मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—60
- प्रकाश उप्रेती
पहाड़ की अपनी एक अलग दुनिया है.
उस दुनिया में बचपन, बसंत की तरह आता है और पतझड़ की तरह चला जाता है लेकिन जब-जब बसंत आता है तो मानो बचपन लौट आता है. बचपन से लेकर जवानी की पहली स्टेज तक हम एक ‘साइकिल गाड़ी’ चलाते थे. वह हमारी और हम उसकी सवारी होते थे. कभी-कभी तो एक-दो दोस्तों को भी टांग लेते थे.पहाड़
इस “साइकिल गाड़ी” की भी
अपनी कथा है. इसके बिना न स्कूल, न खेत और न आरे-पारे बाखे जाते थे . जहाँ जाओ साइकिल गाड़ी को साथ ले जाते थे. आगे-आगे ये, पीछे-पीछे दौड़ते हुए हम जाते थे. इस कारण कई बार ईजा से डाँट भी खाते थे. कई बार तो ईजा ने “च्वां” (सीधे) साइकिल “फनखेतक पटोम” (घर के नीचे वाला खेत) फेंक भी दी थी.पहाड़
हम बस्ता पीठ में टांगते.
घर के सामने वाले अमरूद के पेड़ में लटक रही साइकिल को निकालते और घुर्र-घुर्र चला कर निकल जाते थे. आगे-आगे साइकिल और पीछे-पीछे हम दौड़ रहे होते थे. ईजा कई बार कहती थीं- “इकें कथां लि जाम छै”
पहाड़
लोहे के तार को गोल टायरनुमा बनाकर, उसे एक हैंडल से चलाया जाता था. हैंडल पर बाकायदा लकड़ी का
हत्था चढ़ाया जाता था. एक हाथ से उस हत्थे को पकड़ कर ही साइकिल चलाई जाती थी. यही दरअसल साइकिल थी. छोटी-बड़ी, मोटी और पतली अलग-अलग आकार की साइकिल बनती थी. उस साइकिल के साथ ही पूरे गाँव भर का चक्कर लगाया जाता था. मजाल कि अपनी साइकिल पर किसी को हाथ लगाने दें..पहाड़
पढ़ें— सॉल’ या ‘साही’ (Porcupine) की आवाज के दिन
ईजा सुबह-सुबह ‘इस्कूल’
के लिए तैयार करती थीं. तैयार करने में वही होता था. एक तो बोरा ढूंढ कर दे देना और दूसरा मिर्च वाला सरसों का तेल मुँह पर चपोड देना. तैयार करने में इतना ही होता था. हम बस्ता पीठ में टांगते. घर के सामने वाले अमरूद के पेड़ में लटक रही साइकिल को निकालते और घुर्र-घुर्र चला कर निकल जाते थे. आगे-आगे साइकिल और पीछे-पीछे हम दौड़ रहे होते थे. ईजा कई बार कहती थीं- “इकें कथां लि जाम छै” (इसको कहाँ ले जा रहा है). ईजा के यह कहने से पहले ही हम फुर्र हो चुके होते थे.पहाड़
इस्कूल से थोड़ा पहले तक साइकिल चला
कर ले जाते थे लेकिन इस्कूल की बाउंड्री के अंदर नहीं ले जाते थे. मासाब इस्कूल में अगर साइकिल देख लेते थे तो उसको मोड़ कर नीचे गध्यर में फेंक देते थे. इस डर के कारण हम इस्कूल से थोड़ा पहले ही ‘करुंझक बुजपन” (काँटे वाले पेड़ की झाड़ियों) के नीचे ही साइकिल को छुपा देते थे. घर को आते हुए वहाँ से निकालते और फिर घुर्र-घुर्र चलाकर घर पहुँच जाते थे.पहाड़
अगर कभी जल्दी-जल्दी
में साइकिल रास्ते में या घर के आँगन में छूट जाती तो ईजा उसे च्वां नीचे फेंक देती थी.वह इसलिए कि ईजा का एक-दो बार साइकिल में पाँव फंस गया था. एक बार तो ‘थोरी’ का भी पाँव फंस गया था. इसलिए ईजा फेंक देती थीं. इधर ईजा फेंकती, उधर हम “दू…दू… द्युरिक” (भाग कर) कर उठा लाते थे. उठा कर फिर अमरूद के पेड़ में टांग देते थे.
