मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे…

जवाबदेही की अविस्मरणीय यात्रा भाग-2

  • सुनीता भट्ट पैन्यूली

हमारा रिक्शा छन-छन घुंघरुओं की सी आवाज़ निकालते हुए हवा से बातें करते हुए कॉलेज की ओर जा रहा था, रिक्शा एक पतली तंग भीड़-भाड़ वाली गली में घुसा, ऐसा महसूस हो because रहा था मानो दुनिया भर के सारे मेहनत करने वाले हाथ अपनी-अपनी रोटी जुटाने के लिए उमड़े हों, यहां इस गली में सड़क पर कोई उबले अंडे, कोई शकरकंदी, कोई मुंगफली के साथ ठेली में अम्रक बेच रहा था, तो कोई भूने हुए पापड़. कोई गज्जक बेच रहा था, कोई काला चश्मा पहनकर वैल्डिंग से लोहे की सरियाओं को खिड़कियों और दरवाज़े का आकार दे रहा था. इस मेहनत वाली गली में दांयी तरफ एक छोटी-सी मस्ज़िद से होकर भी गुजरना हुआ, मुझे मालूम नहीं था कि अनजाने में ही सही पर दोबारा एक साल तक कॉलेज आने-जाने के लिए मैंने पहचान स्वरुप इस छोटी-सी मस्जिद की पक्की तस्वीर अपने ज़ेहन में बैठा ली थी.

खोलकर

हर दुकान पर because स्टूडेंट्स का मज़मा… एक अजीब-सा डर मुझमें सिहरन पैदा करने लगा जैसा कि बारहवीं के बाद पहली बार कॉलेज के दर्शन करने पर हुआ था आखिर बहन और मैं कॉलेज पहुंच गये थे.

खोलकर

आगे चलते हुए कई प्रकार because की मूंगफलियों के बड़े-बड़े पिरामिड जैसे ढेर ज़मीन पर फैले हुए थे. मैंने एक साल तक सहारनपुर जाने के दौरान यह महसूस किया कि अगर आपको सड़कों पर बेतरतीब भीड़ और सड़कों के किनारे  मुंगफलियों के पिरामिड जैसे  ढेर, बड़े-बड़े अमरूदों की ठेलियां, भुनी हुई शकरकंदी की ठेलियां, गज्जक, कच्चे नारियल की ठेलियां, रंग-बिरंगे  रिब्बन और चित्रकारी किये हुए ट्रक और विक्रम ठूसम-ठूस रास्ते में भरे हुए नज़र आयें तो निश्चित ही आप सहारनपुर में हैं.

खोलकर

रिक्शा हवा से बातें करता हुआ आगे because बढ़ ही रहा था  कि सहसा उसकी गति धीमी हो गई और भीड़-भाड़ वाली संकरी गली, बहुत-सी स्टेशनरी की दुकानों (जिसमे, Photo State, Computer typing भी थी) में तब्दील होती चली गयी. हर दुकान पर स्टूडेंट्स का मज़मा… एक अजीब-सा डर मुझमें सिहरन पैदा करने लगा जैसा कि बारहवीं के बाद पहली बार कॉलेज के दर्शन करने पर हुआ था आखिर बहन और मैं कॉलेज पहुंच गये थे.

खोलकर

कॉलेज का बड़ा-सा गेट उसके बाहर-भीतर विद्यार्थियों की भीड़ ही भीड़ जैसा कि अमूमन होता ही है कालेजों में, कॉलेज के भीतर जाते ही हमने दांयी ओर के कॉरिडोर की राह पकड़ी. because पहले ही नंबर के कोने में आफिस था, जहां एडमिशन के लिए बच्चों की भीड़ जुटी हुई थी. बहन का परिचय पहले ही उन आफिस के कलर्क आनन्द प्रकाश जी (काल्पनिक नाम) से था. बच्चों की भीड़ खाली होते-होते एक घंटा हमें वहीं आफिस की बेंच पर बैठकर इंतज़ार करते हुए हो गया था. मेरा नंबर आने पर बहन ने आनन्द प्रकाश सर से PGDHRD course से संबंधित मेरे लिए एडमिशन फार्म मांगा और फीस व अन्य जानकारी लेने के बाद  हम कॉलेज से बाहर निकल आये.

