महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

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प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

आज कल विभिन्न राजनीतिक दलों के लोक लुभावन पैंतरों और दिखावटी  सामाजिक संवेदनशीलता के बीच स्वार्थ का खेल आम आदमी को किस तरह दुखी कर रहा है यह जग जाहिर है. परन्तु आज से एक सदी पहले पराधीन भारत में लोक संग्रह का विलक्षण प्रयोग हुआ था. में जीवन का अधिकाँश बिताने के बाद उम्र के सातवें दशक में पहुँच रहे अनुभव-परिपक्व गांधी जी ने आगे के समय के लिए वर्धा को अपनी कर्म-भूमि बनाया था.

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नागपुर से75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्धा अब रेल मार्गों और कई राष्ट्रीय राजमार्गों से जुड़ चुका  है. तब महात्मा गांधी ने धूल-मिट्टी-सने और खेती-किसानी के परिवेश वाले इस पिछड़े ग्रामीण इलाके को  चुना और गाँव के साधारण किसान की तरह श्रम-प्रधान जीवन का वरण किया. इसके पीछे उनकी यह सोच और दृढ विश्वास था कि भारत का भविष्य देश के गाँवों के सशक्त होने में निहित है. उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का प्रयोजन सिर्फ राजनैतिक सत्ता-परिवर्तन तक सीमित न हो कर पूरे भारतीय समाज की सर्वतोमुखी उन्नति या सर्वोदय था.

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गांधी जी ने यह सन्देश भी दिया कि सामाजिक जीवन को समग्रता में देखने की आवश्यकता है और शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनैतिक चेतना, आजीविका और सामाजिक जीवन सभी एक दूसरे से अभिन्न रूप से गुंथे हुए हैं, इस काम में समाज के हर वर्ग को साथ ले कर चलना होगा और इसकी पद्धति विकेन्द्रित होगी. राजनीतिक जीवन का उनका सघन अनुभव सामाजिक परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए धकेल रहा था. because वह राजनीति के प्रयोजन को व्यावहारिक स्तर पर पुनर्परिभाषित कर रहे थे.

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सन 1930 में दांडी सत्याग्रह के दौरान गांधी जी को लगा कि स्वतंत्रता आन्दोलन का केंद्र भौगोलिक दृष्टि से भारतवर्ष के मध्य में होना चाहिए. इसका समाधान तब मिला जब सेठ जमनालाल बजाज  के आग्रह पर गांधी जी 1934 में वर्धा पहुँचे. आरम्भ में जमनालाल जी द्वारा दिए गए एक बड़े भू खंड पर अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की शुरुआत की ताकि गावों की हस्त-कलाएं और हुनर, खेती से जुड़े कुटीर उद्योग, सफाई because और अस्पृश्यता-निवारण आदि सामाजिक–आर्थिक कार्यों को अमली जामा पहनाया जा सके. यह स्थान ‘मगनवाड़ी’ के रूप में विख्यात हुआ. ग्रामीणों को खादी, चरखा चलाने, हिसाब-किताब करने, दुग्ध उत्पादन, तेल निकालने और अन्य आर्थिक कार्यों के लिए प्रशिक्षण दिया जाने लगा. निश्चय ही यह सब स्वावलंबन के सहारे स्वदेशी और सर्वोदय के आन्दोलन को जमीनी स्तर पर आगे बढाने के लिए शुरू किया गया एक क्रांतिकारी सामाजिक प्रयोग था. इस तरह वर्धा राष्ट्र-निर्माण के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रयोगशाला बन गया.

