मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—58
- प्रकाश उप्रेती
पहाड़ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्वयं के ढलने की कहानी भी है. पहाड़ विलोम में जीता और अपनी संरचना में ढलते हुए भी निशान छोड़ जाता है. आज उन निशान में से एक “ताव” की बात.
ताव को आप डॉ. का आला या पौराणिक कथाओं से ख्यात ‘रामबाण’ समझ सकते हैं. हर घर में ताव होता ही होता था. कुछ ताव विशेषज्ञ भी होते थे जो इसका बिना डरे इस्तेमाल करते थे. तब ताव के एक “चस्साक” से कई रोग दूर हो जाते थे. हमारे घर में दो ताव थे. एक पतला और दूसरा उससे थोड़ा मोटा था.ताव
ताव लोहे की एक छड़ होती थी.
इस छड़ को आगे से दो मुहाँ बनाया जाता था. इस सीधी छड़ के दोनों मुँह आगे से थोड़ा मुड़े हुए होते थे. एक हाथ भर के इस यंत्र को ही “ताव” कहा जाता था. ताव “लोहार” के वहाँ से बनाकर लाया जाता था. “अमूस” (अमावस्या) के दिन बना ताव ज्यादा कारगर माना जाता था. उस दिन का बना ताव ज्यादा असर करता है, ऐसी मान्यता थी.को
ताव उन सब बीमारियों का इलाज था जो पहाड़ के जीवन में नमक की तरह घुली हुई थीं. उनके बिना जीवन का स्वाद ही फीका होता था. पाँव में अगर “छपकु कान”,
‘बुड’ जाए तो ताव काम आता था. कमर में दर्द , दाँत में दर्द, पांव में कहीं गाँठ बन जाए, पेट भरने लगेआदि जैसी बीमारियों का रामबाण ताव ही था.
आप
ईजा ताव को चूल्हे के ठीक ऊपर ‘डावपन’ (छत में लकड़ियों के बीच फंसा कर) रखती थीं. यही इसकी नियत जगह थी. ताव उन सब बीमारियों का इलाज था जो पहाड़ के जीवन
में नमक की तरह घुली हुई थीं. उनके बिना जीवन का स्वाद ही फीका होता था. पाँव में अगर “छपकु कान” (खास तरह का काँटा जो पक कर ही निकलता था) ‘बुड’ (चुभ) जाए तो ताव काम आता था. कमर में दर्द , दाँत में दर्द, पांव में कहीं गाँठ बन जाए, पेट भरने लगेआदि जैसी बीमारियों का रामबाण ताव ही था.डॉ
ईजा ताव लगाने में एक्सपर्ट थीं. बाकायदा गाँव वाले भी ताव लगाने और कान छिदवाने ईजा के पास ही आते थे. ताव से इलाज एकदम पहाड़ी तरीका होता था. ईजा रात में रोटी बन जाने के
बाद लाल अंगारों में ताव को गर्म करने के लिए रख देती थीं. रोटी खाने तक उसके आगे के दोनों मुँह एकदम लाल हो जाते थे. लाल मुँह को देखकर ईजा के सिवाय हम सबको डर लगता था. यहाँ तक कि ‘अम्मा’ (दादी) को भी डर लगता था. ईजा को जब हम बताते कि पाँव में दर्द हो रहा है या काँटा चुभ गया है तो ईजा कहतीं- “ब्या हैं ताव लगे द्यूल पे ठीक है जाल” (रात को ताव लगा दूँगी, फिर सब ठीक हो जाएगा). ईजा इतने प्यार से ये बात कहती थी कि हम होई.. होई.. ही बोल देते थे.का
लाल ताव को देखने से जितना डर लगता था. उतना ताव लगने पर दर्द नहीं होता था. जब ईजा ताव लगाती तो हमको कहतीं- “पंहाँ चाहा, इथां झन देखिये हां”. हम ऐसा ही
करते थे. ताव की तरफ देखते ही नहीं थे. बस ईजा चट से लगा देती थीं. ईजा के हाथ से ताव लगाने पर दर्द नहीं होता है, यह बात जगज़ाहिर थी. इस ठेठ पहाड़ी इलाज को “ताव लगाना” कहते थे.