पहाड़
किसी भी काम के लिए ईजा पारे बाखे भेजती थीं तो हम साइकिल पहले निकाल लेते थे. बस साइकिल ली और पारे बाखे चल दिए. कई बार जिनके पास साइकिल नहीं होती वो बच्चे एक चक्कर मारने के लिए माँगते थे. हम बड़ी ऐंठन के साथ देते थे. कभी तो सीधे मना कर देते थे. हाँ, ये जरूर करते थे कि हम आगे से साइकिल चलाते और वो पीछे से हमारी कमीज पकड़कर भागते थे. इस तरह हम अपनी साइकिल में उनको भी टाँग लाते थे.
पहाड़
साइकिल रखने की दो-तीन जगह नियत थी.
एक तो पेड़ में टाँग देते थे. दूसरा “कोखाडी” (घर के पीछे वाली गली) में रख देते थे. तीसरा “छनक पाखम” (छन की छत) में रखते थे. अक्सर इन्हीं तीन जगहों में रखते थे. अगर कभी जल्दी-जल्दी में साइकिल रास्ते में या घर के आँगन में छूट जाती तो ईजा उसे च्वां नीचे फेंक देती थी.वह इसलिए कि ईजा का एक-दो बार साइकिल में पाँव फंस गया था. एक बार तो ‘थोरी’ का भी पाँव फंस गया था. इसलिए ईजा फेंक देती थीं. इधर ईजा फेंकती, उधर हम “दू…दू… द्युरिक” (भाग कर) कर उठा लाते थे. उठा कर फिर अमरूद के पेड़ में टांग देते थे.पहाड़
तब साइकिल के नाम पर यही
हमारी गाड़ी थी. आज वाली साइकिल भी पूरे गाँव भर में एक चाचा के पास ही थी. वो साइकिल से रोज मांसी पढ़ने जाते थे. हमारे लिए तो साइकिल देख लेना भी बड़ी बात होती थी. चाचा जी भी अपनी साइकिल की संभाल मर्सडीज़ की तरह करते थे. मजाल किसी की कि गद्दी पर भी हाथ रख दे.पहाड़
पढ़ें— आस्थाओं का पहाड़ और बुबू
तब बच्चे साइकिल चलाना सीखने के लिए दूर-दूर जाते थे.
हमारे यहां से साइकिल सीखने के लिए मांसी जाना होता था. वहाँ 7 रुपए एक घण्टा और 5 रुपए आधे घंटे के हिसाब से साइकिल किराए पर मिलती थी. साइकिल लेकर सीधे तप्पड़ में चले जाते थे. वहीं गिरते-पड़ते हुए चलाना सीख लेते थे.पहाड़
पहाड़ों में साइकिल
की जगह मोटरसाइकिल ने ले ली है. इंसान जैसे-जैसे अमीर होता गया, साइकिल वैसे-वैसे गरीब होती गई. वो बचपन वाली साइकिल गाड़ी तो न जाने कहाँ गुम हो गई है. ईजा ने आज भी हर गुम होती चीज को बचाकर रखा है. उन्होंने हमारी एक साइकिल गाड़ी भी बचाई हुई है…
पहाड़
अब तो हर तरह की साइकिल
कम ही दिखाई देती हैं. पहाड़ों में साइकिल की जगह मोटरसाइकिल ने ले ली है. इंसान जैसे-जैसे अमीर होता गया, साइकिल वैसे-वैसे गरीब होती गई. वो बचपन वाली साइकिल गाड़ी तो न जाने कहाँ गुम हो गई है. ईजा ने आज भी हर गुम होती चीज को बचाकर रखा है. उन्होंने हमारी एक साइकिल गाड़ी भी बचाई हुई है…पहाड़
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं.)