खोलकर

कॉलेज से because वापस आते हुए भूख भी कुलबुलाने लगी थी पेट में, तभी सामने एक रेस्टोरेंट के बाहर बड़ी-सी  कढ़ाई में गेंद के आकार के भटूरे तले जा रहे थे, हमने बिना कुछ सोचे रेस्टोरेंट के अंदर कुलांचे मारीं.

खोलकर

आसमान घनीभूत हो रहा था काले बादलों से, हल्की-हल्की बारिश की बूंदों के साथ हवायें भी चल रही थी, हम दोनों बिना छाता ओढ़े जिंदगी से बेपरवाह कॉलेज की लड़कियों की because भांति भीगते हुए पैदल ही फिर कॉलेज की उसी मेहनत वाली संकरी गली से होकर, चलते-चलते रोड से बाहर आ गये.

खोलकर

बिना रिक्शे का इंतज़ार करे हम दोनों अपनी ही मस्ती में बातें करते चले जा रहे थे और मैं तो जैसे किसी विजयी योद्धा की भांति मानो किला फतेह करके लौट रही थी एडमिशन because फार्म जो मिल गया था मुझे अपने ख्वाबों की उड़ान भरने के लिए. कॉलेज से वापस आते हुए भूख भी कुलबुलाने लगी थी पेट में, तभी सामने एक रेस्टोरेंट के बाहर बड़ी-सी  कढ़ाई में गेंद के आकार के भटूरे तले जा रहे थे, हमने बिना कुछ सोचे रेस्टोरेंट के अंदर कुलांचे मारीं.

खोलकर

जब भूख ने हमारी व्याकुलता को शांत कर दिया सोचा क्यों नहीं सहारनपुर एक खास बाज़ार घूमा जाये? नाम याद नहीं लेकिन इतना ज़रूर याद है कि वहां लकड़ी का छोटे से छोटा और बड़े because से बड़ा बेशक़ीमती सामान मिलता था. हमने कुछ छुटपुट चीजें खरीदी और रिक्शा लेकर वापस उद्दत हुए बसड्डे की ओर, रास्ते में सहारनपुर शहर की रौनक के बीच हम रिक्शे में ठहाके लगाते रास्ते में बेइंतहा भीड़, पैदल चलने वाले, because रिक़्शा, बस, विक्रम, स्कूटी, कार सबके साथ सटसटकर होड़ करते भागेचले जा रहे थे तभी बहन के जोर से चीखने की आवाज़..!और मेरी चीख और बड़ी हुई उसकी चीख के साथ मिलकर जब मेरा ध्यान उसके बांये हाथ की तरफ गया.रिक़्शा और विक्रम के बीच फंसा हुआ उसका हाथ मानो विक्रम के साथ खींचा हुआ चला जा रहा था.

खोलकर

जैसे-तैसे विक्रम ने हमारा चीखना सुनकर भीड़ भरी सड़क पर विक्रम रोका और मैंने और कुछ लोगों ने आराम से विक्रम और रिक्शे के मध्य पीसे हुए बहन के हाथ को वापस खींचा. because हाथ बेजान-सा नीला तो पड़ गया था किंतु हरकत में था. वैसे ही दर्द से कराहती वह और मैं रिक़्शे द्वारा बस अड्डे पहुंचे. रूड़की में डाक्टर से तुरंत दिखाने को कहकर वह बस में बैठ गयी वापस घर जाने के लिए और मैं आत्मग्लानि से भरी हुई वापस अपने घर देहरादून के लिए. शुरुआत ही अप्रिय घटित होने से शंकाओं और संशय का तूफान खड़ा हो गया था मेरे खिन्न मन में.

