संस्मरण

रवाँई यात्रा – भाग-2

रवाँई यात्रा – भाग-2

Uncategorized, उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
भार्गव चंदोला28, 29, 30 दिसंबर, 2019 उत्तरकाशी जनपद की रवांई घाटी के नौगांव में तृतीय #रवाँई_लोक_महोत्सवअगली सुबह आंख खुली तो बाहर चिड़ियों की चहकने की आवाज रजाई के अंदर कानों तक गूंजने लगी, सर्दी की ठिठुरन इतनी थी की मूहं से रजाई हटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ समय बिता तो दरवाजे के बाहर से आवाज आई, चाय—चाय, मनोज भाई ने दरवाजा खोला तो बाहर Nimmi Kukreti Rashtrawadi हाथ में चाय लिए खड़ी थी। प्रायः मैं चाय से दूरी रखता हूँ, मगर रवाँई की उस ठिठुरन में ऐसा करना संभव न था। मैंने निम्मी से आग्रह किया, निम्मी गुनगुना पानी पिला देती तो फिर चाय का स्वाद भी लेने का आनंद बढ़ जायेगा। निम्मी झट से गुनगुना पानी भी ले आई, निम्मी के हाथ से बनी चाय में गांव की गाय के दूध का स्वाद था, निम्मी ने सभी साथियों को बहुत आत्मियता के साथ चाय पिलाकर सुबह खुशनुमा बना दी थी। बिस्तर छोड़कर बाहर आये तो बाहर क...
शहरों ने बदल दी है हमारी घुघती

शहरों ने बदल दी है हमारी घुघती

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति, हिमालयी राज्य
 ललित फुलाराशहर त्योहारों को या तो भुला देते हैं या उनके मायने बदल देते हैं। किसी चीज को भूलना मतलब हमारी स्मृतियों का लोप होना। स्मृति लोप होने का मतलब, संवेदनाओं का घुट जाना, सामाजिकता का हृास हो जाना और उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बन जाना। शहर त्योहारों को आयोजन में तब्दील कर देते हैं। आयोजन में तब्दील होने का मतलब, मूल से कट जाना, बाजार का हिस्सा बन जाना। बाजार होने का अर्थ- खरीद और बिक्री की संस्कृति में घुल-मिलकर उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को देना लेकिन, उसका वास्तविक अर्थ खो देना। यानी अपनी जड़ों से कट जाना। जड़ से कटने का मतलब, एक पूरे परिवेश, उसकी परंपरा व संस्कृति का विलुप्त हो जाना। परिवेश और परंपरा का विलुप्त होने का मतलब, पुरखों की संजोई विरासत को धीरे-धीरे ढहा देना।शहरों में हमारी घुघुती बदल गई है। हम बच्चों के गले में घुघती की माला तो लटका रहे हैं लेकिन उनको घुघत...
अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

अब न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

लोक पर्व-त्योहार, संस्मरण
हम लोग बचपन में जिस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते थे वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था।प्रकाश चंद्रभारत की विविधता के कई आयाम हैं इसमें बोली से लेकर रीति-रिवाज़, त्योहार, खान-पान, पहनावा और इन सबसे मिलकर बनने वाली जीवन पद्धति। इस जीवन पद्धति में लोककथाओं व लोक आस्था का बड़ा महत्व है। हर प्रदेश की अपनी लोक कथाएं हैं जिनका अपना एक संदर्भ है। इन लोक कथाओं और उनसे संबंधित त्योहारों के कारण ही आज भी ग्रामीण समाज में सामूहिकता का बोध बचा हुआ है। उसके उलट महानगरों में लगभग सामूहिकता का लोप हो चुका है। इस कारण से ही महानगरों में पलने और पढ़ने वाली पीढ़ी के लिए त्योहारों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। त्योहार अब उत्सव से ज्यादा ‘इवेंट’ में तब्दील हो रहे हैं। ऐसे समय उन त्योहारों को फिर से याद करना समय के चक्र के साथ बचपन में लौटने जैसा है। हम लोग बचपन में जिस त्योहार का ...
आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

आमा बीते जीवन की स्मृतियों को दोहराती होंगी

संस्मरण, साहित्‍य-संस्कृति
नीलम पांडेयवे घुमंतु नही थे, और ना ही बंजारे ही थे। वे तो निरपट पहाड़ी थे। मोटर तो तब उधर आती-जाती ही नहीं थी। हालांकि बाद में 1920 के आसपास मोटर गाड़ी आने लगी लेकिन शुरुआत में अधिकतर जनसामान्य मोटर गाड़ी को देखकर डरते भी थे, रामनगर से रानीखेत (आने जाने) के लिए बैलगाड़ी और पैदल ही सफर करने की लंबी कठिन यात्रा को जब वे पूरा कर लेते तो वापस लौटते हुए, एक दो रात्रि चैन का पड़ाव रानीखेत में भी गुजारा करते थे। आने—जाने की इसी प्रक्रिया में पड़ाव के साथ-साथ कुछ जगह रहने के ठिकाने भी बनते गए।उनके पास मेरे लिए पढ़ने के आलावा भविष्य बनाने का अचूक उपाय भी था, जो एक लोक गीत के रूप में मुझे रटाया भी गया था "बानरे आंखी छिलूकै की राखी, बौज्यू मै बनार कैं दिया, बानर जांछ हांई फांई बौजयू मैं बानर कै दिया," मां को विश्वास हो गया था इस गीत और पारम्परिक कहानियों से मैं पांचवीं पास भी कर लूं तो गनीम...
किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

किन्नौर का कायाकल्प करने वाला डिप्टी कमिश्नर

संस्मरण, हिमाचल-प्रदेश
कुसुम रावतमेरी मां कहती थी कि किसी की शक्ल देखकर आप उस ‘पंछी’ में छिपे गुणों का अंदाजा नहीं लगा सकते। यह बात टिहरी रियासत के दीवान परिवार के दून स्कूल से पढ़े मगर सामाजिक सरोकारों हेतु समर्पित प्रकृतिप्रेमी पर्वतारोही, पंडित नेहरू जैसी हस्तियों को हवाई सैर कराने वाले और एवरेस्ट की चोटी की तस्वीरें पहली बार दुनिया के सामने लाने वाले एअरफोर्स पायलट, किन्नौर की खुशहाली की कहानी लिखने वाले और देश में पर्यावरण के विकास का खाका खींचने वाले वाले दूरदर्शी नौकरशाह नलनी धर जयाल पर खरी बैठती है। देश के तीन प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले इस ताकतवर नौकरशाह ने हमेशा अपनी क्षमताओं से एक मील आगे चलने की हिम्मत दिखाई जिस वजह से वह भीड़ में दूर से दिखते हैं। जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदारी, प्रतिबद्वता व संजीदगी से जीने का सलीका इस बेजोड़ 94 वर्षीय नौकरशाह की पहचान है। यह कहानी एक रोचक संस्मरण है कि क...
जनाधिकारों के लिए संघर्षरत एक लोककवि !

जनाधिकारों के लिए संघर्षरत एक लोककवि !

उत्तराखंड हलचल, संस्मरण
व्योमेश जुगरानआज हिमालै तुमुकै धत्यूं छौ,  जागो - जागो ओ मेरा लाल बरसों पहले पौड़ी के जिला परिषद हॉल में गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ को पहली बार सुना था। खद्दर का कुर्ता पहने घने-लटदार बालों वाले इस शख़्स की बात ही कुछ और थी। उन्होंने माहौल से हटकर फ़ैज साहब का मशहूर कौमी तराना ‘दरबार-ए-वतन में जब इक दिन... सुनाया। ओजस्वी स्वर फूटे तो साज की दरकार ही कहां रही ! यह काम तो उनके पावों और बाहों की जुंबिशों ने संभाल लिया था।शास्त्रीय संगीत की जुगलबंदियां तो सुनी थी, लेकिन लोकगायकों की जुगलबंदी? यह अभिनव प्रयोग इतना सफल रहा कि इसकी गूंज सात समुंदर पार भी पहुंची। लेकिन यह सिर्फ गीत और गायिकी का आनंद भर नहीं था, बल्कि एक ऐसा प्रयोग था जिसने गढ़वाल और कुमाऊं से जुड़ी पहाड़ की सांस्कृतिक एकता के बचे-खुचे सूराख भी पाट दिए।तराने की हर बहर से आवाज के अंगार दहक रहे थे। मानो कोई कौमी हरकारा किस...