग महाराष्ट्र से आकर यहां बसे और ’आई’ शब्द पुकारते पुकारते ’ओई’ बना, फिर श्वास को विराम देने के लिए अवरोह में ’ज’ का समावेश हुआ होगा, जैसे ’ओ आई’ फिर ’ओइ’ और ’ओ ईज’. इससे हटकर मेरा सोचना है कि यह शब्द देववाणी संस्कृत से निःसृत भी हो सकता है. ’यद्’(जो) धातु के स्त्रीलिंग की प्रथमा विभक्ति एक वचन में ’या’(जिसने) होता है तथा ’जा’ (जन्म देने वाली), अर्थात ’या जनयति सा याजा’( जिसने जन्म दिया वह याजा) और यही ’याजा’ अपभ्रंश होते होते ईजा बन गया .हमारी
कुमाउंनी भाषा पर दखल रखने वाले
नाज़िम अंसारी ने कुमाउनी शब्द सम्पदा के फ़ेसबुक पेज पर इस संबंध में अपना जो तर्क प्रस्तुत किया है, वह भी विचारणीय है. उनकी टिप्पणी को शब्दशः उद्धरित किया जा रहा है –हमारी
“इज, इजा, ईजा. इजी, इजू ,इ,ओई,ओइजा आदि कुमाउंनी के मूल और प्राचीन समय से प्रयुक्त शब्द हैं जिनकी व्युत्पत्ति के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. इजा का अर्थ जन्म देने वाली मां,मातृ तुल्य मानी गयी स्त्री,संरक्षिका आदि है . अंग्रेज़ी का aegis संरक्षकत्व बोधक शब्द इसी मूल से बना है क्योंकि इसका भी अर्थ है to protect ,to support अर्थात संरक्षण या सहारा देने वाली — जननी, मां, माता, ममतामयी संरक्षिका –मिस्र का अंग्रेज़ी नाम इजिप्ट है,रोमनकाल में इसका नाम था मद्रिया,मातृया –इजिस यहाँ की मातृ देवी और Ptah प्रजापति के प्रतीक हैं इन दोनों नामों के योग से बना इजिप्ट –इजि +प्तः — Egypt चूँकि इजि शब्द यहां भी मां मातृदेवी के लिए प्राचीन समय से प्रचलित रहा है और कुमाउनी में भी, इसलिए इस शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि यह शब्द भारत के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में और समुद्र पार मिस्र में भी एक ही अर्थ में प्रचलित था .” (नाज़िम अंसारी)
हमारी
दरअसल ईज़ा का
संबोधन जिस भावनात्मक रिश्ते की अनुभूति कराता है वह अभिव्यक्ति से परे है, ठीक वैसे ही जैसे जिह्वा के स्वाद को आप खुद तो अनुभव कर सकते हो, लेकिन अगले को हू-बहू अनुभूति नहीं करा सकते. महाकवि सूरदास की निराकार ब्रह्म के संबंध में कही गई बात ईज़ा के लिए भी सटीक लगती है ” ज्यों गूँगा मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे “.
हमारी
शब्द की व्युत्पत्ति कहाँ से
हुई इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है, लेकिन लोकजीवन में यह शब्द हमारे दिलो-दिमाग में इस कदर रचा बसा है कि हर कोई आफत आने पर ‘ओ ईजा!’ शब्द अनायास ही निंकल पड़ता है . केवल आफत में ही क्यों, किसी के प्रति सहानुभूति व संवेदना व्यक्त करने के लिए भी ’दै ईजा’, ‘पै ईजा’ और ’हाय ईजा’ का संबोधन दिल की गहराइयों तक छू जाता है. यही नहीं, जब अपने से उम्र में छोटे को कुशल क्षेम पूछती महिला’ ’’भल हैरोछै ईजा?’’ कहकर पूछती है तो आत्मीयता से सराबोर कर देती है . यह ईजा शब्द के ही संबोधन का करिश्मा है कि बात सीधे दिल पर उतरती है.हमारी
दरअसल ईज़ा का संबोधन
जिस भावनात्मक रिश्ते की अनुभूति कराता है वह अभिव्यक्ति से परे है, ठीक वैसे ही जैसे जिह्वा के स्वाद को आप खुद तो अनुभव कर सकते हो, लेकिन अगले को हू-बहू अनुभूति नहीं करा सकते. महाकवि सूरदास की निराकार ब्रह्म के संबंध में कही गई बात ईज़ा के लिए भी सटीक लगती है ” ज्यों गूँगा मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे “.हमारी
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)