हिमालय की एक परंपरा का जाना है पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान

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Environmentalist Vishweshwar Dutt Saklani

‘वृक्ष मानव’ विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी की जयंती (2 जून, 1922 ) पर सादर नमन

  • चारु तिवारी

प्रकृति को आत्मसात करने वाले वयोवृद्ध पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान हिमालय की एक परंपरा का जाना है. उन्हें कई सदर्भों, कई अर्थों, कई सरोकारों के साथ जानने की जरूरत है. पिछले दिनों जब उनकी मृत्यु हुई तो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के समाचार माध्यमों ने उन्हें प्रमुखता के साथ प्रकाशित-प्रसारित किया. इससे पहले शायद ही उनके बारे में इतनी जानकारी लेने की कोशिश किसी ने की हो. सरकार के नुमांइदे भी अपनी तरह से उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुये. मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया. जैसे भी हो यह एक तरह से ‘वृक्ष मानव’ की एक परंपरा को जानने का उपक्रम है जिसे कई बार, कई कारणों से भुलाया जाता है. 96 वर्ष की उम्र में (18 जनवरी, 2019) उन्होंने अपने गांव सकलाना पट्टी में अंतिम सांस ली. आज उनकी जयन्ती है. हम सब उनको कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं.

विश्वेश्वर दत्त सकलानी को जानने वाले बताते हैं कि उन्होंने पहला वृक्ष आठ साल की अवस्था में लगा दिया था. उनकी पहली पत्नी कर मृत्यु 1958 में हो गई थी, उन्होंने उनकी याद का चिरस्थाई रखने के लिये वृक्ष लगाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. इसमें उनकी दूसरी पत्नी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें इस काम में परेशानियां भी कम नहीं हुई. शुरुआत में गांव के लोगों को भी लगा कि जिन जगहों पर वे पेड़ लगा रहे हैं, उसे कहीं कब्जा न लें. लेकिन बाद में लोगों की बात समझ में आई. एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के अलावा सकलानी जी के पास हिमालय के संसाधनों को बचाने की एक समझ थी. उन्होंने अपने गांव में नागेन्द्र सकलानी जी के नाम पर ‘नागेन्द्र वन’ के नाम से एक जंगल खड़ा किया.

बेहतर समाज बनाने की उत्कंठा, हिमालय को समझने का बोध, पर्यावरण के प्रति समझ, उसमें आम आदमी की भागीदारी और उससे बड़ा हिमालय को बसाने की परिकल्पना उनके पूरे जीवन दर्शन में रही. उसे अपने कृतित्व से भी उन्होंने उतारा. सकलानी को चेतना प्रकृति प्रदत्त मिली थी. कह सकते हैं उनकी रगो में थी. उनका जन्म एक ऐसे क्षेत्र में हुआ जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का प्रवाह रहा है. लड़ने की जिजीविषा रही है. प्रतिकार के स्वर रहे हैं.

इस जंगल में उन्होंने जंगलों की परंपरागत समझ और जैव विविधता को बनाये रखते हुये सघन वृक्षारोपण किया. उनके इस वन में बाज, बुरांस, देवदार, सेमल, भीमल के अलावा चैड़ी पत्ती के पेड़ों की बड़ी संख्या थी. गांधीवादी विचारधारा को आत्मसात करते हुये बिना प्रचार-प्रसार वे अपना काम करते रहे. बताते हैं कि उन्होंने इस क्षेत्र में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये. उनके इस काम को देखते हुये उन्हें ‘वृक्ष मानव’ की उपाधि दी गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष सम्मान’ दिया. भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित किये जाने के बावजूद वन विभाग ने उन पर वन क्षेत्र में पेड़ लगाने को अतिक्रमण माना और उन पर मुकदमा चलाया. उस समय में जाने-माने कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल ने टिहरी अदालत में उनकी पैरवी की. उन्होंने कोर्ट में यह साबित किया कि ‘पेड़ काटना जुर्म है, पेड़ लगाना नहीं.’ संभवतः 1990 में उन्हें वन विभाग के मुकदमे से मुक्ति मिली. उनका काम इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में हरित भूमि बनाने में योदान किया जहां की जमीन बहुत पथरीली थी.

विश्वेश्वर दत्त सकलानी को समझने के लिये चेतना के एक पूरे युग का सिंहावलोकन करना आवश्यक है. इस चेतना में पूरा इतिहास चलता है. बेहतर समाज बनाने की उत्कंठा, हिमालय को समझने का बोध, पर्यावरण के प्रति समझ, उसमें आम आदमी की भागीदारी और उससे बड़ा हिमालय को बसाने की परिकल्पना उनके पूरे जीवन दर्शन में रही. उसे अपने कृतित्व से भी उन्होंने उतारा. सकलानी को चेतना प्रकृति प्रदत्त मिली थी. कह सकते हैं उनकी रगो में थी. उनका जन्म एक ऐसे क्षेत्र में हुआ जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का प्रवाह रहा है. लड़ने की जिजीविषा रही है. प्रतिकार के स्वर रहे हैं.

आजादी के दौर और आजादी के बाद प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की जो भी मुहिम चली उसमें सकलानी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. सत्तर के दशक में उत्तराखंउ में वनों को बचाने को लेकर शुरू हुये ‘चिपको आंदोलन’ में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही.

उनका जन्म टिहरी गढ़वाल जनपद की सकलाना पट्टी में 2 जून, 1922 में हुआ था. ऐसे समय में जब पूरे देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी. युवा नई चेतना के साथ करवट ले रहे थे. अंग्रेजी हुकूमत के काले कानूनों के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे. विशेषकर जल, जंगल, जमीन के सवालों को लेकर. टिहरी गढ़वाल में टिहरी रियासत के काले कानूनों के खिलाफ लोग मुखर हो रहे थे. उस दौर में दो बड़ी घटनायें हुई जिन्होंने पूरे पहाड़ की राजनीतिक चेतना को नया मोड़ दिया. इसमें 23 अप्रैल, 1930 में पेशावर में चन्द्रसिंह गढ़वाल ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर नया इतिहास रचा, वहीं टिहरी रियासत ने 30 मई 1930 को तिलाड़ी के मैदान में अपने हकों के लिये आंदोलन कर रही निहत्थी जनता को गोलियों से भूना. यहां से अपने संसाधनों को बचाने की मुहिम ने नया रास्ता तय किया. अपने इन आंदोलनों को लोगों ने आजादी के आंदोलन के साथ जोड़कर देखा.

विश्वेश्वर दत्त सकलानी जैसे लोगों ने इसी चेतना के साथ अपनी आंखें खोली. उनके सामने समाज को देखने का नजरिया विकसित हो रहा था. उन्होंने भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया. टिहरी रियासत के खिलाफ भी लगातार आंदालन तेज हो रहा था. उस समय टिहरी में श्रीदेव सुमन के नेतृत्व में बड़ा आंदोलन चल रहा था. टिहरी रियासत की जेल में श्रीदेव सुमन की शहादत हुई. इसके खिलाफ कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने बड़ा आंदोलन खड़ा किया. 11 जनवरी, 1948 को कीर्तिनगर में मोलू भरदारी के साथ उनकी शहादत हुई. नागेन्द्र सकलानी उनके बड़े भाई थे. आजादी के दौर और आजादी के बाद प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की जो भी मुहिम चली उसमें सकलानी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. सत्तर के दशक में उत्तराखंउ में वनों को बचाने को लेकर शुरू हुये ‘चिपको आंदोलन’ में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही.

(लेखक सोशल एक्टिविस्ट एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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