संस्मरण

सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

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भूवैज्ञानिक, लेखक, पत्रकार, प्रसिद्ध फोटोग्राफर, घुमक्कड़, विचारक एवं देहरादून डिस्कवर पत्रिका के संस्थापक संपादक दिनेश कण्डवाल का अचानक हमारे बीच से परलोक जाना सबको स्तब्ध कर गया. सोशल मीडिया में उनके देहावसान की खबर आते ही उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से लेकर हर पत्रकार एवं आम लोगों द्वारा उन्हें अपने—अपने स्तर और ढंग से श्रद्धांजलि दी गई. हिमांतर.कॉम दिनेश कंडवाल को श्रद्धासुमन अर्पित करता है. कंडवाल जी का जाना हम सभी के लिए बेहद पीड़ादाय है. उनको विनम्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि… मनोज इष्टवाल पहली मुलाक़ात 1995....... स्थान चकराता जौनसार भावर की ठाणा डांडा थात. गले में कैमरा व एक खूबसूरत पहाड़ी महिला के साथ “बिस्सू मेले” में फोटो खींचता दिखाई दिया यह व्यक्ति. गले में लटका कैमरा Nikon F-5 . मैं अचम्भित था कि चकराता में यह जापानी, चीनी या फिर कोरियन व्यक्ति कैसे आया व इनके सम्पर्...
कुछ लोग दुनिया में खुशबू की तरह हैं

कुछ लोग दुनिया में खुशबू की तरह हैं

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देश—परदेश भाग—4 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में हिन्दी की तमाम गतिविधियों की बागडोर मारिया जी लम्बे समय से संभाले हुए हैं. डॉ मारिया नैज्येशी! बुदापैश्त में प्रतिष्ठित ऐलते विश्वविद्यालय के भारोपीय अध्ययन विभाग की अनवरत अध्यक्षा! मारिया जी विश्वविद्यालय स्तर पर प्राचीन यूनानी, लैटिन और संस्कृत भाषाएँ पढ़ रही थी जब अपने गुरु प्रोफ़ेसर तोत्तोशि चबा की प्रेरणा से वे भारत केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढ़ने आई. बाद में भारत के प्रेमचंद और हंगरी से मोरित्स जिग्मोंद – इनके साहित्य पर शोध किया और पीएचडी की डिग्री भारत से हासिल की. मारिया जी कहती हैं कि जब हंगरी में उन्होंने हिन्दी पढ़ना शुरू किया – तब न हिन्दी की किताबें थी, न हिन्दी जानने वाले अधिक लोग. फिर जब वे हिन्दी पढ़ने भारत आईं तो यहाँ का जीवन उनके लिए बिलकुल नया और अलग अनुभव लेकर आया. फिर भी भारत ने उन्हें प्रेरित किया. भारत से लौ...
हमारे हिस्से के प्रो. डीडी पंत

हमारे हिस्से के प्रो. डीडी पंत

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सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री और हिमालय के चिंतक प्रो. डीडी पंत की पुण्यतिथि (11 जून, 2008) पर विशेष चारु तिवारी मैं तब बहुत छोटा था. नौंवी कक्षा में पढ़ता था. यह 1979-80 की बात है. बाबू (पिताजी) ने बताया कि दुनिया के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक आज बग्वालीपोखर में आ रहे हैं. बग्वालीपोखर में उन दिनों सड़क तो नहीं आई थी. हां, बिजली के पोल गढ़ गये थे, या कहीं बिजली आ भी गई थी. हमारे लिये वैसे भी अपने क्षेत्र के बाहर के आदमी को देखना ही कौतुहलपूर्ण था. वैज्ञानिकों और उनकी खोजों के बारे में किताबों में ही पढ़ते थे. हमें लगता था कि वैज्ञानिक आम आदमी से कुछ अलग होते होंगे. प्रतिभा और विद्वता में तो होते ही हैं, लेकिन हमें लगता था कि देखने में भी अलग होते होंगे. प्रो. डीडी पंत जी को पहली बार दूर से देखने का सुख मात्र एक वैज्ञानिक को देखने की बालसुलभ जिज्ञासा थी. उस समय पृथक उत्तराखंड राज्य के ल...
चीड़ को इस नज़र से भी देखना होगा

