Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
वो बचपन वाली ‘साइकिल गाड़ी’ चलाई

वो बचपन वाली ‘साइकिल गाड़ी’ चलाई

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—60 प्रकाश उप्रेती पहाड़ की अपनी एक अलग दुनिया है. because उस दुनिया में बचपन, बसंत की तरह आता है और पतझड़ की तरह चला जाता है लेकिन जब-जब बसंत आता है तो मानो बचपन लौट आता है. बचपन से लेकर जवानी की पहली स्टेज तक हम एक 'साइकिल गाड़ी' चलाते थे. वह हमारी और हम उसकी सवारी होते थे. कभी-कभी तो एक-दो दोस्तों को भी टांग लेते थे. पहाड़ इस "साइकिल गाड़ी" की भी because अपनी कथा है. इसके बिना न स्कूल, न खेत और न आरे-पारे बाखे जाते थे . जहाँ जाओ साइकिल गाड़ी को साथ ले जाते थे. आगे-आगे ये, पीछे-पीछे दौड़ते हुए हम जाते थे. इस कारण कई बार ईजा से डाँट भी खाते थे. कई बार तो ईजा ने "च्वां" (सीधे) साइकिल "फनखेतक पटोम" (घर के नीचे वाला खेत) फेंक भी दी थी. पहाड़ हम बस्ता पीठ में टांगते. because घर के सामने वाले अमरूद के पेड़ में लटक रही साइकिल को निकालते और घुर्र-घुर्र चला ...
काला अक्षर भैंस बराबर था मेरे लिए…

काला अक्षर भैंस बराबर था मेरे लिए…

संस्मरण
जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-3 सुनीता भट्ट पैन्यूली मेरी हथेली पर ऊंचाई से because टक से दस का सिक्का फेंकने के पीछे मकसद क्या था उस कंडक्टर का? क्या उसकी मनोवृत्ति थी आज तक नहीं समझ पायी मैं किंतु कॉलेज के सफ़र की अविस्मरणीय  स्मृतियों में कंटीली झाड़ में बिच्छु घास सी उग आयी घटना है यह मेरे जीवन में. हथेली कई हादसों की होने कीआवाज़ नहीं because होती है किंतु जिनसे होकर वह गुज़रते हैं यक़ीनन गोलियों के भेदने के उपरांत छिद्र से कर जाती हैं उनके जे़हन में जिन्होंने भोगा  है इस यथार्थ को. हथेली हादसा छोटा सा था या मैं ही because उसे विस्तार दे रही हूं इसका निर्णय आप पाठकों पर छोड़ती हूं. कॉलेज से शाम को घर पहुंच चुकी because थी मैं आज के अनुभव ने अनजाने ही सही पैठ बना ली थी मेरे मष्तिष्क में. कॉलेज में अपनी किताबों को गर्व से निहारा और पन्ने दर पन्ने पलटते ही न जा...
आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

आस्थाओं का पहाड़ और बुबू

संस्मरण
प्रकाश उप्रेती मूलत: उत्तराखंड के कुमाऊँ से हैं. पहाड़ों में इनका बचपन गुजरा है, उसके बाद पढ़ाई पूरी करने व करियर बनाने की दौड़ में शामिल होने दिल्ली जैसे महानगर की ओर रुख़ करते हैं. पहाड़ से निकलते जरूर हैं लेकिन पहाड़ इनमें हमेशा बसा रहता है। शहरों की भाग-दौड़ और कोलाहल के बीच इनमें ठेठ पहाड़ी पन व मन बरकरार है. यायावर प्रवृति के प्रकाश उप्रेती वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। कोरोना महामारी के कारण हुए ‘लॉक डाउन’ ने सभी को ‘वर्क फ्राम होम’ के लिए विवश किया। इस दौरान कई पाँव अपने गांवों की तरफ चल दिए तो कुछ काम की वजह से महानगरों में ही रह गए. ऐसे ही प्रकाश उप्रेती जब गांव नहीं जा पाए तो स्मृतियों के सहारे पहाड़ के तजुर्बों को शब्द चित्र का रूप दे रहे हैं। इनकी स्मृतियों का पहाड़ #मेरे #हिस्से #और #किस्से #का #पहाड़ नाम से पूरी एक सीरीज में दर्ज़ है। श्रृंखला, पहाड़ और वहाँ के जीव...
केले के पत्‍तों पर भोजन करना स्‍वास्‍थ्‍य के लिए लाभदायक!

केले के पत्‍तों पर भोजन करना स्‍वास्‍थ्‍य के लिए लाभदायक!

