संस्मरण

हिमालय की एक परंपरा का जाना है पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान

हिमालय की एक परंपरा का जाना है पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान

संस्मरण, स्मृति-शेष
'वृक्ष मानव' विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी की जयंती (2 जून, 1922 ) पर सादर नमन चारु तिवारी प्रकृति को आत्मसात करने वाले वयोवृद्ध पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान हिमालय की एक परंपरा का जाना है. उन्हें कई सदर्भों, कई अर्थों, कई सरोकारों के साथ जानने की जरूरत है. पिछले दिनों जब उनकी मृत्यु हुई तो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के समाचार माध्यमों ने उन्हें प्रमुखता के साथ प्रकाशित-प्रसारित किया. इससे पहले शायद ही उनके बारे में इतनी जानकारी लेने की कोशिश किसी ने की हो. सरकार के नुमांइदे भी अपनी तरह से उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुये. मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया. जैसे भी हो यह एक तरह से ‘वृक्ष मानव’ की एक परंपरा को जानने का उपक्रम है जिसे कई बार, कई कारणों से भुलाया जाता है. 96 वर्ष की उम्र में (18 जनवरी, 2019) उन्होंने अपने गांव सकलाना पट्टी ...
अपना-अपना नया साल…

अपना-अपना नया साल…

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली कल नये साल का पहला दिन है। हे ईश्वर ! विश्व के समस्त प्राणियों ,मेरे घर-परिवार में, नये साल में जीवन के शुभ गान और स्फूरित राग हों,इसी अन्तर्मन से बहती हुई प्रार्थना में हिलोरें मारती हुई मैं अपनी दैनंदिन क्रिया के अहम हिस्से का निर्वाह करने, अपने ओसारे में आ गयी, जैसे ही तुलसी के चौबारे में दिया जलाया,तभी दिवार की उस तरफ से आवाज़ आई। कैसी हो बेटी? मैं सुबह से देख रहा था तुम्हें, तुम आज दिखाई नहीं दी। मैंने दीये की पीत वर्ण और बिछुड़ते हुए सूरज की रक्ताभ मिश्रित नारंगी लौ में ताऊजी को देखा। ताऊजी प्रणाम, मैं ठीक हूं आप कैसे हैं ? हां!आज थोड़ी सी व्यस्त थी मैं। कल नया साल का पहला दिन है ना? सोचा आज ही गाजर का हलुआ बनाकर रख लूं कल के लिए..वही सब गाजर को घिसकर उसे दूध में उबाल रही थी। अच्छा! नये साल के स्वागत की तैयारी चल रही है.. मैंने भी तो मनाना था बेटी नया...
चोखी ढाणी देखने के बाद आमेर किले (आंबेर) की सैर

चोखी ढाणी देखने के बाद आमेर किले (आंबेर) की सैर

संस्मरण
सुनीता भट्ट पैन्यूली सुबह के साढ़े दस बजे हैं हम घर से निकल गये हैं. मुश्क़िल यह है कि मुझे हर हाल में आमेर का किला देखना है और समय हमारे पास कम है और पतिदेव ने समय सीमा बता दी है कि दो बजे तक किसी भी सूरत में देहरादून के लिए निकलना है मुझे भली-भांति ज्ञात है सीमित समय में इतना विराट और भव्य दुर्ग नहीं देखा जा सकता है.सरसरी नज़र से पहले भी आमेर देख चुकी हूं किंतु इस बार मैं आमेर किले के because बारे में थोड़ा बहुत पढ़कर आयी हूं ताकि भारत की इस विशालकाय यूनेस्को की धरोहर को इतिहास की उसी ड्योढ़ी पर बैठकर उस समृद्ध,अनुशासित,वैभव और कीर्ति के काल को केंद्रित दृष्टि से जीवंत महसूस कर सकूं और थोड़ा बहुत आमेर के बारे में लिख पाऊं. ज्योतिष अपनी धरोहरों के माध्यम से ही इतिहास अपने वैभव, because अपनी कीर्ति अपनी संस्कृति को समय की तरंगों पर बसा सकता है. मेरा अपना अनुभव है कि जिस जगह  भ्रमण के ...
देहरादून से “द्वारा” गांव वाया मालदेवता…

