Author: Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास
महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  आज कल विभिन्न राजनीतिक दलों के लोक लुभावन पैंतरों और दिखावटी  सामाजिक संवेदनशीलता के बीच स्वार्थ का खेल आम आदमी को किस तरह दुखी कर रहा है यह जग जाहिर है. परन्तु आज से एक सदी पहले पराधीन भारत में लोक संग्रह का विलक्षण प्रयोग हुआ था. में जीवन का अधिकाँश बिताने के बाद उम्र के सातवें दशक में पहुँच रहे अनुभव-परिपक्व गांधी जी ने आगे के समय के लिए वर्धा को अपनी कर्म-भूमि बनाया था. ज्योतिष नागपुर से75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्धा अब रेल मार्गों और कई राष्ट्रीय राजमार्गों से जुड़ चुका  है. तब महात्मा गांधी ने धूल-मिट्टी-सने और खेती-किसानी के परिवेश वाले इस पिछड़े ग्रामीण इलाके को  चुना और गाँव के साधारण किसान की तरह श्रम-प्रधान जीवन का वरण किया. इसके पीछे उनकी यह सोच और दृढ विश्वास था कि भारत का भविष्य देश के गाँवों के सशक्त होने में निहित है. उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता ...
आजादी के अमृत महोत्सव में गुमनाम नायकों की प्रतिष्ठा

आजादी के अमृत महोत्सव में गुमनाम नायकों की प्रतिष्ठा

देश—विदेश
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को किया गया सम्मानित हिमांतर ब्यूरो, नई दिल्ली भारत अपनी आजादी के अमृत महोत्सव में कुशल राजनीतिक नेतृत्व के कारण सभी जगह और हर मोर्चे पर प्रतिष्ठित हो रहा है. सुनियोजित दुष्प्रचार के जरिए जो विमर्श गढ़े गए उनकी कलई खुल रही है. सत्ता के इशारे पर चाहे राजशाही ने हो या लोकतांत्रिक निरंकुशता ने, जिसने भी देश की आजादी के महानायकों को हाशिए पर पहुंचाया ,देश उनकी वास्तविकता को भांपकर अब धूल चटा रहा है. अपने एक ही जीवन में मृत्युदंड की सजा पाने वाले because वीर दामोदर सावरकर हों या 84 दिन की भूख हड़ताल कर अंग्रेजी दासता और निरंकुश राजशाही के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले टिहरी के मुक्तिनायक अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन. इस परंपरा के  असंख्य राष्ट्रभक्तों के सत्कर्म और समर्पण कोई नहीं भुला सकता. ज्योतिष देश में नई शिक्षा नीति में म...
सार्वजनिक जीवन में मर्यादा की जरूरत है   

सार्वजनिक जीवन में मर्यादा की जरूरत है   

समसामयिक
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  देश को स्वतंत्रता मिली और उसी के साथ अपने ऊपर अपना राज स्थापित करने का अवसर मिला. स्वराज अपने आप में आकर्षक तो है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके साथ जिम्मेदारी भी मिलती है. स्वतंत्रता मिलने के बाद स्वतंत्रता का स्वाद तो हमने चखा पर उसके साथ की जिम्मेदारी और कर्तव्य की भूमिका निभाने में ढीले पड़ कर कुछ पिछड़ते गए. देश को देने की जगह शीघ्रता और आसानी से क्या पा लें because इस चक्कर में भ्रष्टाचार, भेद-भाव तथा अवसरवादिता आदि का असर बढ़ने लगा. इसीलिए देश के आम चुनावों में कई बार भ्रष्टाचार एक मुख्य मुद्दा बनता रहा है और देश की जनता उससे मुक्ति पाने के लिए वोट देती रही है. परन्तु परिस्थितियों में जिस तरह का बदलाव आता गया है उसमें देश की राजनैतिक संस्कृति नैतिक मानकों के साथ समझौते की संस्कृति होती गई. ज्योतिष आज की स्थिति में धन–बल, बाहु-बल, परिवारवाद के साथ राजनीति के किर...
गर्व बच्चों पर कीजिए अंकों पर नहीं…

