सार्वजनिक जीवन में मर्यादा की जरूरत है   

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

देश को स्वतंत्रता मिली और उसी के साथ अपने ऊपर अपना राज स्थापित करने का अवसर मिला. स्वराज अपने आप में आकर्षक तो है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके साथ जिम्मेदारी भी मिलती है. स्वतंत्रता मिलने के बाद स्वतंत्रता का स्वाद तो हमने चखा पर उसके साथ की जिम्मेदारी और कर्तव्य की भूमिका निभाने में ढीले पड़ कर कुछ पिछड़ते गए. देश को देने की जगह शीघ्रता और आसानी से क्या पा लें because इस चक्कर में भ्रष्टाचार, भेद-भाव तथा अवसरवादिता आदि का असर बढ़ने लगा. इसीलिए देश के आम चुनावों में कई बार भ्रष्टाचार एक मुख्य मुद्दा बनता रहा है और देश की जनता उससे मुक्ति पाने के लिए वोट देती रही है. परन्तु परिस्थितियों में जिस तरह का बदलाव आता गया है उसमें देश की राजनैतिक संस्कृति नैतिक मानकों के साथ समझौते की संस्कृति होती गई.

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आज की स्थिति में धन–बल, बाहु-बल, परिवारवाद के साथ राजनीति के किरदारों की अपराध में संलिप्तता किस जोर-शोर से बढ़ती जा रही है वह चिंता का विषय हो रहा है. आज स्थिति यह है कि वर्त्तमान सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के चलते राज्य के गृह मंत्री, मंत्री, सचिव, पुलिस के महानिदेशक और महानगरों के पुलिस कमिश्नर स्तर के जिम्मेदार और रसूखदार पद संभालने वाले लोग अपराध के मामलों में जेल भेजे गए हैं और भगोड़े आर्थिक अपराधियों पर शिकंजे कस रहे हैं.

पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रीय अस्थिरता, because आर्थिक दीवालिएपन और बर्बादी के हुए ताजे डरावने घटनाक्रम हमारे सामने है. उससे यह स्पष्ट होता है कि नैतिक मानकों की उपेक्षा और राजनीतिज्ञों के आर्थिक लोभ के चलते किसी देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. पिछले कुछ दिनों में भारत में जाने कितने हजार करोड़ों के घोटालों का पता चला है. इन सबके पीछे यही बात दिखाती है कि आचार में खोट आने पर हर किस्म की गिरावट की राह खुल जाती है. यही ध्यान में रख कर आचार अर्थात अच्छी तरह व्यवहार करने का तौर-तरीका परम धर्म यानी सबसे बड़ा धर्म या नियम के रूप में पहचाना गया है. आचार सबसे बड़ा तप है, सबसे बड़ा ज्ञान है. आचार हो तो जीवन में सब कुछ सध जाता है. सदाचार और चरित्र की बड़ी महिमा गाई जाती रही है.

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संसद के दोनों ही सदनों में संवाद करने की because व्यवस्था पूर्वस्वीकृत है और उनकी अपनी-अपनी परम्पराएं हैं परन्तु उनको दर किनार रख सारी सीमाओं को लांघते हुए यदि अभद्र शब्दावली और लहजे का प्रयोग किया जाय और अमर्यादित व्यवहार हो तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए.

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जीवन में नैतिकता की शुरुआत करने, उसकी अभिव्यक्ति और उसे बनाए रखने में आचार का बड़ा योगदान होता है और आचार का सबसे प्रकट पहलू हैं दूसरों के साथ पेश आते वख्त हमारे बातचीत के ढंग और व्यवहार. इस सन्दर्भ में भारतीय संसद आज कल चर्चा में है जहां संसद के भीतर असंसदीय शब्दों के प्रयोग और आचार को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं जिनको लेकर विपक्ष अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता because के हनन के आरोप लगा रहा है. वैसे तो संसद के दोनों ही सदनों में संवाद करने की व्यवस्था पूर्वस्वीकृत है और उनकी अपनी-अपनी परम्पराएं हैं परन्तु उनको दर किनार रख सारी सीमाओं को लांघते हुए यदि अभद्र शब्दावली और लहजे का प्रयोग किया जाय और अमर्यादित व्यवहार हो तो यह किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. यह बड़े ही खेद की बात है कि विगत कई वर्षों में रैलियों, जन-सभाओं, रोड शो आदि के दौरान सार्वजनिक मंचों पर नेता गण बेलगाम आरोप-प्रत्यारोप लगाने से नहीं चूकते नहीं दिखते.

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भारत वर्ष की संसद सार्वजनिक जीवन में because विचार-विमर्श के लिए उच्चतम वैधानिक संस्था है जहां माननीय जन-प्रतिनिधि गण सारे देश के लिए नियम कानून बनाते हैं और जरूरत पड़ने पर उसे बदलते भी हैं. यह उनकी स्वाभाविक जिम्मेदारी बनती है कि वे व्यवहार में विवेक का उपयोग करें और लोक-कल्याण की रक्षा करें.

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कई बार तो इस तरह के वक्तव्य बेवजह अफवाह फैला कर लोगों को दिग्भ्रमित करने लगते हैं. मीडिया पर होने वाली चर्चाओं ख़ास कर टी वी कार्यक्रमों में एक दूसरे पर जिस तरह व्यक्तिगत रूप से आपत्तिजनक आक्षेप लगने लगे हैं, because अपमानजनक बातें होने लगी हैं तथा निराधार और अमर्यादित टिप्पणियाँ की जाने लगी हैं वे भ्रम, पारस्परिक वैमनस्य और विद्वेष फैलाने वाली साबित हो रही हैं. कहना न होगा कि इस तरह के कई मामलों में उनके भयानक परिणाम भी सामने आ रहे हैं और सामाजिक सौहार्द खतरे में पड़ने लगा है. दूसरों को अपने से हेठा समझ कर बातचीत करते समय उनको पीड़ा और हानि पहुंचाना तथा प्रताड़ित करना मनुष्यता के अनुरूप नहीं होता.

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भारत वर्ष की संसद सार्वजनिक जीवन में because विचार-विमर्श के लिए उच्चतम वैधानिक संस्था है जहां माननीय जन-प्रतिनिधि गण सारे देश के लिए नियम कानून बनाते हैं और जरूरत पड़ने पर उसे बदलते भी हैं. यह उनकी स्वाभाविक जिम्मेदारी बनती है कि वे व्यवहार में विवेक का उपयोग करें और लोक-कल्याण की रक्षा करें. भारतीय संसद के दोनों सदन ‘सभा’ कहे जाते हैं. सभा शब्द का अर्थ होता है सभ्य जनों का समुदाय. सभ्य वही होता है जो सत्य बोले और सदाचार करे. इस तरह संसद सभ्य लोगों का समुदाय है.

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संसद के भीतर हंगामें होने के because दृश्य बार-बार लगातार टीवी, अखबार तथा दूसरे मीडिया माध्यमों पर आए दिन दिखाई पड़ने लगा है. ऐसा होना अशोभनीय होने से सभ्यता के दायरे में नहीं आता. ऐसा लगता है कि संसद के कार्य में बाधा पैदा करते हुए उसकी कारवाई को सुचारु रूप से न चलने देना ही विपक्ष का धर्म होता जा रहा है.

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संसद में किस तरह वाद, विवाद और संवाद किया जाय इसकी सर्वमान्य पद्धति स्वीकृत है जिसके अंतर्गत विपक्ष की भूमिका में सत्ता-पक्ष की आलोचना और विरोध की विधान-सम्मत सर्व-स्वीकृत जगह है. ऐसा करना हर because तरह से जायज भी ठहरता है. वस्तुत: यह एक स्वस्थ परम्परा है जो किसी भी लोक-तंत्र की व्यवस्था के संचालन के लिए एक अनिवार्य जरूरत होती है इसलिए उसे होना ही चाहिए ताकि सत्ता-पक्ष पर अंकुश रहे और उसके दायित्व की याद बनी रहे. यह गौरवशाली परम्परा भारत में रही है परन्तु अब स्थितियां बदल रही हैं.