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मगनबाड़ी में दो साल बड़े काम के रहे पर गांधी जी गाँव में रहने वाले एक सीधे-साधे किसान की जिन्दगी जीना चाहते थे. कस्बे के किनारे मगनबाड़ी से दस किलोमीटर दूर एक निर्जन से इलाके में ‘सेगाँव’ नामक स्थान पर आश्रम स्थापित करने का निश्चय हुआ. जमनालाल जी द्वारा दी गई जमीन पर आश्रम का निर्माण हुआ.  सन  1936 में 67 वर्ष की आयु वाले गांधी जी सेगाँव पहुंचे और वहीं स्थायी रूप से रहने लगे. उन्होंने इसका नाम बदल कर 1940 में ‘सेवा ग्राम’ (सेवा करने के लिए स्थान!) रख दिया. वहीं कस्तूरबा और अपने कई अनुयायियों के साथ कुछ कुटियों में वे रहे. सार्वजनिक रसोई में दलित अस्पृश्य लोगों को लगाया गया ताकि लोगों के मन से अस्पृश्यता की घृणा की बाधा पार हो. महादेव देसाई, प्यारे लाल और राजकुमारी अमृत कौर ने सचिव का दायित्व संभाला.

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गांधी जी की कुटी की छत बॉस, चटाई और खपड़े दीवारें मिट्टी से पुतीं थीं. खिड़कियां और फाटक दरवाजे भी बांस के थे. खजूर के पत्तों से चटाई बनी थी. बॉस की आलमारी थी. गांधी जी ने सत्य, अहिंसा ( दूसरों से प्रेम ), ब्रह्मचर्य, because अस्तेय (चोरी न करना) अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादे सामान न रखना), शारीरिक श्रम, अस्वाद (स्वाद पर नियंत्रण), अभय, सर्वधर्म-समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यता-निवारण को आश्रम-व्रत नियत किया था. आश्रम का लक्ष्य गया रखा था : बिना घृणा के मातृभूमि की सेवा, दूसरों को दुःख दिए बिना अध्यात्म का विकास, साधन और साध्य की पवित्रता और आत्म-निर्भरता.

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आश्रम में गांधी जी एक अनुशासित दिन-चर्या के अनुसार कार्य करते थे. वे समय के बड़े पाबन्द थे. वे सुबह 4.00 बजे बिस्तर से उठ जाते थे और 9.00 बजे रात को सोने जाते थे. सोमवार को मौन रहते थे. प्रात: काल और संध्या समय प्रार्थना होती थी जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थनाएं होती थीं. नरसीदास का भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए‘ और भगवद्गीता का द्वितीय अध्याय गांधी जी को बड़े प्रिय थे. सेवाग्राम की because कार्य पद्धति सर्वोदय पर टिकी थी.  व्यक्ति गांधी जी का दृढ विचार था कि व्यक्ति का कल्याण सर्व के कल्याण में निहित है और श्रमशील जीवन ही श्रेष्ठ है. गांधी जी ने सात सामाजिक पापों के प्रति आगाह किया थ: सिद्धांत विहीन राजनीति, श्रम बिना धन, नैतिकता विना व्यापार, चरित्र बिना शिक्षा, विवेक बिना सु , मानवता बिना विज्ञान, तथा त्याग बिना पूजा. गांधी जी ने  एक व्यापक रचनात्मक कार्यक्रम  आरम्भ  किया था जो  सामुदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, शराब बंदी, खादी, ग्रामोद्योग, ग्रामीण स्वच्छता, शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, स्त्री, स्वस्थ्य शिक्षा, देशी भाषा प्रांतीय, राष्ट्र भाषा, आर्थिक समानता, किसान, श्रम, आदिवासी,  कुष्ट रोग, विद्यार्थी जीवन की समस्याओं से जुड़ा था.