गर्व बच्चों पर कीजिए अंकों पर नहीं…

शिक्षा
प्रकाश उप्रेती CBSE ने आज 12वीं का रिजल्ट जारी कर दिया है. 22 जुलाई को 10वीं कक्षा का परिणाम भी घोषित किया था. इन दोनों 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणामों का बच्चों के लिए खासा महत्व होता है. इन परिणामों के आधार पर ही वह because भविष्य की राह चुनते हैं. बच्चों पर इन कक्षाओं में अच्छे अंक लाने का दबाव स्कूल से लेकर परिवार तक सबका होता है. हर टीचर और माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे टॉप ही करें. इससे कम किसी को मंजूर नहीं होता है. सोशल मीडिया पर 90% से ऊपर अंक लाने वाले बच्चों की तस्वीर है और उन पर गर्व करते माता-पिता की खुशी है. टेलीविजन के पर्दे से लेकर अखबार के पन्नों तक में 100% अंकों का ही जिक्र होता है. इनमें कहीं भी औसत अंक लाने वाले विद्यार्थी का जिक्र नहीं होता है. न उनकी तस्वीर न उन पर गर्व! आखिर ऐसा क्यों ? ज्योतिष पिछले कुछ वर्षों से अंकों के प्रतिशत से ही बच्चों की सफलता औ...
हाईस्कूल की पंच वर्षीय योजना

हाईस्कूल की पंच वर्षीय योजना

समाज
नीलम पांडेय नील, देहरादून नब्बू, नाम था उसका, उसकी मां उसके नॉवेल के चित्रों से समझ जाती थी, बेटा किताब नहीं, नॉवेल पढ़ता है इसलिए नब्बू, अपनी नॉवेल पर अखबार की जिल्द चढ़ाने लगा था, तबसे मां समझने लगी, बेटा किताब पढ़ने लगा है. मां अकसर कहती थी, because मेरा नबुवा तो दिन रात, गुटके जैसी मोटी-मोटी किताब पढ़ कर इम्तहान देता है, लेकिन खप्तिये मास्टर इसको नंबर ही नही देते हैं. कई सालों से नबूवा हाईस्कूल में आगे ही नहीं बढ़ रहा था. फेल होने के बाद भी वो मुस्कराया करता था, उसकी मां उसे पूरा दिन गाली देती थी, पिता बात करना बन्द कर देते थे, लेकिन वो सब कुछ आराम से सुनते हुए उनके काम में हाथ बटाया करता था. ज्योतिष कुछ दिनों बाद, जब स्थिति सामान्य हो जाती थी, बच्चे पास होकर अपनी नई किताबों में जिल्द लगा रहे होते थे, वो अपनी पुरानी फटी हुई किताबों को उसी जोश से सजाने लगता था. पुराने बैग को धोकर च...
लोक कहानी: कर भला तो, हो भला

लोक कहानी: कर भला तो, हो भला

किस्से-कहानियां
फकीरा सिंह चौहान ‘स्नेही’ बहुत पुरानी बात है पहाड़ के उस पार एक छोटे से गांव में एक जग्गू नाम का जवान लड़का अपने मां के साथ रहता था. वह अपनी मां का अंधेरे घर का उजाला था. वह बड़ी ईमानदारी लगन और मेहनत से जिजीविषा के लिए अपने खेतों में काम करता था, तथा खेतों के पास ही उसका एक सुंदर बगीचा भी था जिसमें वह हर प्रकार  के पेड़ पौधे तथा फल फूल उगाया करता था. "उसके नींबू के बगीचे में बिजोरा के फूल खूब उगा करते थे, जिसे वह हर रोज अपनी धम्मा से पीड़ित बूढ़ी मां को अर्पित करता था. "एक बार उसकी बूढ़ी मां जग्गू को खाना परोसते हुए बोली, "बेटा मुझे अब इन सुरभित फूलों की आवश्यकता नहीं है, अपितु सहायता के लिए घर में बहू के अवलंब की जरूरत है. "तुम अब जवान हो गए हो" अपने लिए कोई खूबसूरत सी नेक लड़की देख लो, "मैं तुम्हारा विवाह करा देती हूं. "मां की बात सुनकर के बेटा मुस्कुराते हुआ बोला,  "मां मुझे आप से ...
युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

