Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

जीवन का अँधेरा दूर करने वाला ‘लम्फू’

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—36 प्रकाश उप्रेती आज बात रोशनी के उस सीमित घेरे की जहां से अंधेरा छटा. जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम 'लम्फू' कहते थे. 'लम्फू' मतलब लैम्प. वह आज के जैसा लैम्प नहीं था. उसकी रोशनी की अदायगी निराली थी. पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था. ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया. दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती   को ऊपर करना, रोज का नियम सा था. ईजा जब तक 'छन' (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम 'गोठ'(घर का नीचे का हिस्सा), 'भतेर' (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे. लम्फू रखने की जगह भी नियत थी. भतेर में वह स्थान 'गन्या' (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था. वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी. गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार...
अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस पर उन्हें नमन करते हुए

स्मृति-शेष
टिहरी बांध बनने में शिल्पकार समाज के जीवन संघर्षों का रेखांकन, साहित्यकार ‘बचन सिंह नेगी’ का मार्मिक उपन्यास 'डूबता शहर’ डॉ.  अरुण कुकसाल "...शेरू भाई! यदि इस टिहरी को डूबना है तो ये लोग मकान क्यों बनाये जा रहे हैं. शेरू हंसा ‘चैतू! यही तो निन्यानवे का चक्कर है, जिन लोगों के पास पैसा है, वे एक का चार बनाने का रास्ता निकाल रहे हैं. डूबना तो इसे गरीबों के लिए है, बेसहारा लोगों के लिये है, उन लोगों के लिए है जिन्हें जलती आग में हाथ सेंकना नहीं आता. जो सब-कुछ गंवा बैठने के भय से आंतकित हैं.....चैतू सोच में डूब जाता है, उनका क्या होगा? आज तक रोजी-रोटी ही अनिश्चित थी, अब रहने का ठिकाना भी अनिश्चित हो रहा है.’’  (पृष्ठ, 9-10) टिहरी बांध बनने के बाद ‘उनका क्या होगा?’ यह चिंता केवल चैतू की नहीं है उसके जैसे हजारों स्थानीय लोगों की भी है. ‘डूबता शहर’ उपन्यास में जमनू, चैतू, कठणू, रूपा, रघु,...
राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

राज्य मिलने के बीस साल बाद भी उपेक्षित है जालली सुरेग्वेल क्षेत्र

अल्‍मोड़ा
डॉ. मोहन चन्द तिवारी अभी हाल ही में 22, जुलाई, 2020 को जालली क्षेत्र के सक्रिय कार्यकर्त्ता और समाजसेवी भैरब सती ने अमरनाथ, ग्राम प्रधान जालली; मनोज रावत, ग्राम प्रधान ईड़ा; सरपंच दीन दयाल काण्डपाल, मोहन काण्डपाल, नन्दन सिंह, गोपाल दत, पानदेव व महेश चन्द्र जोशी आदि क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल की अगुवाई करते हुए जालली क्षेत्र के विकास और वहां उप तहसील के कार्यालय की स्थापना की मांग को लेकर द्वाराहाट तहसील के एसडीएम श्री आर के पाण्डेय से मुलाकात की और उन्हें ज्ञापन भी सौंपा है. जालली क्षेत्रवासियों की एक मुख्य मांग है कि वहां एक साधन संपन्न कार्यालय खोला जाए और तुरंत वहां डाटा आपरेटर की नियुक्ति की जाए, ताकि इस कोरोना काल की चरमराई हुई राज्य परिवहन व्यवस्था के दौर में स्थानीय लोगों को अपने खतोंनी की नकल प्राप्त करने और परिवार रजिस्टर, आय प्रमाण पत्र,स्थायी निवास पत्र, जा...
मिलाई

मिलाई

किस्से-कहानियां
कहानी एम. जोशी हिमानी वह 18 जून 2013 का दिन था वैसे तो जून अपनी प्रचण्ड गर्मी के लिए हमेशा से ही बदनाम रहा है परन्तु उस वर्ष की गर्मी तो और भी भयावह थी पारा 46 के पार जा पहुँचा था ऐसी सिर फटा देने वाली गर्मी की दोपहर में माया बरेली से लखनऊ के लिए जनरल क्लास के डिब्बे में बैठ गई थी जनरल क्लास का वह उसका पहला सफर था वह कहाँ बैठी है किन लोगो के बीच में बैठी है आज उसका उसके लिए कोई महत्व नहीं रह गया था अपनी दाहिनी हथेली को उसने साड़ी के पल्लू से पूरी तरह से ढक लिया था बरेली जेल में मिलाई की मुहर ने जैसे उसे स्वयं गुनहगार बना दिया था. वह कनखियों से आस पास जानवरों की तरह ठुंसे हुए सहयात्रियों को कनखियों से देखती है उसे वे सारे लोग मिलाई के वक्त घंटो से इंतजार में बैठे कांतिहीन. गौरवहीन लोगों से लग रहे थे परन्तु उनमें से किसी की हथेली में मिलाई की मुहर नहीं दिख रही थी. किसी ने न अपनी हथेल...
हौंसलों की उड़ान

