जीवन-जगत में हरियाली का प्रतीक ‘हरेला’

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प्रकाश उप्रेती

ईजा ने आज हरेला ‘बूत’ (बोना) दिया. जो लोग 10वे दिन हरेला काटते हैं उन्होंने 7 तारीख और हम 9वे दिन हरेला काटते हैं इसलिए ईजा ने आज यानि 8 तारीख को बोया. हरेला का अर्थ हरियाली से है. यह हरियाली जीवन के सभी रूपों में बनी रहे उसी का द्योतक यह लोकपर्व है. ‘पर्यावरण’ जैसे शब्द की जब ध्वनि भी नहीं थी तब से प्रकृति पहाड़ की जीवनशैली का अनिवार्य अंग है. जीवन के हर भाव, दुःख-सुख, शुभ-अशुभ, में प्रकृति मौजूद रहती है. जीवन के उत्सव में प्रकृति की इसी मौजूदगी का लोकपर्व हरेला है.

हरेला ऋतुओं के स्वागत का पर्व भी है. नई ऋतु के अगमान के साथ ही यह पर्व भी आता है. इस दिन के लिए कहा जाता है कि अगर पेड़ की कोई टहनी भी मिट्टी में रोप दी जाए तो वो भी जड़ पकड़ लेती है. यहीं से पहाड़ों में हरियाली छाने लगती है. नई कोपलें निकलने लगती हैं.

हरेला हरियाली और समृद्धि का प्रतीक है. सावन का महीना आरम्भ होने से 10 दिन पहले हरेला बोया जाता है. इसे बोने की भी एक प्रक्रिया है. जंगल से चौड़े पत्ते (हमारे यहाँ तिमिल के पेड़ के पत्ते) लाए जाते हैं और फिर डलिया वाले सीकों से उनके ‘पुड’ (पात्र) बनाए जाते हैं. पुड़ भी 3, 5, 7 या 9 मतलब विषम संख्या में बनाए जाते हैं. इनका एक हिसाब घर के सदस्यों की संख्या और एक देवता से भी लगाया जाता है. जो पुड या पात्र बनाए जाते हैं इनमें साफ़ मिट्टी रखी जाती है. मिट्टी में कोई पत्थर या कंकड़ न हो इसका विशेष ध्यान रखा जाता है.

इसके बाद सप्त अनाज (गेहूँ, जौ, धान, मक्का, झुंगर, चौलाई, बाजरा या सफेद तिल) को एक साथ मिलाकर इनमें बोया जाता है. इस सप्त अनाज में काला अनाज छोडकर कोई भी हो सकता है. ये ही अनाज हों ऐसा कोई नियम नहीं है. वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में सामूहिक रूप से ग्राम देवता के मंदिर में ही हरेला बोया जाता है.

बोने के बाद रोज -सुबह शाम स्वच्छ पानी 9-10 दिन तक दिया जाता है. इसको डलिया से ढक कर रख देते हैं ताकि किसी की नज़र न पड़े. 4- 5 दिन के बाद एक लोहे के बने ख़ास यंत्र से इसकी गुड़ाई की जाती है. लोहे के उस यंत्र को ‘ताऊ’ बोला जाता है. एक सीधी लोहे की छड जिसे आगे से दोमुंह करवा के लाया जाता है, वही ताऊ कहलाता है. इसी से हरेले की गुड़ाई होती है. धीरे-धीरे अनाज में अंकुर आने लगता है. 9वें या 10वे दिन तक उसमें ठीक-ठाक पौंध आ जाती हैं. इन बालियों को ही हरेला बोला जाता है.

ऐसा माना जाता है कि जिसके घर में जितना अच्छा हरेला उगा हो उसके खेतों में उतनी अच्छी फसल होती है. ईजा ने हरेला बो दिया है. इस बार हरेला कैसा होता है, यह तो 9 दिन के बाद ही पता चलेगा. पहाड़, पर्व और प्रकृति का यह अनोखा संबंध है.अब जैसा हरेला होगा वैसी ही इस बार की फसल होगी..

(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)

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