देहरादून से “द्वारा” गांव वाया मालदेवता…

संस्मरण
लघु यात्रा संस्मरण सुनीता भट्ट पैन्यूली Treasure of thoughts are with us. They only have to be discovered.... मेरे अन्दर  पेड़ नदी,पहाड़, झरने,जंगली फूलों से सराबोर प्रकृति के विभिन्न आयामों की सुंदर व अथाह  प्रदर्शनी सजी हुई है किंतु फिर भी मेरा मन नहीं भरता है और मैं शरणोन्मुख because हो जाती हूं  नदियों, पहाड़ों और सघन जंगलों से बात करने की तृषा-तोष हेतु. ज्योतिष स्मृतियों और अनूभूतियों के चिंतन का so कारवां  चलता रहता है मेरी यात्राओं में मेरे साथ-साथ जिससे सृजन के वेग को मेरी कलम की हौसला-अफ़जाई द्वारा एक बल मिलता है. मेरे यात्रा अनुभव,मेरे संस्मरण और मेरे मोबाइल के कैमरे की जुगलबंदी कुछ इस तरह हो जाती है कि, या सीधा-साफ कहूं मेरे अनुभव और मेरे मोबाइल के बीच अच्छी बनने लगी है because जिससे मेरी लघु- या चिर यात्राओं  के गंतव्य की भौगोलिक-स्थिती वहां का खान-पान,वहां की वनस्पति...
कालसी गेट की रामलीला और मैं…

कालसी गेट की रामलीला और मैं…

संस्मरण
स्मृतियों के उस पार सुनीता भट्ट पैन्यूली अक्टूबर यानी पत्तियां रंग बदल रही हैं,  पौधे ज़मीन पर बदरंग होकर  स्वत:स्फूर्त बीज फेंक रहे हैं ज़मीन पर, जानवर सर्दियों से बचाव की तैयारी में चिंतन में आकंठ डूबे हुए हैं. यानी पूरी प्रकृति एक बदलाव की प्रक्रिया की ओर अग्रसर है. अक्तूबर आ गया है  सुबह सर्द मौसम की सरसराहट पूरे शरीर की धमनियों में दौड़ने लगी है और इसी सरसराहट के साथ नवरात्रि की धूम में  सुबह हवाओं में बहुमिश्रित अगरबत्तियों की खुशबू है.कहीं मंदिरों में घंटियों की टुनटुनाहट है. देर रात्रि में दूर शहर में कहीं  माइक पर धीमी होती आवाज़ में  रामलीला के डायलोग जैसे ही मेरे कर्णों को भेदते हैं, मेरी स्मृतियों के कपाट इस चिरपरिचित आवाज़ को सुनकर हर साल की तरह इस बार भी खुल गये हैं जिसके घुप्प अंधेरे को भेदकर बहुत पीछे जाने पर मेरे भीतर बचपन की रंग-बिरंगी अकूत झांकियां सजी हुई  हैं. ...
अखरोट के पेड़ का बलिदान

अखरोट के पेड़ का बलिदान

संस्मरण
फकीरा सिंह चौहान स्नेही सड़क के किनारे बस को रोकते हुए ड्राइवर ने कहा, गांव आ गया है, सभी लोग उतर जाए. मैं बस की सीट पर गहरी नींद में  सोया हुआ था. ड्राइवर मुझे जगाते हुए बोला, "बाबू जी, "आपको कौन से because गांव जाना है. "आप का भाड़ा यहीं तक का है. "मैं हकबका कर उठा, तथा बस का दरवाजा खोल कर  सड़क के किनारे उतर गया. ज्योतिष हल्की-फुल्की बूंदाबांदी हो रही थी. भादो का महिना था. चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी. पहाड़ों के बीचों-बीच श्वेत कुरेडी {कोहरे} के गोले उमड़ रहे थे. हर छोटे-छोटे नाले सफेद दूध की सैकड़ों धाराओ की तरह झरनों के रूप में प्रवाहित हो रहे थे. कभी घनघोर बादलों की गड़गड़ाहट कभी बिजली की चमक से मौसम बेईमान सा नजर आ रहा था. चुंकी गांव थोड़ा  सड़क के ऊपर था.  मेरे पास छाता भी नहीं था.  घनघोर वर्षा तथा तेज हवा चलने की संभावना बढ़ रही थी. मेरे दिमाग में आया कि सड़क से लगे हुए खेत...
ढाई दिन के झोंपड़े की तरह ढाई दिन का प्यार!

ढाई दिन के झोंपड़े की तरह ढाई दिन का प्यार!

संस्मरण
घट यानी पनचक्की (घराट) डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल पिछली सदी की बात है. उनके लिए जिन्होंने ये देखा नहीं, लेकिन हमारे लिए तो जैसे कल की बात है कि हम रविवार को पीठ में तीस पैंतीस किलो गेहूं, जौ  लादकर घट जा रहे हैं. दूर से ही देख रहा हूँ जैसे घट का पानी टूटा हुआ है और मैं दौड़ रहा हूँ. जैसे ही घट पर पहुँचा तब तक किसी ने पानी लगा दिया और मैं पिछड़कर दूसरे या तीसरे नंबर पर पहुँच गया हूँ. थोड़ा निराश, थोड़ा नज़र इधर-उधर देखकर और फिर सोच रहा हूँ   कि दूसरा घट ख़ाली होगा ? यह सिलसिला हर दूसरे  हफ़्ते में चला ही रहता. घट का पानी टूटना और लगना उसके चलने और न चलने से जुड़ा है. ये घट भी दो तरह के होते थे, एक तो सदा बहार होते  दूसरे बरसाती. बरसाती घट तीन महीने ही चल पाते थे. ऐसे हमारे गांव में कालोगाड पर तीन घट थे एक ग्वाड़  में  नाखून के  काला ताऊ जी का था, दूसरा  गहड़ गाँव के गुसाईं जी का और तीसरा ...
पश्चाताप और क्षमा का कोई विकल्प नहीं होता!

पश्चाताप और क्षमा का कोई विकल्प नहीं होता!

संस्मरण
स्मृतियों के उस  पार सुनीता भट्ट पैन्यूली पश्चाताप और क्षमा का कोई विकल्प नहीं होता. यह केवल एक भ्रम ही है जो संवेदनाओं के उत्स से मानवीय त्वचा को गीला रखता है. किसी घटना का पश्चाताप कैसे हो सकता है? जिस अबोध जीव के अल्प जीवन की  स्मृतियों के सूक्ष्म अवशेष भी नहीं रख छोड़े हैं अपने ज़ेहन में, मैंने सिवा इस चित्तबोध के कि घोर अन्याय हुआ था उस रोज हमसे टिन-टिन पर. हालांकि यह सामूहिक रुप से बरपाया गया कहर था उस जीव पर, नहीं जानती कि उस घटना के उपरांत  अन्य लोगों के हृदय का रंग वही प्राकृत  बना रहा  या मेरी तरह पश्चाताप की भट्टी में तपकर अभी तक रंग बदल रहा है? यद्यपि यह संस्मरण एक अदने से जीव के बारे में है. इसलिए हमारे साथ क्या हुआ? क्यों हुआ? फलत: हमने क्या किया? ऐसी किसी जवाबदेही की मांग नहीं करता, किंतु मेरा  अंतर्मन उस संपूर्ण विवरण को कलम से कागज़ पर उड़ेलकर एक न्यायसंगत विमर्श की मां...
स्मृतियों के उस पार…

स्मृतियों के उस पार…

संस्मरण
पिता की स्मृतियों को सादर नमन सुनीता भट्ट पैन्यूली समय बदल जाता है किंतु जीवन की सार्थकता जिन बिंदुओं पर निर्भर होती है उनसे वंचित होकर जीवन में क्यों, कैसे, किंतु और परंतु रूपी प्रश्न ज़ेहन में उपजकर  बद्धमूल रहते हैं हमारी चेतना में और झिकसाते रहते हैं  हमें ताउम्र मलाल बनकर लेकिन क्या कर सकते हैं ?जो समय रेत की तरह फिसल जाता है वह  मुट्ठी में कभी एकत्रित नहीं होता.  इंसानी फितरत या उसकी मजबूरी कहें कि चाहे कितना बड़ा घट जाये, जीवन के कथ्य तो वही रहते हैं किंतु जीने के संदर्भ बदल जाते हैं. नेता जी 8 अगस्त  से 10अगस्त 2015 के मध्य पिता के जन्मदिन का होना और उनकी विदाई की अनभिज्ञता के इन दो दिनों में  पिता के साथ मेरे उड़ते -उड़ते  संवाद आज तक कहीं ठौर ही नहीं बना पाये शायद इसीलिए  20 जून को पितृ दिवस पर मेरी पनीली आंखों में सावन का अषाढ़ कुछ अजीब सा हरा हो जाता है. नेता जी आज ...
“बोल्ड परीक्षा’’

“बोल्ड परीक्षा’’

संस्मरण
डॉ. अमिता प्रकाश जी! आप चैंकिए मत! थी यह बोर्ड परीक्षा ही, लेकिन हम चैड़ूधार के सभी छात्र-छात्राओं उर्फ छोर-छ्वारों के लिए पांचवी की बोल्ड परीक्षा ही होती थी. वैसे तो परीक्षा हर because साल होती रही होगी, पर हमें उसका आभास कभी हुआ ही नहीं. बिल्कुल तनावमुक्त व भयमुक्त परीक्षा होती थी हमारी. रोज की तरह स्कूल गए ,गुर्जी ने जो कुछ लिखने को कहा लिखा,  कॉपी गुर्रजी को थमाई , थोड़ी देर खेला कूदा, और फिर अगले दिन के लिए गुर्र जी जो कुछ लिखने के लिए देने वाले होते उसका रिवीजन उर्फ रट्टाफिकेशन जोर-जोर से होता. कानों में उंगली देकर और जोर से हिल हिल कर. एक खास बात यह जरुर होती कि इस रट्टाफिकेशन के दिनों में विद्यालय के जो तीन अन्य कमरे हमेशा बंद रहते थे वह खुल जाते. पासिंग आउट परेड कक्षा 5 को अलग कमरा, कक्षा 4 को अलग तथा कक्षा 3 को अलग कमरा आवंटित हो जाता. गुरुजी हर कक्षा को याद करने के लिए सामग्र...