चीड़ को इस नज़र से भी देखना होगा

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—20 प्रकाश उप्रेती पहाड़ की हर चीज आपको कुछ न कुछ देती है. पहाड़ के लोगों का हर पेड़, ढुङ्ग (पत्थर), भ्योव (पहाड़), गढ्यर, और झाड़ियों से एक रिश्ता होता है. आज बात करते हैं- 'सोह डाव' (चीड़ के पेड़) और उसकी धरोहर- 'ठिट'(चीड़ का फल) और 'छिलुक' (आग पकड़ने वाली लकड़ी) की. जाड़े के दिनों में हमारा एक काम 'भ्योव बे ठिट'(जंगल से चीड़ का फल) लाने का भी होता था. ईजा घास काटने जाती थीं तो हम उनके साथ ठिट चाहने जाते थे. जाड़े की सुबह-सुबह जब 'हॉल' (कोहरा) के कारण दिखाई भी मुश्किल से देता था तो ईजा कहती थीं- "भ्योव हिट च्यला वोति घाम ले तापी हाले और आग तापे हैं 'मुन' (पेड़ की जड़) और ठिट ले चाहा ल्याले". ( बेटा मेरे साथ पहाड़ चल वहाँ से अंगीठी में जलाने के लिए चीड़ के फल, लकड़ी की जड़े भी ले आएगा और धूप भी सेक लेगा)  यह कहते हुए ईजा हमको एक बोरी देती थीं. हम ईजा के साथ भ्यो चल...
अपनेपन की मिठास कंडारी बंधुओं का ‘कंडारी टी स्टाल’

अपनेपन की मिठास कंडारी बंधुओं का ‘कंडारी टी स्टाल’

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डॉ. अरुण कुकसाल चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने अपनी किताब 'इ़श्क में शह़र होना’ में दिल से सटीक बात कही कि ‘'मानुषों को इश्क आपस में ही नहीं वरन किसी जगह से भी हो जाता है. और उस जगह के किन्हीं विशेष कोनों से तो बे-इंतहा इश्क होता है. क्योंकि बीते इश्क की कही-अनकही बातें और सफल-असफल किस्से उन्हीं कोनों में दुबके रहते हैं. ये अलग बात है कि नये वक्त की नई चमचमाहट और आपाधापी में उन किस्सों और बातों के निशां दिखाई नहीं देते हैं. पर दिल का सबसे नाजुक कोना उन्हें ताउम्र बखूबी महसूस करता है.’' श्रीनगर गढ़वाल के 'सेमवाल पान भंडार' और उससे सटा 'कंडारी की स्टाल' क्रमशः प्रोफेसरों और छात्रों का बिड़ला कालेज से इतर का मिलन केन्द्र हुआ करता था. अक्सर किसी सेमीनार या कार्यक्रम हाल में बैठे प्रतिभागियों से ज्यादा गम्भीर चर्चा उससे ऊब कर हाल से बाहर आये प्रतिभागियों में होती है. श्रीनगर में रहते ...
पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

पप्पू कार्की: सुरीली आवाज का जादूगर

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चारु तिवारी हम लोग उन दिनों राजधानी गैरसैंण आंदोलन के लिये जन संपर्क करने पहाड़ के हर हिस्से में जा रहे थे. हमारी एक महत्वपूर्ण बैठक हल्द्वानी में थी. बहुत सारे साथी जुटे. कुमाऊं क्षेत्र के तो थे ही गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्रों से भी कई साथी आये थे. हमारे हल्द्वानी के साथी सीए सरोज आनंद जोशी ने कहा कि बैठक शुरू होने से पहले कुछ गीत गा लेंगे. हम अपने कार्यक्रमों को जनगीतों से ही शुरू भी करते हैं. उन्होंने कहा कि मैं कुछ अच्छे गाने वालों से बात करता हूं. बैठक शुरू होने से पहले हारमोनियम के साथ गीत बजा- ‘पहाडा ठंडो पांणी, सुण कसि मीठी वाणी छोड़न नी लागनी... हाय... छोड़न नी लागनी.’ वह पूरी तरह गीत में डूब कर. लय, सुर, मिठास और भाव-भंगिमा के साथ गाया गीत आज भी स्मृतियों में ज्यों का त्यों है. लगता है कहीं आसपास गीत गा रहा है पप्पू. उसमें शालीनता प्रकृति प्रदत्त थी. बहुत कोमल और बहुत उन्...
पेट पालते पेड़ और पहाड़ 

पेट पालते पेड़ और पहाड़ 

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—19 प्रकाश उप्रेती आज बात उस पहाड़ की जो आपको भूखे नहीं रहने देता था. तस्वीर में आपको- तिमिल और कोराय के पेड़ नज़र आ रहे हैं. तिमिल की हमारे यहां बड़ी मान्यता थी. गाँव में तिमिल के तकरीबन 10-12 पेड़ थे. कहने को वो गाँव के अलग-अलग लोगों के थे लेकिन होते वो सबके थे. एक तरह से तिमिल साझी विरासत का पेड़ था. तिमिल के पत्ते बहुत चौड़े होते थे. उन पत्तों का इस्तेमाल शादी-ब्याह में पत्तल और पूड (दोने) के तौर पर होता था. साथी ही 'सज्ञान' (कोई भी लोक पर्व या उत्सव) के दिन गाँव में तिमिल के पत्तों में रखकर ही 'लघड़' (पूरी) बांटते थे. ईजा 'कौअ बाई' (कौए के लिए पूरी) निकालने के लिए भी तिमिल के पत्तों का उपयोग करती थीं. इसलिए पेड़ किसी का भी हो अधिकार सबका होता था. सज्ञान के दिन ईजा हमको सुबह-सुबह नहलाकर, पिठ्या लगाकर कहती थीं कि "च्यला जरा तिमिलेक पतेल ली हा". हम ...
कालेकावा और उतरैंणि कौतिक