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सेठ जमनालाल बजाज का गांधी जी के विचारों और कार्यों में अगाध  विश्वास था और गांधी जी का भी उन पर बड़ा स्नेह था. उनको वे अपना पांचवा पुत्र कहते थे. दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी के जीवन और कार्य ने जमनालाल जी के मन पर अमिट छाप छोडी थी. साबरमती आश्रम में वे पत्नी और बच्चों के साथ कुछ दिन रहे जहां गांधी जी की राष्ट्र-भक्ति, सीधी-सादी जीवन-चर्या, नीतियां और कार्यक्रम because आदि का साक्षात अनुभव किया और बेहद प्रभावित हुए. जमनालाल जी के आवास-परिसर  बजाजवाड़ी में पंडित जवाहर लाल नेहरू, ड़ा. राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, आचार्य कृपालानी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, तथा सरोजिनी नायडू आदि आते रहे. बजाजबाड़ी के निकट गांधी चौक पर बाल गंगाधर तिलक,  महात्मा गांधी और इस क्षेत्र के प्रख्यात संत साने गुरू जी, संत गाडगे जी महाराज और संत तुकड़ो जी महाराज  आदि के सार्वजनिक व्याख्यान होते थे.

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बापू के आग्रह पर सेगांव में उनकी कुटी का निर्माण लकड़ी,  मिट्टी, ईंट, गारे के स्थानीय संसाधनों से किया गया. एक बंजर भूमि  में कामचलाऊ बॉस आदि की से बनी झोपड़ी में रहे जब तक आदि निवास नहीं बन गया. because जब भीड़ बढ़ने लगी तो वह एक दूसरी कुटी  में चले गए. फिर कुछ और कुटियाँ भी बनीं. एक सार्वजनिक रसोई भी बनी. सहजता, आध्यात्मिकता और आदर्श की भावना से ओत-प्रोत देश-सेवा को समर्पित  यह आश्रम  उस समय भारत की राजधानी सरीखा था. वाइसराय लिन लिथिगो ने गांधी के साथ संपर्क बनाने के लिए टेलीफोन की हाट लाइन लगवाई थी. वे एक रात गांधी जी के साथ स्वयं भी आश्रम में रहे. सामान्य जीवन शैली अपनाते हुए जीवन का अभ्यास किया जिसमें जरूरत भर का तो हो पर लोभ न हो .

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सन 1936 में हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति गठित की जो तब से अनवरत कार्यरत है. अंग्रेजी शिक्षा के कटु आलोचक गांधी जी  ने हस्त-कौशल पर आधृत सात साल की आयु तक निशुल्क because और अनिवार्य शिक्षा तथा मातृ-भाषा में शिक्षा पर जोर दिया. उनकी ‘नई तालीम’ में ह्रदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के उपयोग पर बल दिया गया. सेवा ग्राम में रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रयोगशाला खड़ी हो गई और नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को कार्य रूप दिया जाने लगा. यहाँ के प्रसिद्ध लक्ष्मी नारायण मंदिर में दलितों के साथ प्रवेश किया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठकें यहाँ होती रहीं. यहीं 1942 में शुरू हुए प्रसिद्ध ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ के निर्णायक आन्दोलन का फैसला लिया गया था.

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सन 1946 में गांधी जी यहाँ से दंगाग्रस्त नोआखाली में शांति बहाल करने निकले फिर वापस नहीं आए. गांधी जी ने अहिंसक असहयोग आन्दोलन को स्वदेशी की अवधारणा से जोड़ा और विदेशी सामग्री का बहिष्कार किया, because खादी वस्त्र का उपयोग बढाया, राजनीति की सामाजिक प्रासंगिकता स्थापित किया तथा आत्म-बल और नैतिकता को व्यावहारिक आदर्श बना कर दिखाया. महात्मा गांधी के इस वर्धा प्रयोग में सेठ जमनालाल बजाज ने तन, मन और धन के साथ गांधी जी के रचनात्मक कार्य में भरपूर सहयोग किया और शामिल हुए. यह प्रयोग लोक संग्रह की अद्भुत मिसाल है और लोक धर्मी शासन के लिए बहुत सारे संकेत भी देता है. आज जब आजादी के अमृत महोत्सव की बात हो रही है तो हमारे राजनीतिक दलों को आत्म निरीक्षण करना चाहिए कि वे किस तरह सही अर्थों में  लोक की ओर अभिमुख हो सकेंगे .

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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