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यह दुर्भाग्य ही कहा जायगा कि लोक-सभा (लोअर हाउस ) और राज्य-सभा (ऊपर हाउस ) में तार्किक चर्चा और सार्थक विचार-विनिमय की जगह सभाकक्ष के भीतर स्वच्छ धवल वस्त्र में अलंकृत माननीयों द्वारा जिस because तरह की अनर्गल टिप्पणी, शोर-शराबा, छीना-झपटी, तोड़-फोड़ और सभाध्यक्ष तथा सभासदों के साथ अभद्र व्यवहार करने की घटनाएं बढ़ रही हैं वह लज्जाजनक है. संसद के भीतर हंगामें होने के दृश्य बार-बार लगातार टीवी, अखबार तथा दूसरे मीडिया माध्यमों पर आए दिन दिखाई पड़ने लगा है. ऐसा होना अशोभनीय होने से सभ्यता के दायरे में नहीं आता. ऐसा लगता है कि संसद के कार्य में बाधा पैदा करते हुए उसकी कारवाई को सुचारु रूप से न चलने देना ही विपक्ष का धर्म होता जा रहा है.

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यह बड़े खेद की बात है कि कई बार संसद के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद युद्धनद्ध योद्धाओं का सा दृश्य उपस्थित करते हैं. इस तरह की अव्यवस्था के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम होते हैं. because संसद के सत्र के चलने में प्रति मिनट लगभग ढ़ाई लाख रूपये खर्च  बैठता है. ताजे आंकड़ों के अनुसार लोक-सभा में कुल बानबे घंटों की अवधि के माननीयों द्वारा उपस्थित किए गए व्यवधान के फलस्वरूप लगभग एक सौ चौवालिस करोड़ रूपये की आर्थिक हानि हुई. व्यवधान पड़ने के कारण बहुत सारे वैधानिक कार्य हंगामे की बलि चढ़ जाते हैं.

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यह बड़े खेद की बात है कि कई बार संसद के भीतर सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद युद्धनद्ध योद्धाओं का सा दृश्य उपस्थित करते हैं. इस तरह की अव्यवस्था के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम होते हैं. because संसद के सत्र के चलने में प्रति मिनट लगभग ढ़ाई लाख रूपये खर्च  बैठता है. ताजे आंकड़ों के अनुसार लोक-सभा में कुल बानबे घंटों की अवधि के माननीयों द्वारा उपस्थित किए गए व्यवधान के फलस्वरूप लगभग एक सौ चौवालिस करोड़ रूपये की आर्थिक हानि हुई. व्यवधान पड़ने के कारण बहुत सारे वैधानिक कार्य हंगामे की बलि चढ़ जाते हैं. इनसे कई काम रुक जाते हैं और जरूरी निर्णय because नहीं लिए जाते. ऐसा भी होता है कि बिना चर्चा के ही कई बिल बिना सोचे समझे यंत्रवत पास कर दिए जाते हैं. संचार माध्यमों से संसद की कार्यवाही का जनता के बीच सीधे प्रसारण का दर्शकों के मनोभावों पर भी बुरा असर पड़ता है. देख-देख कर बहुत से लोग इस तरह के आचरण को (वैध मान कर!) अपनाने भी लगते हैं. ऐसा करना नेतृत्व और सार्वजनिक कार्य में शामिल होने की इच्छा रखने वालों के लिए माडल भी बनने लगता है. बड़े लोग जिस राह पर चलते हैं उसे अक्सर लोग आँख मूंद कर अपनाने लगते हैं.

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इसमें कोई संदेह नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोक-तंत्र की जान और शान होती है. परन्तु कोई भी स्वतंत्रता पूरी तरह निरपेक्ष नहीं हो सकती. ऐसा हुआ तो वह निरंकुशता और स्वच्छंदता तक पहुँच जायगी जिसका परिणाम समाज के लिए घातक होगा. इस दृष्टि से यह जरूरी है संसद की मर्यादाओं को स्वीकार किया जाय. इसी से जनता के प्रति माननीय सांसदों की जवाबदेही भी पूरी हो सकेगी. because भारत की आम जनता पांच साल के लिए माननीयों को देश और समाज का भला करने के लिए भेजती है. इसलिए राजनीति को देश-हित की दिशा में ले जाने के लिए सांसदों को ज्यादा से ज्यादा समय संसद की कार्यवाही को सक्रिय और सकारात्मक रूप से चलाने में लगाना चाहिए. यह तभी हो सकेगा जब आचरण और भाषा की मर्यादाएं बनी रहें.

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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