ट्रैवलॉग
पलाश के पत्तों पर भोजन करना स्वर्ण पात्र में भोजन करने से भी उत्तम है! मंजू दिल से… भाग-4 मंजू काला हमारे देश में सामाजिक अथवा धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होने के पश्चात इष्ट-मित्रों, रिश्तेदारों को भोजन के लिये आमन्त्रित करना एवं प्रसाद का वितरण हमारी  भोजन पद्धति का एक अंग है. because यद्यपि यह व्यवस्था आज भी बदस्तूर जारी है  तथापि इसका स्वरूप जरूर बदल गया है.  हम पर पश्चिमी सभ्यता का ऐसा मुलम्मा चढ़ा हुआ है कि हम उसका गुणगान करते नहीं  थकते हैं. अपनी पुरानी सांस्कृतिक विरासत को भूलते जा रहे हैं और परिणाम हम सबकी आँखों के सामने है. हमारा प्यारा हिंदुस्तान आज प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है! प्यारे वास्तविकता यह है कि इन सभी के because लिये प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष  रूप से  हम स्वयं ही जिम्मेदार है क्योंकि, प्रकृति ने पृथ्वी को स्वस्थ एवं स्वच्छ रखने के अनेकों साधन प्रदान किये...
मुनिया चौरा की ओखलियां मातृपूजा के वैदिक कालीन अवशेष

मुनिया चौरा की ओखलियां मातृपूजा के वैदिक कालीन अवशेष

इतिहास
डॉ. मोहन चंद तिवारी मेरे लिए दिनांक 28 अक्टूबर, 2020 का दिन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इस दिन  रानीखेत-मासी मोटर मार्ग में लगभग 40 कि.मी.की दूरी पर स्थित सुरेग्वेल के निकट मुनिया चौरा में because पुरातात्त्विक महत्त्व की महापाषाण कालीन तीन ओखलियों के पुनरान्वेषण में सफलता प्राप्त हुई. सुरेग्वेल से एक कि.मी.दूर मुनिया चौरा गांव के पास खड़ी चढ़ाई वाले अत्यंत दुर्गम और बीहड़ झाड़ियों के बीच पहाड़ की चोटी पर गुमनामी के रूप में स्थित इन ओखलियों तक पहुंचना बहुत ही कठिन और दुस्साध्य कार्य था.अलग अलग पत्थरों पर खुदी हुई ये महापाषाण काल की तीन ओखलियां चारों ओर झाड़ झंकर से ढकी होने के कारण भी गुमनामी के हालात में पड़ी हुई थीं. दशक मैं पिछले कई वर्षों से नवरात्र में जब भी आश्विन नवरात्र पर अपने पैतृक निवास स्थान जोयूं आता हूं तो इन ओखलियों तक पहुंचने के लिए प्रयासरत रहा हूं. किन्तु एकदम खड़ी, बीहड़ b...
हर लड़की का एक सपनों का राजकुमार होता है…

हर लड़की का एक सपनों का राजकुमार होता है…

किस्से-कहानियां
मंजु पांगती “मन”   यात्राएं कई प्रकार की होती हैं. because जीवन यात्रा, धार्मिक यात्रा, पर्यटन यात्रा, प्रेम यात्रा. जीवन में जब ये यात्राएं घटित होती हैं तो परिवेश में दृष्टिगोचर होती ही हैं. इन सब के साथ एक यात्रा और और होती है हर समय होती है जो दिखाई नहीं देती महसूस की जाती है. दशक कितना सुन्दर होता है but सपनों का संसार, जो कुछ हम चाहते हैं वही होता रहता है.  हकीकत की तपती रेत पर सपनों के सुखद कोमल नंगे पैर ज्यूँ ही खेलने को मचलते हैं तो तपती रेत पैरों को अकसर जला देती है. हर लड़की का एक सपनों का राजकुमार होता है. दशक मुख्य यात्रा तो जीवन यात्रा ही है न. यह सोचते-सोचते कविता की यादों की कड़ी जुड़ती जाती है. जब उसने होश सम्भाला तो सभी बच्चों की भांति वह भी सपनों के पंख फैलाए रंगीन सपनों के संसार में गोते लगा रही थी. so कितना सुन्दर होता है सपनों का संसार, जो कुछ हम चाहते ह...
दशहरे का त्‍योहार यादों के झरोखे से…