युवा लेखक ललित फुलारा की कहानी ‘घिनौड़’ और ‘पहाड़ पर टैंकर’ पर एक विमर्श…

साहित्यिक-हलचल
अरविंद मालगुड़ी पिछले दिनों ललित फुलारा की कहानी 'घिनौड़' और 'पहाड़ पर टैंकर' पढ़ी. इन दोनों ही कहानियों को मैंने छपने से पहले और छपने के बाद एक नहीं, दो-दो बार पढ़ा है. 'घिनौड़' (गौरेया) जहां एक वैज्ञानिक सोच वाली मनोवैज्ञानिक कहानी है, वहीं 'पहाड़ पर टैंकर' जड़ों से कट चुके उत्तराखंड के नौजवानों को जड़ों की तरफ लौटने की प्रेरणा देनी वाली. 'घिनौड़' को लेकर उत्तराखंड के कहानीकार और वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी ने टिप्पणी की 'कहानी लिखी तो अच्छी है, शिल्प एवं भाषा की दृष्टि से. शुरुआत रोचक है लेकिन अधूरी सी लगी. आखिर कथा पहुँची कहाँ?' यह बात सही है कि इस कहानी को पढ़ते हुए पाठकों को लगता है कि पिरदा और उनके बच्चे घनु की कहानी को आगे पहुंचाया जा सकता था. पर हो सकता है कि लेखक ने कहानी को वहीं इसलिए छोड़ा हो कि पाठक खुद ही अंदाजा लगा लें कि पिरदा और घनु की जिंदगी में आगे क्या हुआ होगा? पिरदा ...
पहाड़ी लोक-जीवन की सांस्कृतिक यात्रा-नाटक ‘आमक जेवर’

पहाड़ी लोक-जीवन की सांस्कृतिक यात्रा-नाटक ‘आमक जेवर’

कला-रंगमंच
मीना पाण्डेय गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी अकादमी-दिल्ली सरकार के तत्वावधान में 3 जुलाई 2022 से 9 जुलाई 2022 तक पहली बार आयोजित "बाल उत्सव-2022" (बच्चों की उमंग लोकभाषा के संग) के अंतर्गत 7 जुलाई 2022 को नाटक 'आमक जेवर' देखने का अवसर मिला. भाषाविद रमेश हितैषी द्वारा लिखित कहानी को मंच पर अपने निर्देशन के माध्यम से जिवित करने का कार्य किया श्री के•एन•पाण्डेय "खिमदा" ने. कहानी एक कुमाउनी वृद्धा व उसके जेवरों के इर्द-गिर्द घूमती है. एक भरे-पूरे परिवार की बुढिया आमा का अपने जेवरों के प्रति बहुत लगाव है. उसके पति की मृत्यु के बाद बच्चों के बीच जेवरों के बंटवारे की बात उठती है जिसे आमा नकार देती है. चार बेटों व दो बेटियों का ब्याह कर चुकी आमा के पास गांव में केवल एक बेटा उसकी सेवा के लिए है. बीमार पडने और फिर आमा की मृत्यु के बाद एक बार फिर से परिवार में जेवरों के लिए विवाद उठता है जो अंततः इस...
जीवन-जगत में हरियाली का प्रतीक ‘हरेला’

जीवन-जगत में हरियाली का प्रतीक ‘हरेला’

लोक पर्व-त्योहार
प्रकाश उप्रेती ईजा ने आज हरेला 'बूत' (बोना) दिया. जो लोग 10वे दिन हरेला काटते हैं उन्होंने 7 तारीख और हम 9वे दिन हरेला काटते हैं इसलिए ईजा ने आज यानि 8 तारीख को बोया. हरेला का अर्थ हरियाली से है. यह हरियाली जीवन के सभी रूपों में बनी रहे उसी का द्योतक यह लोकपर्व है. 'पर्यावरण’ जैसे शब्द की जब ध्वनि भी नहीं थी तब से प्रकृति पहाड़ की जीवनशैली का अनिवार्य अंग है. जीवन के हर भाव, दुःख-सुख, शुभ-अशुभ, में प्रकृति मौजूद रहती है. जीवन के उत्सव में प्रकृति की इसी मौजूदगी का लोकपर्व हरेला है. हरेला ऋतुओं के स्वागत का पर्व भी है. नई ऋतु के अगमान के साथ ही यह पर्व भी आता है. इस दिन के लिए कहा जाता है कि अगर पेड़ की कोई टहनी भी मिट्टी में रोप दी जाए तो वो भी जड़ पकड़ लेती है. यहीं से पहाड़ों में हरियाली छाने लगती है. नई कोपलें निकलने लगती हैं. हरेला हरियाली और समृद्धि का प्रतीक है. सावन का महीना आरम्भ ह...
हिमालय के सावनी गीत…

हिमालय के सावनी गीत…

ट्रैवलॉग
मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं.  नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है. इनकी लेखक की विभिन्न विधाओं को हम हिमांतर के माध्यम से ‘मंजू दिल से…’ नामक एक पूरी सीरिज अपने पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. पेश है मंजू दिल से… की 25वीं किस्त… म...