अपना-अपना नया साल…

सुनीता भट्ट पैन्यूली

कल नये साल का पहला दिन है। हे ईश्वर ! विश्व के समस्त प्राणियों ,मेरे घर-परिवार में, नये साल में जीवन के शुभ गान और स्फूरित राग हों,इसी अन्तर्मन से बहती हुई प्रार्थना में हिलोरें मारती हुई मैं अपनी दैनंदिन क्रिया के अहम हिस्से का निर्वाह करने, अपने ओसारे में आ गयी, जैसे ही तुलसी के चौबारे में दिया जलाया,तभी दिवार की उस तरफ से आवाज़ आई।
कैसी हो बेटी?
मैं सुबह से देख रहा था तुम्हें, तुम आज दिखाई नहीं दी।
मैंने दीये की पीत वर्ण और बिछुड़ते हुए सूरज की रक्ताभ मिश्रित नारंगी लौ में ताऊजी को देखा।
ताऊजी प्रणाम,
मैं ठीक हूं
आप कैसे हैं ?
हां!आज थोड़ी सी व्यस्त थी मैं।
कल नया साल का पहला दिन है ना?
सोचा आज ही गाजर का हलुआ बनाकर रख लूं कल के लिए..वही सब गाजर को घिसकर उसे दूध में उबाल रही थी।
अच्छा! नये साल के स्वागत की तैयारी चल रही है..
मैंने भी तो मनाना था बेटी नया साल।
बेटा कब तक आयेंगे?
मैंने उत्तर दिया, “ताऊ जी क्या तैयारी करनी है बस घर पर ही स्वागत कर लेंगे नये साल का और रजाई में ही दुबके रहेंगे।
ठंड बहुत है ना।
और आपके बेटे तो आज नये साल की पार्टी में हैं शाम को देर तक ही लौटेंगे।”
क्या कुछ काम था आपको उनसे?
ताऊजी ने सभी उंगलियों और अंगूठे को मिलाकर मुस्कुराते हुए संकेतपूर्वक कहा,” बेटा एक पौव्वा मंगाना था मुझे”।
मेरा भी तो नया साल है ना,थोड़ी बहुत पार्टी अपने तरीके से मैं भी कर लूंगा। ताऊजी थोड़ा फीका हंसते हुए बोले।
जी ताऊजी , बिल्कुल,आप भी नये साल का उत्सव अपने तरीके से मनाइये।
हां बेटा ! “जीवन की इस सांध्य-बेला में, मैं भी एक और नये साल के सूरज को अपने दृष्टिकोण से देखना और समझना चाहता हूं,क्या पता कब किस क्षण ऊपर से बुलावा आ जाये?”
बेटा कुछ अप्रिय नहीं करता मैं।
“थोड़ी सी घुट्टी लगाकर, आठ बजे चुपचाप सो जाता हूं,
ना कोई उदंड मचाता हूं,ना ही किसी को परेशान करता हूं और सबसे बड़ी बात अपने पैसे की पीता हूं,फिर किसी को क्या आपत्ति? ” थोड़ा रौबीले होकर ताऊजी ने दमदार आवाज़ में कहा,“ और फिर मैं पीता हूं, तो पीता हूं।” किसी को क्या?
तुम तो जानती ही हो बेटा, मेरा ना कोई संगी-साथी है, ना ही कोई मुझसे बात करता है। ये पौव्वा ही मेरा साथी ठहरा।
इसका साथ ना करुं तो क्या करूं?
“अपने घर की बात बाहर नहीं लगानी चाहिए बेटा”। मैं आगे कुछ नहीं बोलूंगा।

स्वत: ही मेरे चित्त ने मुझे ताऊजी के और समीप भेज दिया संभवतः कुछ और ज्यादा स्पष्ट रूप से उनकी बात समझने हेतु।
मैंने ताऊजी की ओर देखा! एक गहन तरलता थी उनकी आंखों मे।आंखें जुबान के साथ बिफरकर बरसना चाहती थीं सावन में उमड़-घुमड़ करते मेघ खंडों की तरह,किंतु ताऊजी के संयम ने क्रोधित मेघों पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

ना जाने क्या वह बोलना चाहते थे मुझसे?और फिर क्यों नहीं बोले? किंतु मुझे ताऊजी उस दिन एक निर्जन टापू से लगे जहां कोई नहीं जाता, और यदि जाता भी है तो अंजाने में भूल कर,भटक कर ही।

किंतु संवेदनशील मन बहुत सजग होता है मौन आंखों को सहज ही पढ़ लेता है कहां उसे दूसरों के चेहरों से कुछ अपेक्षा होती है?मूक संवादों का सेतु स्वयं निर्मित हो जाता है उनमें परस्पर भावनाओं के आदान-प्रदान के लिए। यह भी होता है कि कई मर्तबा हम दूसरों के चेहरों पर उजागर हुए ऐसे रेगिस्तान को अनुभव कर जाते हैं, जिसकी व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं होती है क्योंकि संबद्ध व्यक्ति का सर्वस्व टिका होता है उस रेगिस्तान के उजागर होने पर।किंतु ये जो संवेदना और चेहरे के भावों का आपस में मेलजोल है ना.., इनके मध्य कहीं कुछ आड़े नहीं आता है भाव स्वयं अपनी परिणति पा जाते हैं।ताऊजी के चेहरे के इन्हीं भावों ने मेरी संवेदनाओं से सांठगांठ की और मेरे अंतरतम ने इन्हें अपने में समावेशित कर लिया संभवत: कोई समाधान ढूंढने के लिए।
किंतु बाहर से, बनावटीपन का मुखौटा पहनकर मैंने कहा, ओह ! ताऊ जी लेकिन ये तो देर से ही आयेंगे घर।

अभी तो नहीं हो पायेगी आपके लिए व्यवस्था..
अच्छा!
ताऊजी ने अत्यंत मायूस और असहाय होकर कहा।
मैंने सिर हिलाकर मूक हामी भरी।
ताऊजी अपना उदास मन लिये अपने घर के भीतर की ओर चुपचाप हो लिए और मैं अपने घर के भीतर,
व्याकुलता के सैलाब में मेरा मन पानी-पानी सा था।
तुरंत पतिदेव को फोन मिलाया।
सुनो कहां हो?
आप पार्टी में चले गये क्या?
यदि संभव हो तो थोड़ी देर के लिए घर आ जाओ प्लीज़।
लेकिन क्यों?
क्या हुआ?
अरे पड़ोसी ताऊजी हैं ना?
उन्हें अपने लिए एक पौव्वा मंगवाना था आपसे।
कह रहे थे नया साल मनाना चाहते हैं।
अरे !! मेरा तो मुश्किल है इतनी दूर से आना।
ओह !तो फिर क्या करें?
ताऊजी को दुखी करना भी ठीक नहीं। पतिदेव ने कहा।
मेरी धीमी उम्मीद पर जैसे ही नहीं का उत्तर भारी हुआ
मेरा मन बिल्कुल छोटा सा बच्चा बन गया।
मैंने फिर से पतिदेव से ज़िद की
प्लीज़ देख लो कुछ हो सकता है तो?
तभी उधर से आवाज आयी।
सुनो!सुनो! एक काम करो।
तुम जाकर मेरी आलमारी खोलो।
वहां एक बड़ी बोतल है वो ताऊजी को दे दो।
नये साल क्या हफ्ते भर का जुगाड़ हो जायेगा उनका।
नये साल के स्वागत के लिए जश्न मनाने का हक उनका भी है।
पतिदेव द्वारा ताऊजी के लिए व्यवस्था कर देने से, मानो मेरे मष्तिष्क में इस गुजरते हुए साल में ही नये साल के शुभ शरारे छूटने लगे।
आलमारी से बोतल निकालकर मैंने तुरंत ताऊजी को फोन पर ही बाहर बुलायाऔर दिवार के पार ही उन्हें सुपुर्द कर दी।
बोतल पकड़ते ही,ताऊजी के भुट्टे से दानों वाले दांत मुझे अधरों को तीव्र फाड़ते हुए दिखाई दिये।
उन्होंने मुंह से कुछ नहीं कहा,उनके वरद हस्त ने मुझे अथाह दे दिया था।

वापस भीतर गयी किंतु सीधे अपने शयनकक्ष में।इंसानी चेहरों को पढ़ने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी हूं कि भीतर जाकर मेरी कलम स्वत: ही मेरा भोगा हुआ यथार्थ उगलने लगी।

आज नये साल का पहला दिन है। नया सवेरा है, नयी धूप,नये फूल और उन पर पुराने साल की बनी हुई नयी ओस और नया सा ही मेरा परिष्कृत और संतुष्ट मन। सबकुछ नया है। किंतु पुराना भी कहां छूटता है? साथ-साथ चलता है, नये की उत्पत्ति में पुरातन का योगदान रहता ही नये साल पर फूल पर टिकी हुई पिछली रात की ओस की तरह।

नये साल की बधाई बेटा।
ताऊजी आपको भी नये साल की हार्दिक बधाई।
ताऊ जी कल रात नये साल की पार्टी कैसी रही?
ताऊजी की आंखों में चमक और अधरों पर गहरी मुस्कान बिखर गयी। कहने लगे,”बेटा तुम दोनों पति-पत्नी के प्रताप से नये साल की पार्टी बहुत बढ़िया रही”।
ईश्वर तुम दोनों को सदा प्रसन्न रखे।

मैंने पिछली रात सत्मार्ग पर चलने हेतु स्वयं से बहुत सारे वादे किये।ना जाने कितनों को कोई आधार व स्वरूप मिलता है? किंतु नये साल कि सुबह जब अनायास ही किसी की आंखों में दो चमकते हुए सूरज दिखाई दिये तो मैंने महसूस किया ज़िंदगी में ऐसी सुबह जैसी सुबह तो पिछली कोई सुबह आई ही नहीं थी।क्या याद करुं कि पीछे ज़िंदगी में क्या खोया और क्या पाया? अब कोई गिला नहीं।

सामाजिक विसंगति, बुरी आदत निश्चित ही व्यक्तिगत और समाजिक उन्नति में बाधा है किंतु जीवन के अस्त होते सूरज के भय में जीते हुए व्यक्ति को यही विसंगति क्षणिक मानसिक सुख का अमृतपान करा दे तो वह मेरे अनुसार भोग्य है।कल क्या उसके लिए अप्रिय लेकर आये ?कोई भी तो नहीं जानता है ?
संवेदनशील मन किसी के अस्तित्व को नकार कर मुंह भी तो नहीं फेर सकता..अंत: मैंने विसंगति नहीं इंसान के अस्तित्व को प्राथमिकता दी।
हम नाहक ही रोज़, बार-बार मरते हैं किंतु जीवन जीने की कला नहीं सीखना चाहते।

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