पहाड़ी लोक-जीवन की सांस्कृतिक यात्रा-नाटक ‘आमक जेवर’

  • मीना पाण्डेय

गढ़वाली, कुमाउनी एवं जौनसारी अकादमी-दिल्ली सरकार के तत्वावधान में 3 जुलाई 2022 से 9 जुलाई 2022 तक पहली बार आयोजित “बाल उत्सव-2022” (बच्चों की उमंग लोकभाषा के संग) के अंतर्गत 7 जुलाई 2022 को नाटक ‘आमक जेवर’ देखने का अवसर मिला. भाषाविद रमेश हितैषी द्वारा लिखित कहानी को मंच पर अपने निर्देशन के माध्यम से जिवित करने का कार्य किया श्री के•एन•पाण्डेय “खिमदा” ने. कहानी एक कुमाउनी वृद्धा व उसके जेवरों के इर्द-गिर्द घूमती है. एक भरे-पूरे परिवार की बुढिया आमा का अपने जेवरों के प्रति बहुत लगाव है. उसके पति की मृत्यु के बाद बच्चों के बीच जेवरों के बंटवारे की बात उठती है जिसे आमा नकार देती है. चार बेटों व दो बेटियों का ब्याह कर चुकी आमा के पास गांव में केवल एक बेटा उसकी सेवा के लिए है. बीमार पडने और फिर आमा की मृत्यु के बाद एक बार फिर से परिवार में जेवरों के लिए विवाद उठता है जो अंततः इस रूप में सुलझता है कि जेवर सभी भाईयों व बहिनों के मध्य बराबर बटेंगे.

मैंने यह कहानी फिलहाल पढ़ी नहीं है लेकिन नाटक मंचन को देखकर नाटक का कमोबेश यही स्वरूप उभरता है.

किसी कहानी के नाट्य मंचन के अपने कौतुहल हैं और अपनी चुनौतियां भी. किस्सागोई को नाटकीयता के स्तर पर उतार लाने का उपक्रम बेहद कुशलता और अनुभव की मांग करता है. कहानी की मूल आत्मा को बचाते हुए दृश्य सृजन और मंचीय विस्तार की संभावना तलाशनी होती है. कहानी के मंचन से पूर्व भाषाविदों के द्वारा संवाद लेखन का कार्य और 20 दिवसीय कार्यशाला के दौरान लोकभाषा के माध्यम से बच्चों के अभिनय कौशल को विकसित किया जाना एक वृहद सोच को दर्शाता है.

नाट्य मंचन के रोचक माध्यम द्वारा बच्चों तक उनकी बोली-भाषा पहुंचाना एक सफल प्रयोग तो है ही साथ ही लोक साहित्य के प्रति बच्चों के मन में उत्सुकता भी विकसित करता है.

‘आमक जेवर’ नाटक एक तरह से कुमाउनी लोक जीवन शैली की एक यात्रा कहा जा सकता है जिसमें वहां के लोक जीवन, संस्कृति, लोकगीत, तीज-त्यौहार, वेशभूषा इत्यादि की जानकारी तो मिलती ही है साथ ही वहां की जीवन की जटिलता व चुनौतियों से भी दर्शक 2-4 होता है. नाटक में हरेले, सांतु-आंठु, होली व लोक अनुष्ठानों के दृश्य नाटक को सांस्कृतिक विस्तार देते हैं. वहीं दूसरी ओर  बीमारी में झाड-फूंक, बभूतिये पर विश्वास और ‘विधवा औरतें नथ-मांगटीका नहीं पहनती’ जैसी लोक मान्यताओं को भी चिन्हित करता है. यह दृश्य दर्शकों के मानस में पहाड़ी लोक-जीवन का एक पूरक चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम रहे हैंं. निर्देशक की दृश्य सृजन में कुशलता मन मोहती है. पात्रों के मेकअप व साज-सज्जा ने विशेष ध्यान आकर्षित किया.

हर प्रस्तुति जितनी अपने-आप में पूर्ण होती है वहीं और बेहतर किये जाने की संभावना भी सदैव बनी रहती है. मेरी समझ में सत्यनारायण की कथा व हरेले के दृश्यों को अनावश्यक नहीं खींचा जाता तो नाटक का प्रवाह और दर्शकों का तारतम्य बना रहता. नाटक के अंत में भी होली के दृश्य से पूर्व एक तरह का व्यवधान दर्शकों की तारतम्यता तोड़ता प्रतित हुआ.

बहरहाल, आमा के रूप में उमा, बुद्धिबल्लभ के रूप में योगेश, बहु के रूप में श्रीनिका व वैद्य के रूप में सृजन पाण्डेय के अभिनय ने प्रभावित किया. अन्य बाल कलाकारों ने भी कम समय में अच्छा प्रयास किया, अभ्यास और अनुभव उन्हें भविष्य में और परिष्कृत करेंगे.

नाटक के सफल मंचन के लिये निर्देशक के• एन• पाण्डेय ‘खिमदा’, सह निर्देशक संगीता सुयाल व कार्यशाला कॉर्डिनेटर व रंगमंच विशेषज्ञ राकेश शर्मा बधाई के पात्र हैं.

(लेखिका सीसीआरटी भारत सरकार द्वारा फैलोशिप प्राप्त व विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हैं. देश की कई पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित. हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से’ की संपादक तथा भातखंडे विद्यापीठ लखनऊ से कत्थक नृत्य में विशारद हैं)

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