दशहरे का त्‍योहार यादों के झरोखे से…

संस्मरण
अनीता मैठाणी नब्बे के दशक की एक सुबह... शहर देहरादून... हमारी गली और ऐसे ही कई गली मौहल्लों में... साइकिल की खड़खड़ाहट और ... एक सांस में दही, दही, दही, दही दही, दही की आवाज़. दशक कुछ ही देर में दूसरी साइकिल की खड़खड़ but और आवाज वही दही की, पर इस बार दोई... दोई..., दोई.. दोई..., दोई... दोई... तीसरी साइकिल की खड़खड़ और आवाज दहीईईईई दहीईईईई. ऐसे ही दोपहर होते-होते कई फेरी वाले एक because के बाद एक गली में चक्कर लगा जाते. यूं तो एक-दो दही वाले लगभग रोज ही आते थे, परंतु दशहरे के दिन इस तरह के दही वालों की रेलमपेल अक्सर देखने को मिलती. वे जानते थे कि आज के दिन भारत के गोर्खाली समुदाय के लोग दही चावल का टीका करते हैं. दशक दशक जिन्हें दही लेना होता वो because गिलास, लोटा, जग लेकर घरों से बाहर निकलते और सपरेटा दही की तमाम कमियां बताते ना-नुकुर करते पाव भर, आधा किलो, एक किलो दही लेते. उन ...
वो पीड़ा… यादें बचपन की

वो पीड़ा… यादें बचपन की

संस्मरण
एम. जोशी हिमानी छुआछूत किसी भी समाज की मानसिक बर्बरता का द्योतक है. हमारे समाज में छुआछूत का कलंक सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. आज के तथाकथित सभ्य समाज में भी यह बहुत गहरे so तक मौजूद है. उसके खात्मे की बातें मात्र किताबी हैं, समय पड़ने पर छुआछूत का नाग अपने फन उठा लेता है. ताव अपने बाल्यकाल में दूसरों की इस पीड़ा but को महसूस कर पाने के कारण ही शायद मेरे अंदर छुआछूत का भाव बचपन में ही खत्म हो गया था. हालांकि जिस माहौल में मेरी परवरिश हुई थी उसमें मुझे छुआछूत का कट्टर समर्थक बन जाना चाहिए था. शायद कुछ मेरा प्रारब्ध रहा होगा कि मैं वैसी नहीं बन पाई. ताव उच्च कुल में जन्म लेने के बावजूद छुआछूत की पीड़ा को मैंने बहुत नजदीक से देखा है. भले ही मैंने उस दंश को नहीं झेला, लेकिन मैं उसकी गवाह तो रही हूं. किसी संवेदनशील इंसान के because लिए किसी बुराई का गवाह बनना भी उसको भोगने जितना ह...
हर रोग का इलाज था ‘ताव’

हर रोग का इलाज था ‘ताव’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—58 प्रकाश उप्रेती पहाड़ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्वयं के ढलने की कहानी भी है. पहाड़ विलोम में जीता और अपनी संरचना में ढलते हुए भी निशान छोड़ जाता है. आज उन निशान में से एक “ताव” की बात. because ताव को आप डॉ. का आला या पौराणिक कथाओं से ख्यात 'रामबाण' समझ सकते हैं. हर घर में ताव होता ही होता था. कुछ ताव विशेषज्ञ भी होते थे जो इसका बिना डरे इस्तेमाल करते थे. तब ताव के एक “चस्साक” से कई रोग दूर हो जाते थे. हमारे घर में दो ताव थे. एक पतला और दूसरा उससे थोड़ा मोटा था. ताव ताव लोहे की एक छड़ होती थी. because इस छड़ को आगे से दो मुहाँ बनाया जाता था. इस सीधी छड़ के दोनों मुँह आगे से थोड़ा मुड़े हुए होते थे. एक हाथ भर के इस यंत्र को ही “ताव” कहा जाता था. ताव "लोहार" के वहाँ से बनाकर लाया जाता था. “अमूस” (अमावस्या) के दिन बना ताव ज्यादा कारगर माना जाता था. उस दिन का बना ताव...
मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…

मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…

संस्मरण
जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-2 सुनीता भट्ट पैन्यूली हमारा रिक्शा छन-छन घुंघरुओं की सी आवाज़ निकालते हुए हवा से बातें करते हुए कॉलेज की ओर जा रहा था, रिक्शा एक पतली तंग भीड़-भाड़ वाली गली में घुसा, ऐसा महसूस हो because रहा था मानो दुनिया भर के सारे मेहनत करने वाले हाथ अपनी-अपनी रोटी जुटाने के लिए उमड़े हों, यहां इस गली में सड़क पर कोई उबले अंडे, कोई शकरकंदी, कोई मुंगफली के साथ ठेली में अम्रक बेच रहा था, तो कोई भूने हुए पापड़. कोई गज्जक बेच रहा था, कोई काला चश्मा पहनकर वैल्डिंग से लोहे की सरियाओं को खिड़कियों और दरवाज़े का आकार दे रहा था. इस मेहनत वाली गली में दांयी तरफ एक छोटी-सी मस्ज़िद से होकर भी गुजरना हुआ, मुझे मालूम नहीं था कि अनजाने में ही सही पर दोबारा एक साल तक कॉलेज आने-जाने के लिए मैंने पहचान स्वरुप इस छोटी-सी मस्जिद की पक्की तस्वीर अपने ज़ेहन में बैठा ली थी. खोलकर...