खोलकर

चूंकि अभी एडमिशन लेना because बाकी था फार्म जमा करने की प्रक्रिया से गुजरना था तिस पर बहन के साथ यह  दुर्घटना, वैसे भी उसका बार-बार मेरे साथ आना मुश्क़िल ही था यही सब मेरे मन में उधेड़-बुन के चलते हम दोनों बहनों ने अपनी-अपनी मंजिल की राह पकड़कर भारी व दुखी मन से परस्पर विदा ली किंतु फिर भी अपने आपको कहीं न कहीं मैंने  यह संबल दिया कि…

सफऱ कष्टकारी, लंबा व because थकाऊ ज़रूर है किंत

यकीं है मुझे कि चंद हाथbecause पर मेरे लिए सुनहरा मोड़ है

—————————————————————–

घर वापस पहुंच कर मैंने बहन because की फोन पर कुशल-क्षेम पूछी. एक दिन में ही मुझे महसूस हुआ जैसे “मैं बहुत आत्मविश्वासी हो गयी हूं”.

खोलकर

अगला दिन भी आधे से ज़्यादा गुजर कर शाम की चाय का वक़्त  हो चला है कल फिर दिमाग में सहारनपुर कॉलेज जाने की चिंता, कि अब सब कुछ अकेले ही संभालना है मुझे, because यही सोचकर मैं पिंघलती केसर सी शाम में चाय पीते हुए सोच रही हूं  क्या वाक़ई बाहर निकलकर अपने हिस्से का आकाश पाना इतना आसान है? या ये  मौज़ूदा दायरे ही ख़ूबसूरत हैं ज़िन्दगी के ?ख़ैर जाना तो है ही कल कॉलेज  एडमिशन लेने के लिए यह सोचकर फिर अगले दिन कॉलेज जाने की तैयारी व घर की व्यवस्था में जुट गयी.

खोलकर

सोते हुए फिर नींद गायब थी, because वही उलझन वही डर, वही हौल अकेले सहारनपुर और वहां से कॉलेज तक जाने की और  हेड आफ द डिपार्टमेंट से मिलने की इसी उहापोह में सुबह फिर जल्दी  नींद खुल गयी वही सब दैनंदिन कार्य निपटाकर फिर से नाश्ते से लेकर दिन तक की खाने की व्यवस्था करके मैंने  सहारनपुर की बस के लिए  राह पकड़ी..

खोलकर

मन में अजीब से ख़्याल उपज रहे थे, because मैं चुपचाप सीट पर सतर्क होकर बैठी हुई रास्ते का  निरीक्षण करते हुए जा रही थी किंतु न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा यह वह मार्ग नहीं था..,, ऐसा लगा बस कहीं  कच्ची मिट्टी के घरों वाले गांव के बीच  से होकर गुजर रही थी मन because घबराने लगा कहीं मैं ग़लत बस में तो नहीं बैठ गयी थी? ये रास्ता तो उस दिन नहीं था? घबराते हुए मैंने बस कंडक्टर से पूछा जिसने आश्वासन दिया बस सही जा रही थी बस थोड़ा सा रास्ते में फेरबदल कर लिया थाकिसी कारण वश, विश्वास करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था.

खोलकर

कॉलेज के  गेट के बाहर रिक़्शे से उतरी तो देखा कॉलेज के बाहर भारी मात्रा में पुलिस जुटी हुई थी, किसी को भी भीतर नहीं जाने दे रही थी. मैंने गेट कीपर से because अंदर जाने के लिए विनती की कि मैं देहरादून से आयी हूं मुझे एडमिशन लेना है किंतु उसने मेरी एक नहीं सुनी. गेट कीपर कुछ अक्कखड़-सा था, कहने लगा सभी दूर से आते हैं अंदर नहीं जाने दूंगा.

खोलकर

ख़ैर सही सलामत मैं because सहारन बस अड्डे पहुंच गयी थी, बस अड़डे से रिक़्शा पकड़ा और रिक़्शेवाले ने आराम से J.V. Jain College पहुंचा दिया क्योंकि कॉलेज के रास्ते से शायद सभी रिक़्शे वाले अच्छी तरह वाकिफ़ थे.