हौंसलों की उड़ान

संस्मरण
भारतमाता की सेवा में समर्पित यमुना घाटी के कई लाल ध्‍यान सिंह रावत ‘ध्‍यानी’ सीमान्त जनपद उत्तरकाशी का रवांई क्षेत्र जहां अपनी सांस्कृतिक विविधता प्राकृतिक सुन्दरता के लिए जग जाहिर है वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी इन सुदूरवर्ती गांवों से निकलने वाले नौजवान ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा कर समूचे देश  के साथ कंधे से कंधा मिला रहे हैं. इन सुदूर रवांई क्षेत्र की शांत वादियों में बसे गांव के होनहार नौनिहाल जब विभिन्न क्षेत्रों में अपनी कामयाबी की सूचना देते हैं तो इन पहाड़ों में बसने वाले सीधे-सादे जन मानस का मस्तिष्‍क भी पहाड़ सा ऊँचा हो जाता है. अखिल राणा की माँ कहती है कि अखिल अक्सर मुझे कहता था -‘‘माँ एक दिन मैं सेना में ऑफिसर बन के रहूंगा और देश  की सेवा करूंगा.’’ राष्‍ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में जहां उत्तराखण्ड राज्य देश  में अपना विशिष्‍ट स्थान बनाए है वहीं अब उ...
गोधनी ईजा छाँ कसि फाने: घूर..घवां..

गोधनी ईजा छाँ कसि फाने: घूर..घवां..

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—35 प्रकाश उप्रेती यह हमारे जीवन का वो किस्सा है, जो हर तीसरे और चौथे दिन घटता ही था. इसकी स्मृतियाँ कभी धुँधली नहीं होती बल्कि चित्र बन आँखों में तैरने लगती हैं. वो स्मृतियाँ हैं -'ईजा' (माँ) के 'छाँ  फ़ानने' की. मतलब कि छाँछ बनाने की. ईजा ने भैंस तो हमेशा रखी. कभी एक तो कभी दो, हाल के दिनों में तो चार भी थीं. इसलिए हर तीसरे-चौथे दिन छाँ फानती ही थीं. ईजा 'भतेर' (घर का ऊपर वाला हिस्सा) 'थुमी' (घर के बीच में धुरी के समान लगी मोटी लकड़ी) पर छाँ फानती थी. थुमी पर दो 'ज्योड़' (रस्सी) जिन्हें "नेतण" कहा जाता था, हमेशा बंधे रहते थे. ईजा उनमें 'रअडी' ( एक लंबी लकड़ी जिसके नीचे के सिरे पर तिकोना बनाया होता था) को फंसाकर 'कंटर' (कनस्तर) में छाँ फानती थीं. उसको बीचों-बीच में करना और बैलेंस बनाए रखना भी कला होती थी. तब घर की नई बहू की परीक्षा 'छाँ' फानना आता है...
अन्वेषक अमर सिंह रावत के अमर उद्यमीय प्रयास

अन्वेषक अमर सिंह रावत के अमर उद्यमीय प्रयास

इतिहास
डॉ. अरुण कुकसाल सीरौं गांव (पौड़ी गढ़वाल) के महान अन्वेषक और उद्यमी अमर सिंह रावत सन् 1927 से 1942 तक कंडाली, पिरूल और रामबांस के कच्चेमाल से व्यावसायिक स्तर पर सूती और ऊनी कपड़ा बनाया करते थे. उन्होने सन् 1940 में मुम्बई (तब का बम्बई) में प्राकृतिक रेशों से कपड़ा बनाने के कारोबार में काम करने का 1 लाख रुपये का ऑफर ठुकरा कर अपने गढ़वाल में ही स्वःरोजगार की अलख जगाना बेहतर समझा. परन्तु हमारे गढ़वाली समाज ने उनकी कदर न जानी. आखिर में उनके सपने और आविष्कार उनके साथ ही विदा हो गये. बात अतीत की करें तो उत्तराखंड में सामाजिक चेतना की अलख़ जगाने वालों में 3 अग्रणी व्यक्तित्व इसी गांव से ताल्लुक रखते थे. अन्वेषक एवं उद्यमी अमर सिंह रावत, आर्य समाज आंदोलन के प्रचारक जोध सिंह रावत और शिक्षाविद् डॉ. सौभागयवती. यह भी महत्वपूर्ण है कि गढ़वाल राइफल के संस्थापक लाट सुबेदार बलभद्र सिंह नेगी के पूर्वज...
बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

बादल फटने की त्रासदी से कब तक संत्रस्त रहेगा उत्तराखंड?