कालेकावा और उतरैंणि कौतिक

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‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—10 रेखा उप्रेती माघ की पहली भोर, पहाड़ों पर कड़कड़ाता जाड़े का कहर, सूरज भी रजाई छोड़ बाहर आने से कतरा रहा है, पर छोटे-छोटे बच्चे माँ की पहली पुकार पर उठ गए हैं. आज न जाड़े की परवाह है न अलसाने का लालच. झट से सबने अपनी ‘घुगुती माला’ गले में डाल ली है और छज्जे से बाहर झाँककर एक स्वर में गाने लगे हैं… काले कावा काले घुगुती मावा खाले… पहाड़ छूटे चालीस बरस हो चुके हैं, पर मकर-संक्रांति पर मनाये जाने वाले ‘घुगुती-त्यार’ के दृश्य अब भी आँखों में तिरते हैं…. एक शाम पहले गुड़ के पाग में गूँथे आटे से विभिन्न आकृतियों के घुगुत बनाए जा रहे हैं.  लोई को हथेलियों से पतले लम्बे रोल में बदल, उसे ट्विस्ट कर घुगुत का आकार दिया जा रहा है. बच्चे परात को घेर कर बैठे हैं. सबके हाथों में आटे की लोइयाँ हैं. कलाकारी दिखाने का अवसर है. ‘देखो, मैंने दाड़िम का फूल बनाया..’ एक कहता ‘और...
जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

जागर, आस्था और सांस्कृतिक पहचान की परंपरा

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मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—18 प्रकाश उप्रेती आज बात बुबू (दादा) और हुडुक की. पहाड़ की आस्था जड़- चेतन दोनों में होती है . बुबू भी दोनों में विश्वास करते थे. बुबू 'जागेरी' (जागरी), 'मड़-मसाण', 'छाव' पूजते थे और किसान आदमी थे. उनके रहते घर में एक जोड़ी भाबेरी बल्द होते ही थे. खेती और पूजा उनकी आजीविका का साधन था. उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था. तकरीबन 5 फुट 8 इंच का कद, ललाट पर चंदन, कानों में सोने के कुंडल, हाथ में चांदी के कड़े, सर पर सफेद टोपी जिसमें एक फूल, बदन पर कुर्ता- भोटु और धोती, हाथ में लाठी जिसमें ऊपर की तरफ एक छोटा सा घुँघरू रहता व नीचे लोहे का 'सम'(लोहे की नुकीली चीज) और आवाज इतनी कड़क की गाँव गूँजता था. इलाके भर में उनको सब जानते थे. जब भी जागेरी लगाने जाते थे तो कंधे पर एक झोला होता था जिसमें हुडुक, लाल वाला तौलिया, मुरली (बाँसुरी), 'थकुल बजेणी आंटु' (थाली बजाने वाल...
कब चुभेंगे हिसाऊ, क़िलमोड के कांटे

कब चुभेंगे हिसाऊ, क़िलमोड के कांटे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—17 प्रकाश उप्रेती आज बात हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ की. ये हैं, कांटेदार झाड़ियों में उगने वाले पहाड़ी फल. इनके बिना बचपन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. देश के अन्य राज्यों में ये होते भी हैं या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है. बचपन में कभी बाजार से खरीदा हुआ कोई फल खाया हो ऐसा याद नहीं. दिल्ली वाले रिश्तेदार मिठाई, चने और मिश्री लाते थे तो पहाड़ में रहने वाले एक बिस्किट का पैकेट, सब्जी, दूध, दही, छाँछ, उनके घर में लगी ककड़ी, गठेरी, दाल, बड़ी, घर से बनाकर पूरी और चार टॉफी में से जो हो, वो लाते थे. आता इन्हीं में से कुछ था. कभी- कभी एक सेठ बुआ जी केले जरूर ले आती थीं. तब यही अपने फल थे. करूँझ तोड़ते हुए तो अक्सर हाथों पर कांटे चुभ जाते थे लेकिन जान हथेली पर लेकर तोड़ते जरूर थे. तोड़ने को लेकर लड़ाई भी खूब होती थी. पहले मैंने देखे, इस पर ज्यादा हो रहे हैं, इस ...