खोलकर

कॉलेज के  गेट के बाहर रिक़्शे से उतरी तो देखा कॉलेज के बाहर भारी मात्रा में पुलिस जुटी हुई थी, किसी को भी भीतर नहीं जाने दे रही थी. मैंने गेट कीपर से because अंदर जाने के लिए विनती की कि मैं देहरादून से आयी हूं मुझे एडमिशन लेना है किंतु उसने मेरी एक नहीं सुनी. गेट कीपर कुछ अक्कखड़-सा था, कहने लगा सभी दूर से आते हैं अंदर नहीं जाने दूंगा. कॉलेज में शायद कुछ झगड़ा हुआ था या कोई चुनाव चल रहे थे मालूम नहीं क्यों इतनी पुलिस खड़ी हुई थी? किंतु मेरा तो समय बर्बाद हो रहा था एक बजे तक अगर प्रोफेसर चले गये तो?बारह वैसे ही बज गये थे because रुआंसी होकर फिर गेट कीपर से मैंने विनती की मुझे अंदर भेज देने की उसका फिर वही जवाब था जैसे कसम खा ली थी उसने मेरी एक न सुनने की. तभी मुझे ध्यान आया मेरे पास तो नंबर है उन हेड आफ द डिपार्टमेंट के.पी. मल्होत्रा सर का मैंने फोन लगाया उनको और पूछा  के.पी. मल्होत्रा सर (काल्पनिक नाम) बोल रहे हैं?

खोलकर

नमस्कार सर,

मैं सुनीता पैन्यूली बोल रही हूं. PGDHRD Course में एडमिशन के लिए आप से बात हुई थी सर.

दूसरी तरफ से थोड़ा रूककर जवाब आया,

खोलकर

आज तो कॉलेज में प्राब्लम हो गयी है आप कल आईये  यह सुनकर मैं और हताश हो गयी उम्मीद पर पानी फिरता हुआ नज़र आ रहा था मुझे फिर भी थोड़ा हिम्मत जुटाकर मैंने उनसे फिर कहा सर मैं देहरादून से आयी हूं रोज़ आना संभव नहीं है मेरे लिए मुझ पर बच्चों की भी ज़िम्मेदारी है समय से घर भी पहुंचना है मुझे यह because सुनकर फिर थोड़े अंतराल के बाद आवाज़ आयी ठीक है आप आ जाइये आफिस में, मैंने सर को अपनी पूरी व्यथा बताई कि कैसे मैं कॉलेज के गेट के बाहर खड़ी हूं और गेट कीपर मुझे अंदर नहीं जाने दे रहा इस पर सर ने मेरे फ़ोन द्वारा गेट कीपर से बात कराने को कहा इस बात से गेट कीपर के व्यवहार में यह तरक़्की हुई कि उसने मुझे घूरते हुए बाइज़्जत कॉलेज के भीतर जाने दिया शुक्र है ईश्वर का..!

खोलकर

अब फिर से मेरे भीतर दौर चला because डर और एडमिशन की अनिश्चतता का सीधे आफिस पहुंच गयी क्योंकि आफिस दो दिन पहले मैंने देख लिया था.

आफिस में गयी तो आफिस के बाबू आनन्द प्रकाश सर (काल्पनिक नाम) फाइलों में उलझे हुए थे उन्हें अपना परिचय और आने का प्रयोजन बताने ही जा रही थी की हवा की तरह because सरर से एक औसत और दोहरे कद वाले सिर पर घुंघराले बाल चेहरे पर शुन्यता न हंसी न ग़म मेरी तरफ देखकर मेरा अभिवादन स्वीकार किया मुझसे मेरे डाक्यूमेंट्स, एडमिशन फार्म,फीस ड्राफ्ट मांगा और एक-एक चीज पढ़ने के बाद आश्वस्त होकर साईन किये और उसी हवा की गति से फिर सरर से आफिस से बाहर निकल भी गये मेरे धन्यवाद कहने को अनसुना करके.

आनन्द प्रकाश सर से एडमिशन because रसीद लेकर उन्हें धन्यवाद कहकर एक सुकुन भरी देह और दिमाग लेकर  मैं भी आफिस से बाहर आ गयी रिक़्शा पकड़ने देहरादून बस अडडे के लिए.

खोलकर

आज मुझे कोई सहारनपुर का बाज़ार because नहीं घूमना था बस जल्दी थी तो देहरादून अपने घर पहुंचने की ताकि सभी को बता सकूं गर्व से कि देखा आज मैंने एडमिशन लेकर ही छोड़ा.