उत्तराखंड हलचल
डॉ. मोहन चन्द तिवारी उत्तराखंड इन दिनों पिछले सालों की तरह लगातार बादल फटने और भारी बारिश की वजह से मुसीबत के दौर से गुजर रहा है.हाल ही में 20 जुलाई को पिथौरागढ़ जिले के बंगापानी सब डिवीजन में बादल फटने से 5 लोगों की मौत हो गई, कई घर जमींदोज हो गए और मलबे की चपेट में आने की वजह से 11 लोगों के बह जाने की खबर है.नदियां उफान पर हैं.इससे पहले 18 जुलाई को भी पिथौरागढ़ जिले में बादल फटने की दर्दनाक घटना हुई है.पहाड़ से अचानक आए जल सैलाब से कई घर दब गए,पांच घर बह गए और तीस घर खतरे की स्थिति में हैं.गोरी नदी में जलस्तर बढ़ने से सबसे ज्यादा नुकसान मुनस्यारी में हुआ.वहां एक पुल पानी में समा गया. आखिर ये बादल कैसे फटते हैं? ये उत्तराखंड के इलाकों में ही क्यों फटते हैं? बादल फटने का मौसम वैज्ञानिक मतलब क्या है? इन तमाम सवालों पर मैं आगे विस्तार से चर्चा करुंगा. लेकिन पहले यह बताना चाहुंगा कि उ...
काणी मैं (मामी) उर्फ हल्या बौ (भाभी)

काणी मैं (मामी) उर्फ हल्या बौ (भाभी)

संस्मरण
डॉ. अमिता प्रकाश पहाड़ हम पहाड़वासियों की रग-रग में इसी तरह बसा है जैसे शरीर में प्राण. प्राण के बिना जैसे शरीर निर्जीव है, कुछ वैसे ही हम भी प्राणहीन हो जाते हैं, पहाड़ के बिना. पहाड़ में हमारी जड़ें हैं जिनसे आज भी हम पोषण प्राप्त कर रहे हैं और जीवन के संघर्ष में हर आँधी-तूफान से लड़ते हुए खड़े हैं. पहाड़ की सी कठोरता हमारे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है, और इसी कठोरता के बलबूते जहाँ-तहाँ हम खड़े दिख जाते हैं ‘कुटजों’ की तरह. भले ही रूखे-सूखे और कंटीले लगे हम दुनियाँ वालों को लेकिन पहाड़ों की सी तरलता भी भरपूर होती है हम पहाड़ियों में. जैसे पहाड़ पालता है अपनी कोख में असंख्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को, और फूट पड़ता है ‘धारे-नौले, सोतों के रूप में, बिखर जाता है नदीधारा को रास्ता देने, वैसे ही अपने अस्तित्व का कण-कण समर्पित करते आए हैं हम पहाड़ी. भले ही न सराहा हो किसी ने हमारे समर्पण को कभी, पहाड़ को ...
आधुनिक ‘बुफे पद्धति’ और ‘कुक-शेफ़ों’ के बीच गायब होते ‘सरोला’

आधुनिक ‘बुफे पद्धति’ और ‘कुक-शेफ़ों’ के बीच गायब होते ‘सरोला’

साहित्‍य-संस्कृति
घरवात् (सहभोज) विजय कुमार डोभाल आज की युवा पीढ़ी होटल, पार्टी या पिकनिक पर जा कर सहभोज का आनन्द ले रही है क्योंकि यह पीढ़ी शहर में ही जन्मी, पली-बढ़ी, शिक्षित-दीक्षित हुई तथा शहरीकरण में ही रच-बस गई है. यह पीढ़ी अपने पहाड़ी जनमानस के सामाजिक कार्यों, उत्सवों और विवाहादि अवसरों पर दी जाने वाली दावतों (घरवात्) के विषय में अनभिज्ञ है. इस पीढ़ी के युवाओं को घरवात् की जानकारी दिए जाने का प्रयास किया गया है. पहाड़ी समाज के जटिल जाति-भेद, ऊंच-नीच के कारण वर्ण-व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाता था. कच्ची रसोई (दाल-चावल) पकाने और परोसने के लिए कुछ उच्च कुलीन ब्राह्मणों को नियत किया गया जिन्हें “सरोला” कहा जाता है. घरवातों (सहभोज) के पकाने, परोसने और खाने के कठोर नियम होते हैं. “रुसड़ा” (पाकशाला जो प्रायः अस्थाई छप्पर होता है) में सरोलाओं के अतिरिक्त कोई अन्य प्रवेश नहीं कर सकता है. इस समय (...