आला
ईजा एकदम लाल ताव को चूल्हे से
निकालती और जहाँ दर्द हो रहा होता या काँटा चुभा होता वहाँ पर तप-तप लगा देती थीं. मतलब कि उसके दोनों लाल मुँह से दर्द वाली जगह को 3-4 बार छुवा देती थीं. चस्स लगाना फिर पलक झपकते ही हटा लेना और फिर लगाना. यही उसका तरीका होता था. लाल ताव को देखने से जितना डर लगता था. उतना ताव लगने पर दर्द नहीं होता था. जब ईजा ताव लगाती तो हमको कहतीं- “पंहाँ चाहा, इथां झन देखिये हां” (पीछे को देख, इधर को मत देखना). हम ऐसा ही करते थे. ताव की तरफ देखते ही नहीं थे. बस ईजा चट से लगा देती थीं. ईजा के हाथ से ताव लगाने पर दर्द नहीं होता है, यह बात जगज़ाहिर थी. इस ठेठ पहाड़ी इलाज को “ताव लगाना” कहते थे.या
ताव का इसके अलावा भी एक बड़ा महत्व था.
‘हरेला’ (एक त्योहार) को काटने से पहले ताव से ही ‘गोडा’ (गुढाई) जाता था. हरेला काटने के एक दिन पहले रात में ईजा ताव से उसे ‘गोड़ती” थीं. हम भी अपने-अपने “पुड” (तिमिल के पत्तों की टोकरी सी बनाकर उसमें मिट्टी रखकर हरेला उगाते थे) लेकर वहाँ बैठ जाते थे. ईजा ताव से दो-तीन चीरे हमारे हरेले में भी मार देती थीं. हम बस खुश हो जाते थे. ईजा कहतीं-“ले लिजा”. हम तुरंत अपना पुड़ खिसका लेते थे.पौराणिक
हरेला के दिन हल्दी ‘मंतरी’
(हल्दी में मंत्र फूँकना) जाती थी. उस दिन मंतरी गई हल्दी का बड़ा महत्व होता था. गाँव के सभी लोग पहले ‘बुबू’ (दादा) और बाद में जब तक मैं था तो मेरे पास 2-2 गांठ हल्दी लेकर आते थे. सबकी हल्दी को “तामी” (मापक बर्तन) में रखा जाता था. उसके बाद ताव से हल्दी को ‘खिरोया’ (तामी के अंदर हिलाना) जाता था. उस दिन ताव के बिना हल्दी की कोई मान्यता नहीं होती थी. उसके बाद मंतरी गई हल्दी को हर चीज में थोड़ा-थोड़ा डाला जाता था. खाने से लेकर गाय-भैंस तक के लिए भी उस हल्दी को थोड़ा ही सही डाला जरूर जाता था. एक तरह से हर चीज में वो हल्दी मिला दी जाती थी.कथाओं
पहाड़ की जीवनचर्या में
ताव की बड़ी भूमिका थी. घर-घर में ताव होते थे. हर कोई उसके गुणों से परिचित था. ईजा का तो ताव, डॉ. का आला जैसा ही था. दूसरे -तीसरे दिन कोई न कोई ताव लगवाने आ ही जाता था. अब ताव शायद ही बचे हैं. ईजा कभी-कभी काँटा ‘बुड़ने’ (चुभने) पर खुद ही खुद के पांव में ताव लगा लेती हैं.
पहाड़
पहाड़ की जीवनचर्या में ताव की
बड़ी भूमिका थी. घर-घर में ताव होते थे. हर कोई उसके गुणों से परिचित था. ईजा का तो ताव, डॉ. का आला जैसा ही था. दूसरे -तीसरे दिन कोई न कोई ताव लगवाने आ ही जाता था. अब ताव शायद ही बचे हैं. ईजा कभी-कभी काँटा ‘बुड़ने’ (चुभने) पर खुद ही खुद के पांव में ताव लगा लेती हैं. कई सालों से कोई और ताव लगाने नहीं आया. ऐसे में ईजा ने ताव और ताव ने ईजा की मौजूदगी को बचाए और बनाए रखा है.पहाड़
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)