बस अड्डे पहुंच कर तुरंत मुझे देहरादून के लिए बस मिल गयी आज वापसी में ट्रेवल सिकनेस भी नहीं महसूस की शायद  मेरे सपनों को ठहराव व दिशा मिलने का सुकून तारी था मुझ पर.

खोलकर

बस में नींद के झोंके बुरी तरह  से मुझे अपनी आगोश में ले रहे थे हाथ अपनी आगे वाली सीट से बार-बार फिसलकर गिर रहा था उन्हें  उठाकर फिर मैं आगे वाली सीट पर टिकाकर सो जाती तभी कंडक्टर की आवाज़ आयी किराया लेने के लिए  मैंने उसे किराया दिया उसके पास  बाकि के खुल्ले पैसे नहीं थे मुझे वापिस देने के because लिए बाद में देने का कहकर  वह आगे बढ़ गया मैं फिर नींद में हिचकोले खाने लगी बाकी के पैसे वैसे तो मात्र दस रूपये का सिक्का था किंतु क्योंकि मेरे पास वापस घर जाने को विक्रम पकड़ने के लिए दस का सिक्का नहीं था और विक्रम वाले भी भाव खाते हैं  इसलिए  दस का सिक्का वापस लेने की उग्र आकांक्षा मुझमें भी बरक़रार थी. क़रीबन एक घंटे बाद  कंडक्टर से अपने दस रुपए मांगे कंडक्टर यह कहकर आगे बढ़ गया अभी खुल्ले नहीं हैं.

खोलकर

उसने मुझे कहा, because लंबा हाथ करो और टक से बस की ऊंचाई से ही बैठे-बैठे मेरी हथेली पर दस का सिक्का डाल दिया. मैं तीव्रता से विक्रम पकड़ने की राह की ओर चल पड़ी. दस का सिक्का मेरे हाथ ही में था किंतु उस कंडक्टर का बस की ऊंचाई से सीट पर बैठे-बैठे मेरी हथेली पर सिक्का डालना मुझे नागवार गुजरा. क्या उसने एक मुझे भिखारिन की तरह ट्रीट किया था? यह प्रश्न आज भी गाहे-बगाहे परेशान और तिरिस्कृत कर जाता है मुझे.

खोलकर

मैं फिर से सोने का उपक्रम करने लगी अब एक और घंटा बीत जाने के बाद बस देहरादून के आई.एस.बीटी. के बाहर यात्रियों को उतार रही थी अफरातफरी थी सभी को उतरते हुए मैंने लाईन में आगे आकर कंडक्टर से जो ड्राईवर के सामने वाली लंबी सीट के बाद नीचे उतरने का रास्ता छोड़कर एक सिंगल सीट पर बैठा किराया because गिन रहा था मैंने दोबारा उससे दस का अपना सिक्का मांगा सहसा उसने किराया गिनना छोड़कर मुझे घूरकर देखा मानो मैंने कुछ अप्रत्याशित प्रश्न उस पर थोप दिया गया हो तुरंत कहने लगा नीचे उतरो, नीचे उतरो मैं भी अपने पीछे यात्रियों की सुविधा वश नीचे उतरकर उस कंडक्टर की सीट के नीचे, उसके कहे अनुसार खड़ी हो गयी.

उसने मुझे कहा, लंबा हाथ करो और टक से उसने बस की ऊंचाई से ही बैठे-बैठे मेरी हथेली पर दस का सिक्का डाल दिया और मैं तीव्रता से विक्रम पकड़ने की राह की ओर चल पड़ी. because दस का सिक्का मेरे हाथ ही में था किंतु उस कंडक्टर का मुझे बस की ऊंचाई से सीट पर बैठे-बैठे मेरी हथेली पर सिक्का डालना मुझे नागवार गुजरा. क्या उसने एक मुझे भिखारिन की तरह ट्रीट किया था? यह प्रश्न आज भी गाहे-बगाहे परेशान और  तिरिस्कृत कर जाता है मुझे.

क्रमशः

(लेखिका साहित्यकार हैं एवं विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में अनेकbecause रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *